चैत का महीना जाड़े और गर्मी की सीमाओं के मिलन का समय है। हमारा समाज संगीत प्रेमी समाज है । फागुनी पूर्णिमा को हु़दंगी होली का अंत होता है और चैती के स्वर चौपालों गलियों में उभर आते हैं । खेतिहर गांवों में आज भी सब समुदायों के द्वारा गाई जानेवाली चैतियों में फाग और चैती स्त्री और पुरुष की तरह एक दूसरे से जुेड़े हुए हैं । लोकश्रुति के अनुसार इसी महीने नवमी को राम का जन्म हुआ, इसलिए लोकगीतों में चैती गाने की टेक हमेशा होती है, हो रामा ! हो मोरे रामा हो ! यह वह महीना है जब फसल कटाई के लिये काम के लिये दूर दराज़ जा बसे प्रवासी मजूर भी घर आते है, इसलिये यह विरहिणी और प्रिय के मिलन का भी माह है और धानी रंग, चुनरी सतरंगी चूड़ियां मोला कर पहनने का समय भी। इसी वजह से चैती गायन में स्त्रियों की आवाज़ ही अधिक मुखर होती है ।
‘चैत मासे चुनरी रंगा दे हो सैंया, लाली रे लाली,
चुनरी रंगा दे अंगिया सिला दे
बिच बिच घुंघरू लगा दे हो रामा
लाली रे लाली ।’
Published: 02 Apr 2020, 1:38 PM IST
किसानी घरों में नई फसल घर आने से भरेपूरे बखारों की प्रसन्नता से इस महीने अलमस्ती का भाव सब पर छा जाता है। फसल कटाई के बाद आराम की इच्छा भी हावी हो रहती है। और इसीलिये चैत में गाये जानेवाले सभी लोक गीतों में एक सहज उल्लास और चुहल का भाव रहता है, ‘चैत मास आयो उतपतिया हो रामा !’
‘चढ़त चैत चित मोरा चंचल हो रामा,..’
या
‘चढ़त चैत चित लागे न मोरा,
बाबा के भवनवां..’
Published: 02 Apr 2020, 1:38 PM IST
पटना की एक सैयद अली शाद साहेब ने 1846 में फिकर ए वलीग नाम से जनगीतों का पहला संकलन छपवाया, जिसमें तब की एक चैती भी शुमार है :
काहे अइसन हरजाई हो रामा । तोरे जुलुमी नैना तरसाई हो रामा ।
अफसोस, इस साल महामारी ने नवरात्रि के समारोहों, मेले ठेलों से सबको दूर कर रखा है इसलिये इस समय यू ट्यूब से ही सही, चैत माह की खुशियों को याद कर चैतियां सुनते हुए इस आशु जनकविता और उसकी मौखिक परंपरा से एक हद तक झरते नीम और उड़ते पत्तों के बीच भटकते चित्त की उदासी एक हद तक मिटाई जा सकती है।
Published: 02 Apr 2020, 1:38 PM IST
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Published: 02 Apr 2020, 1:38 PM IST