पिछले तीन सप्ताह से लगभग पूरी कश्मीर घाटी बंद है। स्कूल और सरकारी ऑफिसों में सन्नाटा है, दूकानों पर ताला लटका है और सरकार के अनुसार स्थिति सामान्य है, अमन-चैन का माहौल है। फिर भी विपक्षी पार्टियों के नेता हवाई अड्डे से बाहर कदम नहीं रख सकते। वहां के नेताओं की गैर-कानूनी गिरफ्तारी, कर्फ्यू, चप्पे-चप्पे पर सेना और अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती के बारे में खूब लिखा जा रहा है। हाल में ही राहुल गांधी से बात करती एक कश्मीरी महिला का विडियो भी बहुत देखा गया। इन सबके बाद भी कश्मीरी महिलाओं के बारे में कहीं कोई खबर नहीं आ रही है।
पिछले तीन सप्ताह से मीडिया सरकारी प्रचार तंत्र से निकली खबरें दिखाने में व्यस्त है। जाहिर है ऐसे माहौल का सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है। कोई भी मानवीय संकट, विशेष तौर पर नागरिकों और सुरक्षाबलों के बीच का संघर्ष, महिलाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या बनता है। हाल ही में जारी की गयी एक रिपोर्ट में भारत को महिलाओं पर यौन हिंसा के सन्दर्भ में सबसे असुरक्षित देशों की सूची में दूसरा स्थान दिया गया है।
साल 2018 में इस सूची में भारत का स्थान चौथा था। इस रिपोर्ट को आर्म्ड कनफ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डाटा प्रोजेक्ट नामक संस्था ने तैयार किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में युद्ध और सामाजिक अराजकता बढ़ने के कारण महिलाओं पर यौन हिंसा बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट को बनाने के लिए दुनिया में जनवरी 2018 से जून 2019 के बीच सरकारी तौर पर प्रकाशित 400 यौन हिंसा के मामलों का विस्तृत अध्ययन किया गया।
साल 2016 में प्रकाशित पुस्तक, फाल्ट लाइन्स ऑफ हिस्ट्री, में सामाजिक कार्यकर्ता साहिबा हुसैन लिखती हैं, “सुरक्षा बलों द्वारा जानबूझकर या फिर डर फैलाने के लिए इतनी यौन हिंसा जम्मू और कश्मीर में की गयी है कि इसपर पूरा एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है।”युद्ध या फिर अराजक माहौल में तथाकथित दुश्मनों के खेमे की महिलाओं का यौन शोषण हमेशा ही जायज ठहराया जाता रहा है। अराजकता और युद्ध जैसे माहौल में महिलाओं के शोषण को दुश्मनों के खेमे को कमजोर करने का एक हथियार बना दिया गया है। युद्ध पुरुषों का विषय है, पुरुष मरते हैं, वीरता के लिए पुरस्कृत होते हैं, जीतते हैं या फिर हारते हैं- पर महिलाएं तो युद्ध में हमेशा हारती ही हैं।
जम्मू और कश्मीर में 1990 से ही आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्सपा) लागू है और यही कानून सभी मानवाधिकार हनन, जिसमें यौन शोषण शामिल है, पर पर्दा डालने का काम करता है। सरकार इस कानून को हटाने के बारे में कुछ नहीं कहती, जबकि उसके अनुसार हालात सामान्य हैं। ऐसा नहीं है की सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीरी महिलाओं के यौन शोषण के मामले सामने आये ही नहीं हैं, पर अब तक एक भी ऐसा मुकदमा न्यायालयों में नहीं चला है और दूसरी तरफ सुरक्षा बलों के कोर्ट मार्शल के दौरान क्या होता है किसी को कभी पता नहीं चलता।
साल 2016 में एक पूरी पुस्तक ही इस मामले पर प्रकाशित की गयी थी। इसका शीर्षक था, डू यू रेमेम्बर कुनान पोशपोर। इस पुस्तक में बताया गया है कि किस तरह से 23 फरवरी 1991 की रात को सुरक्षा बलों ने कश्मीर के दो गांव- कुनान और पोशपोरा में 25 से अधिक महिलाओं का सामूहिक बलात्कार किया था। इस मामले को लगातार दबाने की साजिश की जाती रही पर महिलाओं और सामाजिक संगठनों के लंबे संघर्ष के बाद साल 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में मुकदमा दायर करने की इजाजत दी। इसके बाद क्या हुआ, यह किसी को नहीं मालूम है।
सामाजिक कार्यकर्ता, नीतिशा कॉल ने साल2018 में फेमिनिस्ट रिव्यु में प्रकाशित एक लेख में कहा था, “कश्मीर में महिलाओं पर हमले, अत्याचार और यौन शोषण का प्रभाव केवल उनपर या उनके परिवार पर ही नहीं पड़ता है बल्कि यह अर्थव्यवस्था और सामान्य जन-जीवन को भी प्रभावित करता है। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो ये महिलाएं अत्याचार की शिकार हो रही हैं और दूसरी तरफ देश के दूसरे हिस्सों के लोग इन्हें पाने की लालसा रखते हैं और उपभोग की वस्तु समझते हैं। दूसरे हिस्सों में इनकी सुंदरता को लेकर तमाम बातें की जाती हैं”। नीतिशा कॉल के इस बयान की सच्चाई तो हाल में ही हम सोशल मीडिया पर और तमाम नेताओं के बेशर्मी से भरे बयान में देख चुके हैं।
इतिहासकार उर्वशी बुटालिया के अनुसार कश्मीर में जो अर्द्ध-विधवाओं की हालत है उसपर कोई कुछ नहीं कहता पर यह सबसे गंभीर समस्या है। अर्द्ध-विधवाओं से तात्पर्य उन महिलाओं से है जिनके पतियों को सुरक्षा बल या आतंकवादी संगठन उठा कर ले गए और उसके बाद से उनका कहीं पता नहीं है। गैर सरकारी संगठनों के अनुसार ऐसी महिलाओं की संख्या 3000 से भी अधिक होगी।
उर्वशी के अनुसार ऐसी महिलाएं विधवा महिलाओं से कहीं अधिक परेशानियां झेलती हैं। जिन महिलाओं के पतियों की जानकारी नहीं है उन्हें न तो संयुक्त परिवार और न ही समाज कोई अधिकार देता है। सरकार के पास ऐसी महिलाओं के कोई आंकड़े ही नहीं हैं तो जाहिर है कोई सरकारी मदद भी नहीं मिलती। यह हालत तब है जब ऐसे लापता लोगों के परिवारों के संरक्षण के लिए सयुंक्त राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं। ऐसी महिलाएं छोटे रोजगार जैसे चाय की दूकान या कशीदाकारी का काम कर अपने परिवार का पेट पालती हैं। कश्मीर में आजकल जैसे माहौल हैं उसमें इन्हें काम नहीं मिलता और न ही ये महिलाएं बाहर जाकर काम ढूंढ सकती हैं।
कश्मीर में महिलाओं और लड़कियों पर कितने अत्याचार किये गए होंगे, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पहले कश्मीर के प्रदर्शनों और आन्दोलनों में महिलाएं और लड़कियां शामिल नहीं होती थीं, लेकिन अब आन्दोलनकारियों में महिलाएं और लड़कियां भी बड़ी संख्या में शामिल रहती हैं।
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