सत्ता हस्तांतरण बापू का लक्ष्य नहीं था। एक से दूसरे साहबों में सत्ता की अदला-बदली स्वराज नहीं ला सकती थी। वे एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए समर्पित थे जहां सबसे कमजोर को भी साझेदारी का हक हो और निर्णय प्रक्रिया में उसकी आवाज। स्वतंत्र भारत में गांव-गांव की भागीदारी को बढ़ाने के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री ने 2 अक्तूबर, 1959 को नागौर जिले में पहली चुनी पंचायत की नींव रखी। उसी के साथ सहकारिता के माध्यम से आर्थिक, सामाजिक सत्ता का भी विकेन्द्रीकरण किया। मगर पंचायतों के चुनाव नियमित रूप से नहीं होते थे। सत्ता के गहरे असंतुलन को राजीव जी ने शिद्दत से महसूस किया।
सौ करोड़ का प्रतिनिधित्व मात्र चंद सौ सांसद और कुछ हजार विधायक किया करते थे। सत्ता संरचना में पनपे बिचौलियेपन ने जन भागीदारी को बांध रखा था। इन्हें ही बंधन से मुक्त करने के लिए वे चौंसठवां संविधान संशोधन लाए। सत्ता का संचालन ऊपर बैठे प्रभुत्व संपन्न वर्ग के द्वारा न होकर हजारों-लाखों ग्रामीण जनों, नगरीय मोहल्लों, गलियों से हो, उनके नैसर्गिक विवेक के स्वर सत्ता के गलियारों में सुनाई दें- यह मकसद था।
विश्व भर में केन्द्रीकृत ढांचे ध्वस्त हो रहे थे। स्वयं हमारे देश में बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने संविधान सभा के अपने अंतिम वक्तव्य में यह चेतावनी दी थी कि सामाजिक-आर्थिक विषमता को खत्म किए बगैर राजनीतिक तौर पर एक व्यक्ति-एक मत की समता अधिक दिनों तक टिक नहीं पाएगी। राजनीतिक हिस्सेदारी के अवसरों में गैर बराबरी निराशा, असहायता, रोष और अलगाव को पनपाएगी। उसी दौरान अनेक समूह राजनीतिक-सामाजिक आकांक्षा की ओर ताक रहे थे। बेचैनी बढ़ रही थी। विभिन्न समुदायों को राजनीतिक मंच से जोड़ना बेहद जरूरी था।
उनके प्रस्ताव को तब पूर्ण समर्थन नहीं मिला। लेकिन उन्हीं की प्रेरणा से बाद में 73वां, 74वां संविधान संशोधन पारित हुआ। यह राजीव जी की ही सोच थी जिसकी वजह से पितृसत्तात्मक समाज संरचना में पहले एक तिहाई और फिर 50 फीसदी महिला आरक्षण पंचायतों, नगरीय निकायो में मिला। दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग को निश्चित प्रतिनिधित्व मिला। यह राजनीतिक-सामाजिक विषमता को मिटाने के लिए उठाया गया बड़ा कदम था। उसी वक्त उत्तर प्रदेश में दलित समुदायों में राजनीतिक नवचेतना का संचार हो रहा था। उन्हें लोकतंत्र में भागीदारी का अवसर मिला।
चंबल की घाटियों में बंदूक के बल पर सामाजिक दमन का हिंसात्मक जवाब देने वाले समूहों के स्वर तो सत्तर के दशक में अहिंसात्मक आत्मसमर्पण से शांत किए गए थे। मगर पंचायतों ने सकारात्मक सहभाग का अवसर देकर उन स्वरों को सदैव के लिए हिंसा से दूर कर दिया। बाद के दौर में अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों के विस्ततार ‘पेसा’ कानून ने जन समाज को सामुदायिक जल, जंगल, जमीन के हक दिए।
राजीव जी ने अपने समूचे कार्यकाल में लोकतंत्र को समावेशी बनाया। इसके लिए पहल की और अलगाववादी ताकतों से संधि करके उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया। इसके लिए वे दलगत राजनीति से ऊपर उठे। मिजो संधि के बाद अपने ही दल की सरकार से इस्तीफा दिलवाकर पुनः चुनाव कराए ताकि नए समूह लोकतंत्र से जुड़ सकें और मिजोरम की जनता मन से लोकतंत्र को अपना सके।
आज जब हम चुनी सरकारों को गिराने के लिए केन्द्र में सत्तारूढ़ हुक्मरानों को खरीद- फरोख्त करते देखते हैं, तो सहसा उनकी याद आती है। वे अच्छी तरह जानते थे कि नौजवान पीढ़ी व्यवस्था विरोधी होती है। उन्हें अनेक सहयोगियों ने सलाह भी दी। मगर वे इसीलिए अठारह वर्षीय नौजवान को मताधिकार देना चाहते थे ताकि विशिष्टता के सुविधा संपन्न वातावरण में बैठे कुलीन वर्ग का इंद्रासन डोले, यथास्थितिवादिता को चुनौती मिले।
वे विरोध को विद्रोह नहीं मानते थे, न ही सत्तारूढ़ दल के खिलाफ उठते स्वरों को राष्ट्रद्रोह। उनका मानना था कि कोई फैसला जिस वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित करे, वह उसी के द्वारा लिया जाना चाहिए। आज राज्यों का संघ होने की अवधारणा को ही केन्द्र ठुकरा रहा है। राज्यों के अधिकार हस्तगत होते जा रहे हैं। राज्यों को उनकी विधायिका से पूछे बगैर बरखास्त तक कर दिया जाता है। कश्मीर उसी का उदाहरण है। जहां स्थानीय निकायों को तीसरी सरकार बनाकर ग्राम सभा की सर्वाधिकार संपन्नता को अक्षुण्ण करना था, आज वहां ग्राम सभाएं औपचारिक रह गई हैं। आदिवासी क्षेत्रों में तो सारे हक ग्राम सभाओं से छीने जा रहे हैं।
यह सही है कि स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधियों को राजनीतिक अभ्यास की आवश्यकता है। मगर प्रशिक्षण की प्रक्रिया ठप्प हो गई है। उसके बावजूद अंसख्य जनप्रतिनिधि, सरपंच, सदस्यों ने नवाचार से कार्यक्षेत्र में बदलाव किया है। लोकतंत्र को गहरा करने के लिए पंचायत प्रतिनिधियों की संगत बनाना जरूरी है। उन पर भ्रष्टाचार का आक्षेप कोई कैसे लगा सकता है जबकि बाढ़ग्रस्त राज्य में विधायकों को पंच सितारा होटल में ठहराकर अपने पक्ष में खरीदा जाता है। लाल किले की प्राचीर से भ्रष्टाचार को समाप्त करने की घोषणा किसे प्रिय नहीं लगी होगी? सनद रहे कि लोकतंत्र का पूंजी से क्षय करना भ्रष्टाचार ही है।
गौरतलब है कि रिश्वतखोरी के खिलाफ भी वैधानिक प्रावधान राजीव जी के कार्यकाल में ही हुआ। लोकतांत्रिक समावेश, जवाबदेही और पारदर्शिता के पुरोधा के रूप में वे हमेशा याद किए जाएंगे।
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