विचार

सदियों से भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं राम और रामलीलाएं, दोनों पर हर किसी का है बराबर का अधिकार

भारत के साथ-साथ करीब 65 देशों में रामलीलाओं का आयोजन होता है। भारत में जितनी तरह की रामलीलाएं होती हैं, उन्हें गिनना भी मुश्किल है। कुछ रामलीलाओं में फिल्मी गीतों और संवादों का इस्तेमाल किया जाता है, तो उर्दू समेत कई भाषाओं में भी रामलीला का मंचन होता है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया सदियों से भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं राम और रामलीलाएं

‘सियाराम मय सब जग जानी, करहूं प्रणाम जोरी जग पानी’’। हरियाणा के एक छोटे से कस्बे में कुछ इस तरह शुरू होती थी रामलीला। सारे शहर के लोग अपने बाल-बच्चों और रिश्तेदारों के साथ उस मैदान में इकठ्ठा होते। संपन्न और सम्मानित जन के लिए कुर्सियां जुटा ली जातीं और हजारों अन्य लोग इत्मीनान से बैठने के लिए अपनी-अपनी दरी या बोरे साथ लाते। रामायण के मंचन के बीच तुलसीकृत रामचरित मानस का पाठ करने के लिए बनारस से एक कथा वाचक को बुलाया जाता था। और इस तरह शिव-पार्वती विवाह के साथ रामायण का मंचन शुरू होता जो पूरे नौ दिन चलता और दसवें दिन पूरी श्रद्धा के साथ रावण दहन किया जाता। उस दिन जो शख्स राम का किरदार निभा रहा होता, लोग उसके चरण स्पर्श करने और आशीर्वाद लेने के लिए लंबी कतार लगा घंटों इंतजार किया करते। उस दिन वह शख्स साक्षात राम होता और आशीर्वाद पाने वाले ऊंच-नीच जात-पात और धर्म छोड़ सिर्फ श्रद्धालु होते।

मेरी स्मृतियों की तरह तमाम और लोगों के पास रामलीला से जुड़ी अनेक दिलचस्प स्मृतियां हैं, जिन्हें वे हर साल नवरात्री के दौरान बड़े चाव से एक-दूसरे से साझा करते हैं। सदियों से रामलीला हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है। इसलिए भी कि रामलीलाएं सभी वर्गों, जातियों और धर्मों के लोगों को एक मंच पर साथ लाती रही हैं। ‘त्यौहार का मौसम’ नवरात्री हमारे यहां एक खास तरह का उत्साह और खुशी संचारित करता है। बच्चे मेले में जाकर खिलौने की तलवारें, तीर-धनुष खरीदने के लिए उत्सुक रहते हैं। मेले में अन्य रोचक चीजें तो होती ही हैं।

रामलीलाओं का मंचन सिर्फ औपचारिक तौर पर व्यावसायिक अभिनेताओं के साथ ही नहीं होता, बल्कि आस-पड़ोस के बच्चे इकठ्ठा होकर रामलीला करते हैं तो मोहल्लों के कुछ उत्साही लोग भी मिल कर इसका आयोजन करते हैं।

भारत के साथ-साथ करीब 65 देशों में रामलीलाओं का आयोजन होता है। भारत में जितनी तरह की रामलीलाएं होती हैं, उन्हें तो गिनना भी मुश्किल है। कुछ रामलीलाओं में फिल्मी गीतों और संवादों का इस्तेमाल किया जाता है, तो श्रीराम भारतीय कला केंद्र द्वारा मंचित रामलीला में शास्त्रीय संगीत और नृत्य की विधाओं का प्रयोग किया जाता है।

रामलीला का मंचन उर्दू में भी किया जाता है। फरीदाबाद के सेक्टर-15 में कुछ ऐसी ही रामलीला होती थी। इस रामलीला के आयोजक दरअसल पाकिस्तान के ‘बन्नू’ इलाके से आए और विभाजन के बाद यहीं बसने वाले लोग थे। इस रामलीला को 1976 में नन्द लाल बत्रा ने लिखा था, जो खुद बन्नू से ही आए थे। फैजाबाद के रहने वाले बृजनारायण चकबस्त उन्नीसवीं सदी के मशहूर शायर थे। उन्होंने भी उर्दू में रामायण पर लम्बी नज्म लिखी और उनकी शायरी का असर उत्तर भारत में होने वाली तमाम छोटी बड़ी रामलीलाओं पर देखा जा सकता है। लोक नाट्य परंपरा का पुट लिए इन रामलीलाओं के लम्बे, काव्यात्मक और मेलोड्रामा संजोए संवादों में पारसी थियेटर की झलक भी मिलती है।

वहीं दक्षिण भारत में रामायण का मंचन एक नए रूप और शैली में नजर आता है। भाषा बेशक अलग है, लेकिन कुछ नये क्षेपकों के साथ कहानी वही होती है, जिसे ज्यादातर नृत्य-नाटिका का तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।

मैंने ऐसी रामलीलाएं भी देखी हैं जिनमें अभिनेता संवादों को हरियाणवी लहजे में बोलते हैं या खालिस पंजाबी लहजे में। मैंने गढ़वाली में रामलीला के मंचन के बारे में सुना है। उत्तराखंड में कुमाउनी रामलीला तो नवरात्री का एक खास आयोजन होता है। बहुत सी ऐसी रामलीलाएं हैं जिनमें सिर्फ पुरुष ही भाग लेते हैं तो अब ऐसी रामलीलाएं भी होती हैं, जिनमे सिर्फ महिलाएं ही विभिन्न किरदारों को निभाती हैं। हालांकि ऐसी रामलीलाएं बहुत कम हैं। और मैं खुद ऐसी रामलीलाओं के बारे में जानती हूं, जिनमे ऊंची और निचली जाति के लोग मिलकर भाग लेते हैं। कहानी एक ही है, लेकिन इसके वाचन और अभिमंचन के तरीके अलग-अलग हैं।

और इस कहानी के साथ खास आत्मीयता का एहसास भी वही है। मेरे जैसे तमाम लोग आपको रामलीलाओं से जुड़े बेहद दिलचस्प किस्से सुना सकते हैं, क्योंकि उनके आस-पड़ोस के लोग और दोस्त ही रामलीला के विभिन्न किरदारों का अभिनय कर रहे थे और उन्हें राम-सीता या हनुमान सेना के बंदरों के रूप में देख कर उन्हें कितना मजा आया था।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने भी अपनी बेटी इंदिरा को जेल से लिखे खत में जिक्र किया था कि वो इस बात पर कितने दुखी हैं कि इस बार वे अपनी बेटी को दशहरा नहीं दिखा पाएंगे।

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आज के शहरी बच्चों के पास शायद दशहरे की ऐसी यादें ना हों लेकिन उनमें भी दशहरे और नवरात्री के दौरान लगने वाले मेले में जाने का वैसा ही उत्साह होता है। साथ ही रामलीला के संवादों को अभिनीत करने का भी। मैं बहुत से बच्चों को अपने घर के नजदीक रामलीला की नकल करते देखती हूं और उनके उत्साह में ‘त्यौहार’ की खुशी सार्थक सी लगती है। और इन सबको देखकर यूं लगता है कि रामलीला हमारे दिमाग, हमारी स्मृतियों में उसी तरह जीवित रहती है और रहेगी जैसे वो साल दर साल बाहर खेली जाती है। जैसे राम बाहर भी हैं और भीतर भी, हमारी मिटटी से जुड़े। राम और रामलीला हम सभी की है।

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