फिल्म जनसंचार का एक शक्तिशाली माध्यम है जो सामाजिक समझ को कई तरह से प्रभावित करता है। कई दशकों पहले भारत में ऐसी फिल्में बनी जो सामाजिक यथार्थ को प्रतिबिंबित करती थीं और प्रगतिशील मूल्यों को बढ़ावा देती थीं। 'मदर इंडिया', 'दो बीघा ज़मीन' और 'नया दौर' ऐसी ही कुछ फिल्में थीं। कुछ बायोपिक फिल्मों ने भी यथार्थपरक आम समझ को विस्तार और समावेशी मूल्यों को प्रोत्साहन दिया। रिचर्ड एटनबरो की 'गाँधी' और भगत सिंह के जीवन पर बनी कुछ फिल्में अत्यंत प्रेरणाप्रद थीं। ये बायोपिक मेहनत और सावधानी से किए गए शोध पर आधारित थीं और अपने-अपने नायकों के वास्तविक चरित्र को परदे पर उकेरती थीं।
बहुसंख्यकवादी और विघटनकारी मुद्दों पर आधारित राजनीति और हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा का बोलबाला बढ़ने के साथ ही भारत की फ़िल्मी दुनिया के कई लोग ऐसी फिल्में बनाने लगे हैं जो एक विशिष्ट विघटनकारी नैरेटिव को प्रोत्साहित करती हैं और राजनीति और इतिहास को देखने के सांप्रदायिक नज़रिए पर आधारित हैं। ऐसी सभी फिल्मों में सच को तोड़ा-मरोड़ा जाता है और ज्यादातर मामलों में हिन्दू राष्ट्रवादी नायकों का महिमामंडन किया जाता है। इनमें से अधिकांश फिल्मों में सच के साथ समझौता किया जाता है और झूठ को सच के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी ही एक फिल्म 'द कश्मीर फाईल्स' का प्रधानमंत्री मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जमकर प्रचार किया था। भाजपा के कई नेताओं ने थोक में इस फिल्म के टिकट खरीदकर अपने इलाके के लोगों को बांटे थे ताकि वे फिल्म देख सकें। इस फिल्म का प्रचार करने वालों का दावा था कि यह फिल्म कश्मीर का असली सच लोगों के सामने लाई है।
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इसी तरह की एक दूसरी फिल्म 'द केरेला स्टोरी' में इस्लाम में धर्मपरिवर्तन करने वालों और इस्लामिक स्टेट (आईएस) में शामिल होने वालों की संख्या को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया था। इस तरह की कई फिल्में बॉक्स आफिस पर बुरी तरह पिट गईं। इनमें शामिल थीं '72 हूरें' जिसमें आतंकवाद को राजनीति की बजाए धर्म से जोड़ा गया था। इस फिल्म में इस तथ्य को भी दबाया गया था कि हिन्दू धर्म में भी स्वर्ग में अप्सराओं के साथ आनंद करने की बातें कही गईं हैं। इसी तरह अन्य धर्मों में भी स्वर्ग में परियों की चर्चा है।
'द केरेला स्टोरी', 'द कश्मीर फाईल्स', 72 हूरें इत्यादि का उद्धेश्य है इस्लामोफोबिया फैलाना। दूसरी ओर गोडसे पर 2022 में बनी फिल्म में महात्मा गांधी के हत्यारे का महिमागान किया गया था। इसमें संघ परिवार का वह पुराना झूठ फिर एक बार दुहराया गया था कि गांधीजी ने भगतसिंह को फांसी से नहीं बचाया और उनकी शहादत पर शोक व्यक्त करने वाले कांग्रेस के एक प्रस्ताव का विरोध किया। और अब आई है रणदीप हूडा की 'स्वातंत्र्यवीर सावरकर'। यह झूठ का प्रचार करने में नई ऊँचाईयां अर्जित करती है। फिल्म में दिखाया गया है कि भगतसिंह सावरकर से जा कर मिले और यह इच्छा व्यक्त की कि वे सावरकर की पुस्तक 'फर्स्ट वॉर ऑफ़ इंडीपेंडेस' का मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहते हैं!
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सच क्या है? कई क्रांतिकारियों ने इस पुस्तक को पढ़ा है और उसे सराहा भी है। मगर समस्या यह है कि यह पुस्तक मराठी में 1908 के आसपास प्रकाशित हुई थी और इसके एक साल बाद उसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हो गया था। भगतसिंह का जन्म 1907 में हुआ था और वे अपने जीवन में कभी सावरकर से नहीं मिले।
फिल्म में सावरकर को यह कहते हुए दिखाया गया है कि भारत 1912 तक स्वाधीनता हासिल कर लेगा - अर्थात जब हमें स्वतंत्रता मिली उस से करीब 35 साल पहले। सच यह है कि 1910 से ही सावरकर अंडमान के सेल्लयुलर जेल में थे और वहां से अंग्रेज सरकार से माफी मांगते हुए याचिकाएं लिख रहे थे। सन् 1912 तक वे ऐसी तीन याचिकाएं लिख चुके थे। इन सभी याचिकाओं में सरकार से उसका विरोध करने के लिए क्षमायाचना की गई थी और यह भी कहा गया था कि अगर उन्हें जेल से रिहा कर दिया जाए तो वे निष्ठापूर्वक ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार रहेंगे। और जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार बने रहे। हमारे स्वाधीनता संग्राम ने 1920 में जोर पकड़ा जब कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में बड़ी संख्या में लोगों ने भागीदारी की।
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फिल्म यह प्रश्न भी उठाती है कि किसी कांग्रेस के नेता को अंडमान जेल क्यों नहीं भेजा गया और क्यों उन्हें भारत में जेलों में रखा गया। पहली बात तो यह है कि इस तथ्य की सत्यता की पुष्टि की जानी होगी। दूसरी बात यह कि सन् 1920 के बाद से कांग्रेस और गांधीजी ने अहिंसा की राह अपना ली थी और इस कारण उनके अनुयायियों को अंडमान या फांसी की सजा नहीं दी गई और उन्हें भारतीय जेलों में ही रखा गया। भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को हिंसा में शामिल होने के कारण फांसी की सजा दी गई थी। चूंकि गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अहिंसा के सिद्धांत का पालन किया इसलिए उसके सदस्यों को फांसी या अंडमान की सजा नहीं हुई।
यह फिल्म हमें बताती है कि भारत को अहिंसा के रास्ते नहीं वरन् हिंसा के रास्ते स्वतंत्रता मिली। भारत में जो क्रांतिकारी सक्रिय थे उनमें से अधिकांश हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन से थे। भगतसिंह और उनके साथियों की मृत्यु के बाद भारत में कोई बड़ा क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हुआ। सावरकर के अभिनव भारत ने सावरकर द्वारा सरकार से क्षमायाचना करने के बाद ब्रिटिश सरकार का विरोध करना बंद कर दिया। सुभाष चन्द्र बोस, जिन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया था, 1945 में मारे गए और आजाद हिंद फौज के अफसरों और सिपाहियों को लालकिले में बंदी बनाकर रखा गया। अदालतों में इन युद्धबंदियों का बचाव करने के लिए जवाहरलाल नेहरू की पहल पर कांग्रेस ने एक समिति का गठन किया था।
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फिल्म यह भी बताती है कि आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजों से लड़ने की सलाह सावरकर ने ही बोस को दी थी! यह तथ्यों के एकदम विपरीत है। कांग्रेस छोड़ने के बाद ही बोस ने यह तय कर लिया था कि वे जर्मनी और जापान की मदद से ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध जंग छेड़ेंगे। जिस समय बोस ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध युद्धरत थे उस समय सावरकर हिंदू महासभा से यह अनुरोध कर रहे थे कि वह अधिक से अधिक संख्या में हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती करवाए ताकि द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की शक्ति बढ़े।
हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने सभी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों से यह अपील की थी कि वे किसी भी तरह और हर तरह से यह प्रयास करें कि भारतीय युवा ब्रिटिश सेना में भर्ती हों। इसके अगले साल 1940 में गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया। उसी साल दिसंबर में हिंदू महासभा के सत्र को संबोधित करते हुए सावरकर ने हिंदू युवकों का आव्हान किया कि वे बड़े पैमाने पर ब्रिटिश सेना की विभिन्न शाखाओं में भर्ती हों।
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सावरकर के बारे में लिखते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि सावरकर अंतर्राष्ट्रीय स्थिति से नावाकिफ हैं और केवल यह सोच रहे हैं कि ब्रिटिश सेना में भर्ती होने से हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण हासिल हो सकेगा।" बोस का निष्कर्ष था कि "मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा से कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती"।
आजाद हिंद रेडियो के जरिए भारतीयों को संबोधित करते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, "मैं मिस्टर जिन्ना, मिस्टर सावरकर और अन्य ऐसे सभी लोगों, जो अब भी ब्रिटिश सरकार के साथ समझौते की बात कर रहे हैं, से यह अनुरोध करना चाहता हूं कि वे यह समझ लें कि आने वाली दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य नहीं होगा"।
जहां तक फिल्म में सावरकर और सुभाष बोस को सहयोगियों की तरह प्रस्तुत करने का प्रश्न है, नेताजी के प्रपौत्र चन्द्रकुमार बोस ने फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद हूडा से कहा था, "कृपया नेताजी को सावरकर से मत जोड़िए। नेताजी एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष नेता थे। वे देशभक्तों के देशभक्त थे"।
यह फिल्म आने वाले चुनावों के मद्देनजर हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति को मजबूती देने के लिए सच को तोड़ने-मरोड़ने का एक और प्रयास है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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