विचार

‘कोटे में कोटा’ और मायावती का विरोध, अपने वोट बैंक की चिंता अधिक, पूरे दलित समुदाय की बात दिखावा

यह अपने आप में हैरान करने वाला था जब मायावती ने न सिर्फ 1 अगस्त को एससी-एसटी के लिए ‘कोटा के भीतर कोटा’ की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया, बल्कि मांग कर डाली कि केन्द्र को शीर्ष अदालत का फैसला पलटने के लिए एक कानून बनाना चाहिए।

‘कोटे में कोटा’ और मायावती का विरोध, अपने वोट बैंक की चिंता अधिक, पूरे दलित समुदाय की बात दिखावा
‘कोटे में कोटा’ और मायावती का विरोध, अपने वोट बैंक की चिंता अधिक, पूरे दलित समुदाय की बात दिखावा फोटोः सोशल मीडिया

‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिसदारी’ (सभी जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए)- अस्सी के दशक की शुरुआत में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के संस्थापक कांशीराम ने यह नारा गढ़ा था। उनकी उत्तराधिकारी मायावती इस नारे का इस्तेमाल कर उत्तर प्रदेश में चार बार सत्ता तक पहुंचीं। वह जिला, क्षेत्र और राज्य स्तर पर धोबी, कुम्हार, प्रजापति, राजभर, खटिक, पासी आदि वंचित जातियों की बैठकें करती थीं। मकसद इन जातियों का सशक्तिकरण और उन्हें राज्य के संसाधनों में उनकी सही हिस्सेदारी के बारे में जागरूक करना था। इसमें वह शक्ति तो शामिल है ही, जो उन्हें देय थी।

उद्देश्य ऐसे जाति-समूहों को बीएसपी के लिए एक समेकित वोट बैंक में एकसाथ लाना भी था। वह बड़े पैमाने पर एससी-एसटी की अपनी वफादारी कांग्रेस से हटाकर बीएसपी की ओर मोड़ने में सफल भी रहीं। राज्य विधानमंडल, संसद और अपने मंत्रिपरिषद में भी उन्हें प्रतिनिधित्व भी दिया, भले ही नाममात्र और प्रतीकात्मक ही क्यों न रहा हो।

इसलिए, यह अपने आप में हैरान करने वाला था जब मायावती ने न सिर्फ 1 अगस्त को एससी-एसटी के लिए ‘कोटा के भीतर कोटा’ की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया, बल्कि मांग कर डाली कि केन्द्र को शीर्ष अदालत का फैसला पलटने के लिए एक कानून बनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्यों को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अधिक पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए एक सामाजिक रूप से विषम वर्ग बनाते हैं।

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मायावती ने कहा, “हमारी पार्टी इससे सहमत नहीं है क्योंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों पर होने वाले अत्याचार एक समूह के तौर पर होते हैं और यह समूह समान हैं; इनमें किसी भी प्रकार का उप-वर्गीकरण उचित नहीं।” उनका कहना था कि भविष्य में ऐसे न्यायिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए केन्द्र को संसद में कानून संशोधन कर, इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करना चाहिए। 

उन्होंने आगे कहा- “जो लोग कहते हैं कि एससी-एसटी आर्थिक रूप से मजबूत हो गए, उन्हें बताना चाहूंगी कि इनमें से केवल 10-11 फीसदी लोग ही आर्थिक रूप से आगे बढ़ पाए होंगे, बाकी 90 फीसदी की हालत आज भी बहुत खराब है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से करीब 90 फीसदी ऐसे लोग आरक्षण से वंचित रह जाएंगे जिन्हें इसकी दरकार है। अगर उन्हें इस फैसले के मुताबिक वंचित किया गया तो यह निराशाजनक होगा।”

अगर 1980 और 1990 के दशक में मायावती का व्यवहार वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित था, तो अब उनका यह पलटवार भी उसी का नतीजा है। 2012 में उत्तर प्रदेश की सत्ता हाथ से निकलने के बाद मायावती का वोट बैंक धीरे-धीरे नरेन्द्र मोदी की बीजेपी की ओर खिसक गया। मोदी अपनी ‘अति पिछड़ा’ पहचान का प्रचार करते हुए दलितों, खासकर गैर-जाटव जातियों का एक बड़ा हिस्सा बीएसपी से तोड़कर बीजेपी की ओर खींचने में सफल रहे। उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के बीच सबसे बड़ा जाति समूह जाटव- अपने ही समुदाय के किसी व्यक्ति (मायावती) के नेतृत्व वाली बीएसपी के प्रति वफादार बना रहा।

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कई अध्ययन अनुभव के आधार पर बताते हैं कि आरक्षण का तीन-चौथाई से ज्यादा हिस्सा किसी भी कोटा में केवल कुछ प्रमुख समूहों द्वारा हथिया लिया जाता है। अगर ओबीसी में यादव और कुर्मी बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं, तो उत्तर प्रदेश में दलितों में जाटव और पासी एससी के लिए लगभग 80-90 प्रतिशत आरक्षण के लाभार्थी हैं। उप-वर्गीकरण जाटव और पासी के अतिरिक्त अन्य जातियों को सशक्त बनाएगा जिन्हें उनकी आबादी से अधिक लाभ मिल रहा था, और जिससे बीएसपी का ‘हिस्सेदारी’ वाला नारा उल्टा हो जाता है।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा केन्द्रीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) मंत्री जीतन राम मांझी का वह बयान इसी भावना का प्रकटीकरण है जिसमें उन्होंने कहा, “पिछले 76 वर्षों से सिर्फ चार जातियां हर तरह का आरक्षण लाभ ले रही हैं, जबकि अन्य जातियां- भुईयां, डोम, मेहतर और मुसहर अब भी पिछड़े हैं।” इसी तरह, आरक्षण के प्राथमिक लाभार्थी पंजाब में वाल्मीकि और मजहबी सिख, आंध्र प्रदेश में माला और बिहार में पासवान, उत्तर प्रदेश में जाटव और तमिलनाडु में अरुंधतियार रहे हैं।

संविधान (अनुसूचित जातियां) आदेश, 1950 में 28 राज्यों में 1,109 जातियां सूचीबद्ध हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में 66 अनुसूचित जातियां इस सूची में शामिल हैं, जबकि बिहार में 23 जातियों को अनुसूचित जाति के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। ओबीसी में उपवर्गीकरण के लिए मोदी सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग को 2633 जातियां मिलीं, जिन्हें उनकी जनसंख्या और सरकार से प्राप्त लाभ के अनुसार चार श्रेणियों में विभाजित किया गया था।

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मायावती ही नहीं, बिहार के एक अन्य प्रमुख दलित नेता चिराग पासवान भी सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। जाटवों की तरह, जो यूपी में दलित आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा हैं, बिहार में पासवान एलजेपी (आर) के प्रमुख मतदाता और एससी के बीच प्रमुख जाति हैं। यह बताता है कि मायावती और चिराग पासवान क्यों चिंतित हैं। दिलचस्प बात यह है कि पासवान की पार्टी एलजेपी (आर) केन्द्र  में सत्तारूढ़ एनडीए की घटक है। जहां बीजेपी नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तहेदिल से स्वागत किया है, वहीं पासवान के सुर अलग हैं, हालांकि यह भी सच है कि वह इस मुद्दे पर एनडीए नहीं छोड़ने वाले और फैसले पर उनका विरोध मुख्य रूप से अपना पासी वोट बैंक बढ़ाने के वास्ते है।

उप-वर्गीकरण लागू होने की स्थिति में उत्तर प्रदेश में जाटव और बिहार में पासवानों को आरक्षण लाभ में मिलने वाली मौजूदा बढ़त किसी हद तक कम होने की आशंका है, जबकि एससी और एसटी के बीच की अन्य पिछड़ी जातियों के लिए अवसर बढ़ जाएंगे। ऐसे में, जाहिर है, मायावती और पासवान सिर्फ अपने-अपने वोट बैंक की चिंता में दुबले हो रहे हैं, न कि पूरे दलित समुदाय के लिए।

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ इस फैसले के जरिये सुनिश्चित करना चाहते थे कि आरक्षण का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। हालांकि राज्यों के राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक हित साधने के लिए उप-वर्गीकरण प्रावधान का इस्तेमाल और केन्द्र-राज्यों के बीच संभावित भ्रम के बारे में मायावती की चिंताओं से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन सिद्धांत रूप में, सुप्रीम कोर्ट का यह स्वीकार सही है कि एससी/एसटी समुदाय आवश्यक रूप से “एक समान और आंतरिक रूप से समरूप वर्ग नहीं है जिसे आगे वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।”

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मायावती की शिकायत उच्च जातियों के लिए असमानुपातिक ‘कोटा’ है क्योंकि ज्यादातर राज्यों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए कोटा का कुल प्रतिशत अब भी 50 प्रतिशत पर सीमित है। देश की आबादी का महज 21-22 प्रतिशत होने के बावजूद ऊंची जातियां शैक्षणिक संस्थानों, सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी नौकरियों में शेष 50 प्रतिशत सीटें हासिल कर रही हैं। 

बीएसपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “आज जब हर कोई ओबीसी, एससी और एसटी के उप-वर्गीकरण की बात कर रहा है, तो वे ऊंची जातियों के उप-वर्गीकरण की भी मांग क्यों नहीं करते? यूपी की आबादी में ब्राह्मणों की संख्या सिर्फ 9-10 प्रतिशत है लेकिन हर कोई जानता है कि वे 30-35 प्रतिशत से अधिक सरकारी नौकरियों पर कब्जा जमाए बैठे हैं।”

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एक अन्य दलित नेता ने एससी कोटा के उप-वर्गीकरण का विरोध करते हुए प्रचलित भेदभाव को इसका कारण बताया। उनका कहना था- “भले ही कोई दलित आईएएस बन जाए, ऊंची जातियां, मुख्य रूप से ब्राह्मण, उसे अपने बराबर नहीं देखते। वह आजीवन जाति-संबंधी आग्रहों का शिकार रहता है। इसीलिए, एससी को एक वर्ग के रूप में माना जाना चाहिए, न कि विभिन्न जातियों के तौर पर।”

मायावती का आरोप है कि केन्द्र सरकार और बीजेपी एससी-एसटी समुदाय के हितैषी होने का दावा तो करते हैं लेकिन उन्होंने इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पर्याप्त प्रभावी ढंग से बहस नहीं की। उन्होंने कांग्रेस पर भी इस मुद्दे पर दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगाया। चूंकि जाति और आरक्षण पर इस समय तेज बहस का दौर है, ऐसे में अंतिम रूप से कुछ साफ-साफ सुना जाना अभी बाकी है।

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