न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में 15 मार्च 2019 को हुए भीषण नरसंहार ने दुनिया को दहला दिया है। हत्यारा ब्रेंटन हैरिसन टेरेंट, ऑस्ट्रेलियाई नागरिक है। दो मस्जिदों पर हुए इस हमले में करीब 50 लोग मारे गए, जिनमें से नौ भारतीय मूल के थे। टेरेंट ने इस कत्लेआम की सोशल मीडिया पर लाइव स्ट्रीमिंग करने के लिए अपने सिर पर एक कैमरा लगा रखा था। उसने यह खून-खराबा इसलिए किया क्योंकि उसका मानना था कि मुस्लिम प्रवासी और उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा, यूरोप के लिए बड़ा खतरा है। यह आतंकवादी, मुसलमानों से गहरी नफरत करता है और कट्टर नस्लवादी है। उसने इस घृणित कांड को अंजाम देने से पहले एक लम्बा वक्तव्य, जिसे वह ‘श्वेत राष्ट्रवाद का घोषणापत्र’ कहता है, सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।
दुनिया भर में इस हमले को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री, 38-वर्षीय जेसिंडा अर्डर्न, जो कि दुनिया की सबसे कम आयु के राज्यप्रमुखों में से एक हैं, ने कहा कि हमले के शिकार लोग, जिनमें से कई प्रवासी या शरणार्थी हो सकते हैं, ‘हम में से हैं’ और उन पर गोलियां चलने वाला ‘हम में से नहीं है’। प्रधानमंत्री के वक्तव्य का मुख्य स्वर यह था कि उनका देश ‘विविधता, करुणा और आश्रय’ का पर्यायवाची है। उन्होंने कहा, “मैं लोगों को यह आश्वस्त करना चाहती हूँ कि हमारी सभी एजेंसियां, हमारी सीमाओं सहित, सभी स्थानों पर, उपयुक्त कार्यवाही कर रही हैं।”
दिल को छू लेने वाले अपने भाषण में, पोप ने कहा, “इन दिनों, युद्ध और टकराव, जो मानवता का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं, के दर्द के अलावा, हमारे सामने क्राइस्टचर्च, न्यूज़ीलैंड पर भयावह हमले के पीड़ित हैं। मैं हमारे मुस्लिम भाइयों और उनके समुदाय के साथ खड़ा हूं।”
भारत की तरह, दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इस्लाम और मुसलमानों के प्रति घृणा और भय के भाव की जडें, इतिहास की संकीर्ण समझ में है। मुसलमानों के प्रति घृणा में, 9/11 के बाद तेजी से वृद्धि हुई। अब तो इतिहास का एक नया संस्करण तैयार हो गया है जो मुस्लिम आक्रान्ताओं पर केन्द्रित है। भारत की तरह, यूरोप में भी इस संस्करण में चुनिंदा तथ्य शामिल किये गए हैं। यूरोप पर कई आक्रमण हुए, लेकिन इतिहास का यह संस्करण केवल तुर्क साम्राज्य- जिसके शासक मुस्लमान थे, के हमले पर जोर देता है।
टेरेंट का ‘घोषणापत्र’, नफरत और नीचता से लबरेज है लेकिन उससे राजनीति और इतिहास को सम्प्रदायवादी चश्मे से देखने वाले कई लोग सहमत होंगे। यह भी दिलचस्प है संप्रदायवादियों के एजेंडे में अतीत का बदला लेने की चाहत शामिल है। “इतिहास में यूरोप की सरजमीं पर हमलों में मारे गए सैकड़ों हजार लोगों की मौत का बदला लेना,” क्राइस्टचर्च के हत्यारे के एजेंडा का भाग था। टेरेंट जैसे लोगों को वहशी बनाने में पश्चिमी मीडिया के जहरीले प्रचार की कम भूमिका नहीं है। वहां का मीडिया, मुसलमानों की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता आ रहा है। कई समाचारपत्र और मीडिया समूह जैसे इंग्लैंड का डेली मेल और अमेरिका का फॉक्स न्यूज़, मुसलमानों के दानवीकरण में सबसे आगे हैं। इसके साथ ही, कई वेबसाइटें है जो प्रवासियों और विदेशियों से घृणा करना सिखा रही हैं। इस सब के कारण मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं। मुसलमानों को बेईमान, गिरे हुए लोग और दूसरे दर्जे का नागरिक बताया जा रहा है। मुसलमानों के बारे में इसी तरह के पूर्वाग्रह और गलत धारणाएं भारत में भी प्रचलित हैं। पश्चिम में तो अब मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनना, इस बात का पर्याप्त सबूत मान लिया गया है कि वे यूरोप की संस्कृति और वहां के आचार-विचार के विरुद्ध हैं। क्या ऐसा ही कुछ हम भारत में भी नहीं सुनते?
नॉर्वे के ईसाई आतंकी एंडर्स बेहरिंग ब्रेइविक ने सन 2011 में, अपनी मशीनगन से 69 युवकों को मौत की नींद सुला दिया था। उसने भी एक घोषणापत्र जारी किया था। उसने इस्लाम को नियंत्रित करने के लिए इजराइल के यहूदी समूहों, चीन के बौद्धों और भारत के हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों का सहयोग लेने की बात कही थी। उसने लिखा था, “यह आवश्यक है कि यूरोपीय और भारतीय प्रतिरोध आंदोलन एक-दूसरे से सीखें और आपस में अधिक से अधिक सहयोग करें। हम लोगों के लक्ष्य लगभग एक से हैं।”
यह ध्यान देने की बात है कि ब्रेइविक के घोषणापत्र और हिन्दू राष्ट्रवाद-या हिंदुत्व की विचारधारा में इस्लाम, मुसलमानों और उनके साथ सहअस्तित्व के मुद्दों पर कई समानताएं हैं । यूरोप की मुख्यधारा की दक्षिणपंथी पार्टियों की तरह, भारत में बीजेपी, नाम के लिए हिंसा की निंदा तो करती है लेकिन मुसलमानों के प्रति घृणा पर आधारित उस सोच की निंदा नहीं करती, जो इस तरह की हिंसा का कारण बनती है।
एक तरह से यह कुत्सित राजनीति, सैम्युअल हंटिंगटन द्वारा प्रतिपादित “क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशनस (सभ्यताओं का टकराव)” के सिद्धांत का परिणाम है। सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध समाप्त हो जाने के बाद, फुकुयामा ने कहा था कि सोवियत संघ के अंत के बाद, उदारवादी पश्चिमी लोकतंत्र, अंतिम राजनैतिक व्यवस्था होगी। इसी सिलसिले में, हंटिंगटन ने कहा कि “अब (देशों के बजाय) सभ्यताओं और संस्कृतियों में टकराव होंगे। राष्ट्र राज्य, दुनिया के रंगमंच पर महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहेंगे परन्तु टकराव, राष्ट्रों और विभिन्न सभ्यताओं के बीच होगा। सभ्यताओं का टकराव, वैश्निक राजनीति पर छाया रहेगा। सभ्यताओं के बीच की विभाजक रेखा, युद्ध रेखा बन जाएगी।” इस सिद्धांत के अनुसार, पश्चिमी सभ्यता को पिछड़ी हुई इस्लामिक सभ्यता से चुनौती मिल रही है। यही सिद्धांत, अमेरिका के ईराक और अफ़ग़ानिस्तान सहित कई मुस्लिम देशों पर हमला करने की नीति का आधार बना।
इस सिद्धांत के विरोध में, संयुक्त राष्ट्र संघ ने कोफी अन्नान के महासचिव काल में, “सभ्यताओं का गठबंधन” बनाने की पहल करते हुए एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया था, जिसने अपनी रपट में जोर देकर कहा कि दुनिया की प्रगति के पीछे, विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का गठबंधन है।
आज के दौर में हम देख रहे हैं की अमेरिका की तेल के कुओं पर कब्ज़ा करने की राजनीति के चलते ही अलकायदा जैसे संगठन अस्तित्व में आये और 9/11 का हमला हुआ। अमेरिकी मीडिया ने ही “इस्लामिक आतंकवाद” शब्द गढ़ा। इसी के चलते, श्वेत राष्ट्रवाद उभरा, इस्लाम और मुसलमानों के प्रति घृणा और अविश्वास का वातावरण बना। इस प्रवृत्ति का मुकाबला, विचारधारा के स्तर पर किया जाना होगा। हमें यह समझना होगा कि सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों की मूल प्रवृत्ति सद्भाव है, घृणा नहीं। गठबंधन है, टकराव नहीं।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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