विचार

राजधानी एक्सप्रेस की हकीकत: रेलवे का खाना नहीं खाया तो सहना पड़ेगा दोयम दर्जे का व्यवहार 

भारतीय रेल की अभिजात्य ट्रेन मानी जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस में उन यात्रियों के साथ दोयम  दर्जे का व्यवहार किया जाता है जो निजी कंपनियों का खाना खरीदने से इंकार करते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया राजधानी एक्सप्रेस में नॉन-फुड यात्रियों को सफर के दौरान एक कप चाय भी नहीं मिल सकती

देश में रेल यात्रा के दौरान यात्रियों को खाने और नाश्ते की सुविधा मुहैया कराने के लिए भारतीय रेलों में पैंट्री कार (रसोई घर ) की व्यवस्था की गई है। रेल में खाने-पीने की चीजें मुहैया कराने की जिम्मेदारी रेल मंत्रालय से जुड़ी कंपनी आईआरसीटीसी की है, लेकिन वह खुद खाने-पीने की चीजें मुहैया नहीं करवाती है। आईआरसीटीसी ने इसके लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों को ठेका दिया हुआ है। राजधानी एक्सप्रेस के यात्रियों के लिए पहले यह अनिवार्य था कि उन्हें अपनी यात्रा के दौरान खाने, चाय-कॉफी और नाश्ते के लिए भुगतान करना ही होता था। चाहे वह खाने-पीने की सेवा का इस्तेमाल करें या नहीं।

नीति में बदलाव आया

रेलवे ने जुलाई 2017 में खान-पान से जुड़ी अपनी पुरानी नीति में बदलाव किया। राजधानी एक्सप्रेस में यात्रियों को खाने-पीने की सेवा लेने के लिए बाध्य करने वाली नीति को बदलकर यह नीति बनाई गई कि यात्री अपनी इच्छा से खाने की सुविधा को छोड़ सकते हैं। खाना नहीं लेने वाले यात्रियों की टिकट सस्ती हो जाएगी। नीति में यब बदलाव इसीलिए करना पड़ा क्योंकि भारत नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) ने अंकेक्षण के दौरान यह पाया कि रेल यात्रा के दौरान यात्रियों को भोजन और खाने पीने की जो वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती हैं, वह किसी इंसान के खाने लायक भी नहीं होती हैं।

इस तरह राजधानी एक्सप्रेस जैसे अभिजात्य रेल में यात्रियों के बीच एक नई जाति उभर कर सामने आई है। उसे अंग्रेजी में नॉन-फुड यात्री कहते हैं। राजधानी एक्सप्रेस में नॉन-फुड यात्री बनकर यदि किसी ने यात्रा नहीं की है और वह अछूत होने के भाव को महसूस करना चाहता है तो एक बार नन फुड यात्री बनकर दिल्ली से हावड़ा या किसी दूसरे मार्ग पर यात्रा कर सकता है। ऐसे यात्रियों को यात्रा के दौरान पैंट्री कार से एक कप चाय भी नहीं मिल सकती, चाहे कंपकंपाने वाली ठंड हो या ट्रेन दस से बारह घंटे देरी से चल रही हो। अगर पुरुष है और साथ में बीमार पत्नी है तो भी नहीं और यदि स्त्री है और अपने बीमार बुढ़े पति के लिए भी चाय का एक पॉट मंगाना चाहती है तो भी यह संभव नहीं है। पैंट्री कार का मैनेजर ये जवाब देगा कि पैंट्री कार को नॉन-फुड वालों को सप्लाई करने का आदेश नहीं है।

नॉन-फुड यात्री अछूत घोषित

जुलाई 2017 के बाद मैंने कई बार नॉन-फुड यात्री के रुप में राजधानी से यात्रा की है। पहली बार तो खाना-नाश्ता मुहैया कराने वाली कंपनी के बैरे के व्यवहार ने हैरान किया था। उसने मेरे साथ यात्रा कर रहे लोगों को खाना और नाश्ता परोसते वक्त कई बार हिकारत की नजर से देखा । ताजा अनुभव तो हिला देने वाला है। हावड़ा से आते वक्त राजधानी एक्सप्रेस की रफ्तार पहले एक घंटे देरी से चलने वाली थी, जो बढ़ते-बढ़ते लगभग बारह घंटे देरी से चलने वाली रफ्तार तक पहुंच गई। घर से खाने-पीने का जो सामान ढो रहे थे, वो भी खत्म हो गया। इस बीच दोपहर में साथ के यात्रियों के लिए चावल और दाल को मिलाकर उबाला गया एक पदार्थ परोसा गया जिसे कि फुड कंपनी खिचड़ी के नाम पर परोस रही थी। वह भी नसीब नहीं हुआ। मुझे बचपन से खिचड़ी की गंध का आभास है। रेल की खिचड़ी रेलवे की ‘खिचड़ी नीति’ की तरह है। यह महसूस हुआ कि रेल के देरी से चलने के घंटे जैसे-जैसे बढ़ते हैं, निजी कंपनियां वैसे-वैसे यात्रियों के मनूष्य होने के दर्जे को नीचे करती जाती हैं।

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फोटोः सोशल मीडिया

ऐसी मानसिकता में उन यात्रियों की हालत के बारे में कल्पना की जा सकती है जिन्होंने नॉन-फुड जाति का होने की हिमाकत की है। मैंने अपनी यात्रा के दौरान शाम के वक्त चाय की तलब महसूस की, लेकिन मैनेजर ने कहा कि वह हमें पैंट्री कार की कोई सुविधा लेने की इजाजत नहीं दे सकता है। शिकायत भी नहीं कर सकते हैं। उस वक्त दिक्कत तब और बढ़ गई जब भारतीय रेल की तरफ से नियुक्त रेल सुप्रीटेंडेंट ने भी फुड कंपनी के मैनेजर की भाषा का इस्तेमाल किया और कहा कि वह नॉन-फुड यात्री के रुप में पैट्रीं कार की सुविधा नहीं मिलने की शिकायत के लिए पुस्तिका भी नहीं दे सकता है। फुड कंपनी और भारत सरकार के कर्मचारी एक ही भाषा में बोल रहे थे कि मैं ऑन लाइन शिकायत कर सकता हूं। यानी जिसके पास ऑन लाइन की सुविधा न हो वह शिकायत के भी काबिल नहीं रह गया है।

ट्रेन के बाहर से खाना मंगवाने के लिए मोबाईल चाहिए

पैंट्री कार के मैनेजर और रेल सुप्रीटेंडेंट ने बताया कि यह रेलवे की नीति है कि जिसके तहत वह नॉन-फुड यात्रियों को पैंट्री कार की कोई सुविधा नहीं दे सकता है। दूसरी तरफ हालत यह होती है कि राजधानी एक्सप्रेस का ठहराव एक लंबी दूरी के बाद बेहद थोड़ी देर के लिए किसी स्टेशन पर होता है। रेल के सुप्रीटेंडेट ने बताया कि मैं मोबाईल से एक खास नंबर पर फोन करके अगली स्टेशन पर एक खास कंपनी से खाना खरीद सकता हूं। यहां खाना मंगवाने के लिए भी मेरे पास मोबाईल और उसमें बैलेंस होने की शर्त जुड़ी हुई है। उन्होंने ये भी कहा कि उन्हें उस खाने की कीमत का पता नहीं है। खाने की डिलिवरी करते वक्त कंपनी जो मांगेगी वह देना होगा। यात्री होने के लिए भी तकनीक से लैस होना एक तरह से अनिवार्य कर दिया गया है। मुझे नया ज्ञान यह प्राप्त हुआ कि नये राजनीतिक परिवेश में भारतीय रेल भी भारतीय समाज में रसोई घरों की तरह लोगों को छूत और अछूत में बांटकर रखती है।आखिर सबके लिए नीतियां बनाते वक्त भी सामाजिक घुन कैसे सक्रिय रहता है, अगली रेल यात्रा में शायद यह समझने का प्रयास करना होगा।

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