राहुल गांधी ने वह कर दिखाया जिसकी अपेक्षा किसी को भी नहीं थी। जी हां, वह बात जिसकी आशा किसी को नहीं थी, राहुल की भारत जोड़ो यात्रा में वह हो गई। कन्याकुमारी से कश्मीर तक के इस मोहब्बत के सफर में हजारों-लाखों लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। वह केरल हो या तमिलनाडु, महाराष्ट्र या उत्तर प्रदेश और अंततः जम्मू कश्मीर, राहुल जहां-जहां भी पहुंचे, वहां-वहां हजारों लोग उनकी यात्रा के साथ जुड़ते चले गए।
लेकिन यह हुआ कैसे? भारतीयों के मन में राहुल गांधी और उनके मिशन के लिए इतना स्नेह कैसे उमड़ पड़ा? इसलिए क्योंकि भारत वर्ष बाबरी मस्जिद-राम मंदिर प्रकरण के समय से हिन्दुत्वमय हो चुका था। सन 2014 में नरेन्द्र मोदी के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद तो वैचारिक रूप से देश में संघ के हिन्दुत्व विचारधारा का डंका बज रहा था। देश की हर पार्टी और हर नेता इसके विरोध में मुंह खोलने से कतराता था। हद तो यह है कि कभी-कभी तो स्वयं कांग्रेस भी वैचारिक रूप से भ्रमित दिखाई पड़ती थी। पार्टी में एक धड़ा ‘सॉफ्ट हिन्दू लाइन’ के पक्ष में था। लेकिन राहुल गांधी ऐसे संकट के समय खड़े हुए और उन्होंने अपनी यात्रा के माध्यम से देश को आईना दिखा दिया।
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अपनी लगभग पांच माह और चार हजार किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा में राहुल गांधी ने गांव-गांव और नगर-नगर रुक कर लोगों को झिंझोड़ दिया। उन्होंने देश को केवल यह बताया कि देखो, हिन्दुत्व के नाम पर जो हो रहा है, वह सिर्फ ‘नफरत’ है। और यह नफरत एवं बंटवारे की राजनीति भारत का चलन नहीं है। भारत तो मोहब्बत और आपसी मेलजोल का देश है। भारत तो हर धर्म, हर विचार का देश है। यहां मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा गुरुद्वारा हैं। सब अपनी इच्छा अनुसार अपने भगवान, अल्लाह, गॉड और वाहे गुरु तक पहुंचते हैं। लेकिन सब अंततः एक ही सत्य को खोजते हैं।
इस देश में सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं। यहां थोड़ी-थोड़ी दूर पर खान-पान और वेशभूषा बदल जाती है। यहां कोई हिन्दी भाषी है, तो कोई बांग्ला भाषी, कहीं तमिल बोली जाती है, तो कहीं मलयाली का चलन है। इस देश में कदम-कदम पर अनेकता है। लेकिन भारत की यही शान है कि वह अनेकता में ही एकता बनाए हुए है। उसका कारण यह है कि यहां सब प्रेम से रहते चले आए हैं। यह आपसी मेलजोल का देश है। और यह आज से नहीं सदियों से होता चला आया है। हमारे संतों, साधुओं, सूफियों ने इस देश को इसी भाईचारे पर आधारित भारतीय सभ्यता की नींव रखी है। यही आपसी प्रेम या मोहब्बत भारत की पहचान है। संघ और बीजेपी की नफरत एवं बंटवारे की विचारधारा भारतीय विचारधारा नहीं हो सकती है। उठो और मेरे साथ इस मोहब्बत के सफर में तुम भी यात्री बन जाओ।
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मोहब्बत और आपसी भाईचारे के राहुल गांधी के इस पैगाम ने मानो भारतीयों को झिंझोड़ दिया। वह भारतवासी जो नफरत की राजनीति में बह चले थे, मानो राहुल ने उनको आईना दिखा दिया और बस, नफरत में डूबता हिन्दुस्तान मानो एकदम से चौंक उठा और देखते-देखते केवल हजारों ही नहीं बल्कि लाखों लोग राहुल गांधी के इस पैदल मोहब्बत के सफर के हमराही बनते चले गए। यात्रा जैसे-जैसे आगे बढ़ी, वैसे-वैसे लाखों भारतीयों का खुमार टूटता चला गया। मानो राहुल ने सदियों पुरानी भारत वर्ष की अंतरात्मा को झिंझोड़ दिया है। और लोग हर जगह इस मोहब्बत के सफर के हमराही बनते चले गए।
इसका मुख्य कारण यह था कि राहुल गांधी को इस मोहब्बत के सफर से कोई मोह या कोई लालसा नहीं थी। राहुल गांधी इस सफर में वोट नहीं मांग रहे थे। वह तो कहते थे कि मैं वोट मांगने नहीं आया हूं। मैं तो केवल चौंकाने आया हूं कि भारत का रास्ता नफरत का रास्ता नहीं हो सकता है। भारत तो आपसी भाईचारे और मोहब्बत से ही समृद्ध होता है। राहुल का यह पैगामे मोहब्बत राजनीति नहीं बल्कि सामाजिक पैगाम था।
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बस, राहुल की इसी अराजनीतिक सामाजिक राजनीति ने लोगों का मन जीत लिया और लोगों को लगा कि यह व्यक्ति तो संतों और सूफियों के समान सत्ता के मोह से परे देश और लोगों के लिए गर्मी, बरसात और ठंड की परवाह किए बगैर हजारों मील पैदल चल रहा है। जनता को नफरत की राजनीति के खतरों से चौंका रहा है। मैं यह तो नहीं मानता कि एक भारत जोड़ो यात्रा से राहुल महात्मा बन गए लेकिन यह सत्य है कि भारत जोड़ो यात्रा में महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा की झलक जरूर थी। और राहुल ने इस मोहब्बत के पैगाम से स्पष्ट कर दिया कि गांधी जी के समान राजनीति उनके लिए केवल सत्ता का खेल नहीं है। राजनीति उनके लिए सत्य, एकता और अहिंसा का एक नैतिक मार्ग है।
यह बात राहुल ने अपने भाषणों से नहीं बल्कि अपने कर्म से जनता को दिखा दी। राहुल गांधी के इसी संत भाव ने देश का मन जीत लिया और जगह-जगह लोग राहुल के साथ जुड़ते चले गए। अब कोई राहुल का मजाक नहीं बना सकता है। राहुल गांधी अपने दम-खम पर देश के एक कद्दावर नेता हैं। राहुल की इस पूरी यात्रा के दौरान संघ अथवा बीजेपी की यह हिम्मत नहीं पड़ी कि वे उनका मखौल बनाएं अथवा यात्रा के विरुद्ध उंगली उठाएं।
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अब सब यह सवाल कर रहे हैं कि इस यात्रा का राजनीतिक फल क्या है? कांग्रेस को इससे वोट कितने मिलेंगे? पहली बात तो यह कि यह लालकृष्ण आडवाणी की वोट यात्रा के समान राहुल की यात्रा वोट यात्रा नहीं थी। यह तो आपसी भाईचारे और मोहब्बत का एक पैगाम थी। फिर भी वैचारिक तौर पर इस देश में सन 2014 से केवल जो हिन्दुत्व का डंका बज रहा था, राहुल ने उस नैरेटिव पर लगाम लगा दी। अब देश के सामने दो विचारधाराएं हैं। एक संघ और बीजेपी का नफरत का नैरेटिव और दूसरा कांग्रेस का मोहब्बत और सद्भावना का नैरेटिव।
अर्थात राहुल ने देश को एक वैचारिक विकल्प देकर देश को एक दूसरा नैरेटिव दे दिया। अब देश में 2024 के चुनाव इसी नफरत और मोहब्बत के नैरेटिव पर होंगे। यह इस यात्रा का एक बड़ा फल है। इसी के साथ-साथ संगठनात्मक स्तर पर इस यात्रा ने कांग्रेस को झिंझोड़ दिया। राहुल ने हजारों मील पैदल चलकर केवल कांग्रेजसनों को ही नहीं बल्कि पूरे विपक्ष को बता दिया कि बीजेपी का विकल्प संघर्ष से ही निकलेगा। केवल बयानबाजी या चुनावी रैलियां बीजेपी का विकल्प नहीं हो सकती हैं।
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जी हां, बीजेपी जिस प्रकार गांव-गांव फैल चुकी है और उसके पास जिस प्रकार का धन-दौलत और सत्ता का सब तंत्र है, उससे यह स्पष्ट है कि उसे हराने के लिए घनघोर संघर्ष की जरूरत है और वह संघर्ष एसी कमरों और गाड़ियों में बैठकर संभव नहीं। उसके लिए राहुल की तरह सड़क पर उतरना पड़ेगा। राहुल ने एक नया नैरेटिव दे दिया और उस नैरेटिव के साथ राजनीतिक दलों और बीजेपी विरोधी लोगों को संघर्ष का मार्ग दिखा दिया। अब इस देश को यह तय करना है कि नफरत बनाम मोहब्बत की इस यात्रा में किसका हाथ पकड़कर आगे चलना चाहते हैं।
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