विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः पुलिस बर्बरता के बीच लोकतंत्र में आस्था की जलती शमा की रोशनी में होगी सिस्टम की शुद्धि

अपनी तमाम बदहाली और पिटाई के बावजूद संवैधानिक लोकतंत्र पर आस्था की नन्हीं सी मोमबत्ती लिए कदम बढ़ा रहे युवा-आमजन की सफलता की कसौटी यह नहीं कि अगले चुनाव में उनके कितने सरपरस्त जीतते हैं, बल्कि ये है कि वे अधोतल को जा रही राजनीति का मिजाज कितना बदल पाते हैं।

फोटोः अतुल वर्धन
फोटोः अतुल वर्धन 

क्या अजीबोगरीब साल था यह 2019 भी, जो समाज के हर वर्ग को गुस्सैल आक्रामकता के साथ फूहड़ भाषा समेत यहां से वहां तक छलकता छोड़ गया। यह वह साल था जो मुख्यधारा के मीडिया में सरकार की अभूतपूर्व चाटुकारिता से शुरू तो हुआ, पर आधा भी न हुआ था कि उस मीडिया को गोदी मीडिया का खिताब देकर और लानत भेज कर जनसंपर्क की कमान सोशल मीडिया को थमाकर बीत गया। यूट्यूब की फुल कृपा से कुछ साल पहले एक गाना तमाम लोगों, खासकर युवाओं की जुबान पर चढ़ा हुआ था, ‘व्हाइ दिस कोलावेरी, कोलावेरी, कोलावेरी डी?’ सुनते हैं कि टूटी-फूटी तमिल मिश्रित अंग्रेजी का यह गाना प्यार में निराश नशे में बहकते उस युवा की पुकार था, जो अपनी प्रेमिका से पूछ रहा है, अरी मुझ पे इतना जोरदार गुस्सा क्यों?

साल 2019 के दिसंबर में यूट्यूब की पतंग तबसे और भी ऊंची थिग रही है। जितना सोशल मीडिया विद्रोही नई पीढ़ी के युवाओं का दुलारा बन रहा है, उतनी ही सत्ता पक्ष की टेढ़ी भंवें उस पर तन रही हैं। आज कोलावेरी का गायक वह नशेड़ी प्रेमी अगर मेरठ शहर के पुलिस मुख्यालय के बाहर खड़ा होकर गाना गाते सुना जाता तो शायद उसे खंभे से बांधकर पीटा जाता। राजधानी लखनऊ में वह अपनी गली के मुहाने खड़ा होकर यह गाना गाता तब तो उसे देश के खिलाफ द्रोह भड़काने का प्रयास बताकर कोई डरावनी मूंछों वाला पुलिस अफसर गायक को सीधे प्राथमिकी दर्ज करवा कर हिरासत भेज देता जिसके बाद जनता पूछती रह जाती कि उसका क्या हुआ!

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याद करें, हम को बताया गया था कि 2020 तक भारत दुनिया का शीर्ष देश बन जाएगा। पर देश तो हर तरह के पैमाने पर नीचे की तरफ लुढ़कता हुआ दिख रहा है। और नागरिक पंजीकरण के बुनियादी सवाल पर सत्ता पक्ष का तकरीबन हर बड़ा नेता दूसरे की स्थापना के उलट बोले जा रहा है। टूटे शीशे की तरह इस माया दर्पण में मुद्दे की शक्लें तरह-तरह की नजर आने लगी हैं। और सारे देश के युवाओं का शक बुजुर्गों के बीच भी पक्का होता जा रहा है कि तमाम दावे और आश्वासन मिथ्या हैं, केवल संविधान ही सत्य है। आप चाहें, तो आजकल की फैशनेबल भाषा में कह सकते हैं कि बरस 2019 भारतीय राजनीति का एक शांकर भाष्य हमें दे गया है।

अब से 2024 के आम चुनावों तक आप राजनीति और मीडियाकारों के बीच अद्वैतवादी, द्वैतवादी और द्वैताद्वैतवादियों के बीच शास्त्रार्थ कराइएः भारत का नागरिक कौन है, कौन नहीं? शरणार्थियों में शरण पाने की अर्हता किस देश के किस शरणार्थी समूह के पास है, किस पे नहीं? जहां तक सीएए, एनआरसी या एनपीआर पर अलग-अलग राज्यों द्वारा उठाई जा रही आपत्तियों की बात है, असम की आपत्तियों के साथ बंगाल की आपत्तियों का और कर्नाटक के बरक्स तमिलनाडु की आपत्तियों का मिलान करने पर उनके बीच कोई तुक नहीं मिलती। उल्टे लगता है कि कई आपत्तियों के बीच आपसी टकराव है। बीजेपी शासित राज्यों के बीच भी शरणार्थियों के मसले पर केंद्र से असहमति साफ सामने आ रही है। हाय चुनाव की विराट सफलता का स्वाद कई बार कितना कड़वा होता है! नई सदी के दो दशक भी पूरे नहीं हुए और महाचुनावों की महाजीत को आधा साल नहीं गुजरा कि आर्थिक, राजनयिक ही नहीं, उत्साह तथा मनोबल के पैमाने पर भी देश अपने निम्नतम बिंदु को छूने लगा है।

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यह सही है कि गांधीवाद या समाजवाद की अकादमी के शिक्षित नेता आज एक हद तक शिथिल पड़ गए हैं, या शरद पवार की तरह चाणक्य के रोल में नेपथ्य से ही मंच का संचालन करा रहे हैं। मार्क्सवादी सिमटते जा रहे हैं। पर सत्तासीन बीजेपी की मुखालफत भी अब खुलकर हो रही है जिसे पुराने दमनकारी तरीकों से कुचलने, दबाने की फूहड़ कोशिशें उसको और अधिक सान दे रही हैं। पर सड़कों पर दमनकारिता और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ शांतिपूर्वक धरने पर बैठे मध्यवर्ग में एक गहरा गुस्सा और सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुटता तो है, पर अब तक उनके पास कोई सुलझा हुआ चरण-दर-चरण कार्यक्रम या एक सर्वस्वीकार्य कमांडर नहीं है। सारी दुनिया में जब लड़ाई और युद्ध के पैमाने बदल चुके हों तो इस समय योरोप, एशिया या लातिन अमेरिका के नागरिकों के गुस्से पर ठंडे छींटे डालने और तटस्थता और शांति की अपील करने की उम्मीद किससे करें?

पहले सहज जवाब होता था, उदारतावादी सिविल समाज या घट-घट व्यापी मीडिया से। पर इन दिनों जब दिल्ली से तेलंगाना तक युवतियों के साथ दरिंदगी और उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ पुलिसिया दमनकारिता से विचलित होकर एनडीए के सहकारी दल और मध्यवर्गीय समर्थक भी व्यवस्था के प्रतिनिधियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे हुए हैं, हांगकांग और चीन के वीगुर लोग भी आंदोलित हैं। और इन छवियों और बयानों को दिनभर भुनाता हुआ टीवी और सोशल मीडिया अल्गोरिद्म का गणित इस्तेमाल कर अपनी तरफ दर्शक खींचने के लिए जनविद्रोह को निंदनीय हरकत नहीं, जनता का लोकतांत्रिक हक और बिफरी जनशक्ति का सराहनीय तेवर बताने लगा है। लेकिन कोई सुलहकारी हल वह नहीं देता। गुस्सा और शंका ही गहराता है जो फेसबुक या यूट्यूब या वाट्सएप पर साफ झलकता है। उसके बीच प्रचारित हो रहे विचार सरलीकरण पसंद जनों को अच्छे लगते हैं, लेकिन दरअसल जिंदगी अब इतनी सरल नहीं है जितनी वह सोशल मीडिया पर झलकती है।

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उत्तर प्रदेश, बेंगलुरु या दिल्ली में वरिष्ठ प्रोफेसरों से लेकर छात्रों तक के खिलाफ मारपीट की पैरोकारी करने या उनको पुलिस की गाड़ियों में धकियाते हुए ले जाने के दृश्यों पर खुशी जताने वालों को गौर से देखिए। टीवी पर बीजेपी के अधिकृत प्रवक्ताओं की चीख-पुकार से कई बार लगता है परशुराम की तरह पिता स्वरूप नेतृत्व की आज्ञा होते ही बिना जवाबदेही का इंतजार किए फरसा उठाकर शक के शिकार का सर काट लाना ही आदर्श हिंदू होना है। पर अपने आका को खुश करने और अपने दल को जिताने के लिए किसी भी ‘वाद’ की निजी व्याख्या को धर्म का बताकर फौरी जुनून पैदा करना तो आसान है, लेकिन अंतत: यह खेल बहुत खतरनाक साबित होता है। धर्मों की इकहरी समझ और राजनीति की वैचारिक जिदों ने दुनिया में बार-बार युद्धों के हालात बनाए हैं। हम कहते रहें कि हम गांधी और बुद्ध का देश हैं, लेकिन सच यह है कि हालिया घटनाओं और बहुमत के गर्व से दमकती सरकार के कई विवादित फैसलों ने विदेशी मीडिया में भी 2019 के दौरान लगातार भारत को एक धार्मिक रूप से कट्टरपंथी और प्रतिगामी छवि दी है।

अभी केरल में इतिहासकारों के बड़े सम्मेलन के दौरान बहुत अभद्रता हुई, जो इस स्तर के आयोजन को शर्मसार करती है। आज बड़े सरकारी ओहदेदार हों या इतिहासकार, सबकी नियुक्ति के पीछे राजनीति झलकती है। वे सब अधिकतर नाटकीय उत्तेजना से भरपूर विवरणों को ही केंद्र में रखकर अपने भाषणों और ग्रंथों को पेश करते हैं। इस तरह का इतिहास लेखन अक्सर राजकीय रुचि से होता है, और इसलिए सरकारी इतिहासकारों का धड़ा कई बार भीषण गृहयुद्ध और रक्तपात पर परदा डालते हुए सत्ता पक्ष के किए कराए को जायज ही नहीं तारीफ लायक भी ठहराता रहता है। इसके खिलाफ कभी न कभी विद्रोह होगा ही।

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साल 2019 की शुरुआत भी भारतीय इतिहास के कई मिथकों, गलतफहमियों के खिलाफ केरल में (सबरीमला मंदिर में प्रवेश के हक के लिए) महिलाओं के छेड़े आंदोलन से हुई। वहां महिलाओं ने शांतिपूर्ण असहमति जताने के लिए 620 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनाई तो वे कानून नहीं तोड़ रही थीं। उनकी मांग थी कि उस कानून को, जो औरत-मर्द को बराबरी का हक देता है, लागू किया जाए। सितंबर आते-आते सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर का महिला निषेधी कानून समाप्त कर भी दिया, लेकिन पुजारियों और स्थानीय सायास भड़काये गए हिंदुओं के विरोध से फैसला आज भी सीलबंद लिफाफे में कैद है।

बार-बार कभी महिलाओं की असुरक्षा, तो कभी नागरिकता के मुद्दे पर अभूतपूर्व संयम और एकजुट हो रही युवाओं की इस विराट ऊर्जा को वोटों के चलताऊ धरातल पर उतार कर राजनीति अपना ही सबसे ज्यादा नुकसान करेगी। उन पर पानी की तोप छोड़ने या रबर की गोलियां चलवाने की बजाय उसकी रचनात्मक संभावना को क्यों नहीं पहचाना गया जो देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक मशीनरी की खामियों को हटाने का सबसे कारगर हथियार बन सकती थी? लगता है कि मौजूदा नेतृत्व को लगभग वही गलतफहमी है जो कभी निक्सन को थी। वह यह, कि हर आलोचना करने वाले को ही नहीं, सारे विपक्ष को पटखनी देना, अपमानित करते रहना कुर्सी को अगले दशक तक बचाए रखने के लिए जरूरी है।

चालाक तरीकों से चंदेबाजी के तरीके निकालना जो पकड़े न जाएं, जब-तब कर विभाग और लाइसेंस कोटा परमिट राज के अमले को अधिक स्वामिभक्त बना कर उनका दमनकारिता के लिए प्रयोग जनता की नजरों में नेतृत्व की सहज विजय क्षमता को मलिन बना देती हैं। और इसी गलतफहमी की वजह से दिल्ली की सत्ता आज जवाबदेही से कतराती हुई चाटुकारिता से छलकती राजनीति और सरकारी मशीनरी पर अपना शासन चलाने के लिए अधिकाधिक भरोसा कर रही है। नतीजा यह कि जनता का जीवन दुष्कर बनता जा रहा है और सरकारी दस्ते खूंखार होते जा रहे हैं।

युवाओं और आम जनता की राह मुश्किल है इसलिए उनसे देश की दुर्दशा पर बहुत सारे सवाल पूछना बेकार है। अपनी तमाम बदहाली और मार पिटाई के बावजूद संवैधानिक लोकतंत्र पर आस्था और ईमान की नन्हीं सी मोमबत्ती लिए वे एक-एक कदम बढ़ा रहे हैं और तंत्र की शुद्धि के तरीके खोज रहे हैं। उनकी सफलता की कसौटी यह नहीं कि अगले चुनाव में उनके कितने सरपरस्त जीतते हैं, बल्कि यह कि वे इस अधोतल को जा रही राजनीति का मिजाज़ किस हद तक बदलवा पाते हैं, ताकि छात्र वापस परिसरों को लौटें, महिलाएं फिर बड़ी तादाद में काम पर जा सकें और मध्यवर्ग तथा उद्योग जगत वह करें जो करना उनका सहज धर्म भी है और देश की तरक्की के लिए जरूरी भी। अधिक गहरी और तात्कालिक जवाबदेही सरकार की ही बनती है, वह इसे माने या नहीं।

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