लोकसभा में बजट चर्चा का जवाब देते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राजस्व बढ़ोतरी के आंकड़ों को लेकर उठे सवालों पर कहा कि बजट में दिए सभी आंकड़े पूरी तरह वास्तविक और विश्वसनीय हैं और हर आंकड़ा प्रामाणिक है। उन्होंने सदन को आश्वस्त किया कि जन कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं के खर्च में कटौती नहीं की जाएगी।
लेकिन उनके जवाब से बजट और आर्थिक सर्वेक्षण में राजस्व प्राप्तियों के आंकड़ों में 1.7 लाख करोड़ रुपये के भारी अंतर का कोई आश्वस्तकारी स्पष्टीकरण नहीं मिला, न ही वित्त मंत्रालय ने इस बाबत कोई स्पष्टीकरण जारी किया है। असल में आंकड़ों को दबाना, बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना मोदी सरकार की फितरत बन चुकी है। पहले रोजगार के आंकड़े, फिर जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के आंकड़े और बजट के आंकड़ों पर उठे विवाद इसके पुष्ट उदाहरण हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के निदेशक रथिन राय और वित्त मंत्रालय के आर्थिक विभाग के पूर्व आर्थिक सलाहकार नितिन देसाई ने आर्थिक सर्वेक्षण और बजट दस्तावेजों के अध्ययन के बाद ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में एक लेख में सप्रमाण बताया है कि इन दोनों सरकारी दस्तावेजों में राजस्व प्राप्तियों के आंकड़ों में 1.7 लाख करोड़ रुपये का अंतर है।
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इस लेख में बताया गया है कि बजट में संशोधित अनुमान के अनुसार, वित्त वर्ष 2018-19 में 17.3 लाख करोड़ रुपये की राजस्व प्राप्ति हुई जबकि आर्थिक सर्वेक्षण में प्रावधानित वास्तविक आंकड़े के अनुसार, इस वर्ष में सरकार की राजस्व प्राप्तियां 15.6 लाख करोड़ रुपये रही, जो बजट के संशोधित अनुमान से तकरीबन 1.7 लाख करोड़ रुपये कम है।
शायद इसीलिए वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में सरकार की प्राप्तियों, व्यय और अन्य बड़े खर्चों का कोई जिक्र नहीं किया। वृहद आंकड़ों को भाषण में बताने की सशक्त परंपरा रही है। भारत के महालेखा नियंत्रक (कंट्रोलर जनरल ऑफ एकाउंट्स यानी, सीजीए) ने बताया था कि जनवरी, 2019 तक सरकार की राजस्व प्राप्तियां 11.8 लाख करोड़ रुपये की रही। पर फरवरी में पेश अंतरिम बजट में बताया गया कि संशोधित अनुमानों के अनुसार 2018-19 में राजस्व प्राप्तियां 17.25 लाख करोड़ रुपये रहेंगी।
मतलब, सीजीए के जनवरी के राजस्व प्राप्तियों के वास्तविक आंकड़ों से तकरीबन 5.4 लाख करोड़ रुपये ज्यादा, यानी फरवरी और मार्च के महीनों में राजस्व प्राप्तियां 2.7 लाख करोड़ रुपये हर महीने बढ़ेगी। यह औसत मासिक राजस्व प्राप्तियों से बहुत ज्यादा है और राजस्व प्राप्तियों की ऐतिहासिक प्रवृत्तियों के अनुरूप नहीं है। 5 जुलाई को पेश बजट में संशोधित अनुमान को सही करने की बजाय थोड़ा-सा और बढ़ाकर 17.29 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया।
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नए नवेले मुख्यआर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम कीअगुवाई में तैयार आर्थिक सर्वेक्षण ने बजट में बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई राजस्व प्राप्तियों की कलई खोल दी। आर्थिक सर्वेक्षण के सांख्यिकी परिशिष्ट में प्रावधानिक वास्तविक राजस्व प्राप्तियां 15.63 लाख करोड़ रुपये बताई गई हैं, जो सीजीए के द्वारा उपलब्ध आंकड़ों पर आधारित है। सीजीए के आंकड़ों में अगर-मगर की गुंजाइश नहीं होती है। इससे बजट के अनुमानों की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता उजागर हो गई।
वैसे, फरवरी में पेश बजटों में अनुमानों से काम चलाया जाता है। लेकिन जुलाई में पेश बजट के समय तक सीजीए के पूरे वित्त वर्ष के आंकड़े उपलब्ध हो जाते हैं। फिर बजट में वास्तविक प्राप्तियों का इस्तेमाल न करना संशय पैदा करता है। वित्त मंत्रालय को स्पष्ट करना चाहिए कि सीजीए के प्राप्ति संबंधी आंकड़े उपलब्ध थे या नहीं।
मोदी सरकार के सुशासन के दावों की विडंबना देखिए। आर्थिक सर्वेक्षण को वित्त मंत्रालय का आर्थिक विभाग अपने मुख्य आर्थिक सलाहकार की अगुवाई में तैयार करता है। इस विभाग में ज्यादातर लोगों को अर्थ विषयों की खासी जानकारी होती है और उन्हें अपने काम का लंबा अनुभव होता है। इन लोगों को निस्संकोच अर्थ विशेषज्ञ कहा जा सकता है। वित्त मंत्रालय का बजट विभाग बजट दस्तावेज तैयार करता है। इस विभाग में अन्य विभागों से आए प्रतिनियुक्ति के अधिकारी ज्यादा होते हैं जिनको प्रायः आर्थिक प्रबंधन का ज्यादा अनुभव नहीं होता है।
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मजेदार बात यह है कि दोनों विभाग एक ही छतरी के नीचे बैठते हैं और फिलवक्त बजट और आर्थिक विभाग का मुखिया एक ही अधिकारी है। सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर इन दोनों विभागों के राजस्व प्राप्तियों के आकलन में इतना भारी अंतर क्यों है? जाहिर है, या तो इन दोनों विभागों में तालमेल का भारी अभाव है या राजनीतिक आकाओं की अर्थव्यवस्था को आंकड़ों की बाजीगरी से चुस्त-दुरुस्त दिखाने की महत्वाकांक्षा उन पर भारी पड़ गई।
दोनों ही स्थितियां अर्थव्यवस्था के लिए अशुभ हैं। पेश बजट का आकलन न केवल भ्रामक है, बल्कि गुमराह करने वाला भी है। पर वित्त मंत्री की यह तिकड़म ज्यादा ठहरने वाली नहीं है। 6-7 महीने बाद फरवरी में फिर नया बजट आ जाएगा। तब बजट की वास्तविकता का भान सबको हो जाएगा।
सरकारी बही-खातों की राजस्व प्राप्तियों में 1.7 लाख करोड़ रुपये के अंतर को दरकिनार भी कर दे, तब भी बजट में राजस्व प्राप्तियों में 13.5 फीसदी बढ़ोतरी का लक्ष्य रखा गया है जो सिकुड़ती आर्थिक गतिविधियों के चलते एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है। यह करदाताओं को डराने-धमकाने के बावजूद भी पूरा हो जाए, तो गनीमत है। लेकिन अर्थव्यवस्था में मंदी ठहरने का नाम ही नहीं ले रही है।
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ऑटो सेक्टर की जून की बिक्री में फिर गिरावट दर्ज हुई है। उपभोक्ता उपभोग का सामान बेचने वाली कंपनियों (एफएमसीजी) पर शेयर बाजार ने दांव लगाने से हाथ खींच लिए हैं, क्योंकि शेयर कारोबारी इन कंपनियों की बिक्री और लाभ में बढ़ोतरी को लेकर तनिक भी आश्वस्त नहीं हैं। जीएसटी (वस्तुऔर सेवा कर) का गिरता और अस्थिर संग्रह भी बाजार में व्याप्त आशंकाओं की तस्दीक करता है।
जीएसटी को मोदी सरकार ने एक महान उपलब्धि के रूप में पेश किया था और समझा गया था कि इससे देश की तस्वीर बदल जाएगी। देश की तस्वीर तो बदली नहीं, पर राजस्व संग्रह की तकदीर अवश्य फूट गई। बजट 2018-19 में जीएसटी से केंद्र सरकार को 7.43 लाख करोड़ रुपये राजस्व का अनुमान लगाया गया था। पेश बजट में जीएसटी संग्रह के संशोधित अनुमान को एक लाख करोड़ रुपये से कम कर दिया गया। यह अर्थव्यवस्था में बढ़ती सुस्ती बताने को पर्याप्त है। जीएसटी निवेश पर भी लगता है और खपत पर भी। वित्त वर्ष 2019-20 में इसके कर-संग्रह में महज 20 हजार करोड़ रुपये की वृद्धि की गई है जो सरकार के विश्वास को कम, अविश्वास को ज्यादा दर्शाता है।
(लेखक अमर उजाला के पूर्व कार्यकारी संपादक हैं)
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