विचार

हिंदू राष्ट्र की मांग से सुर मिलाते खालिस्तानी राग की धुन पर सवार अमृतपाल के बहाने पंजाब को आग में झोंकने की कोशिश

बीजेपी साफ तौर पर आशा कर रही है कि अमृतपाल के उभार और खालिस्तान को लेकर उसके भाषण जिसे राष्ट्रीय मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश भी कर रहा है, उससे भगवंत मान सरकार को बदनाम करने और पंजाब में हिन्दुओं की चिंताओं और भय को बढ़ाने में मदद मिलेगी।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

एक कट्टरपंथी युवा प्रचारक और उसके तलवार लहराते समर्थक पंजाब में रातों-रात सनसनी बन गए हैं। 23 फरवरी को पाकिस्तान सीमा से सटे अजनाला में पुलिस स्टेशन पर दुस्साहसी मार्च के दौरान पुलिस वालों से मुकाबले की फुटेज वायरल हो गई। ‘खालिस्तान’ और ‘भारत की एकता को खतरा’ वगैरह सुर्खियां बनी रहीं और यह टीवी, राष्ट्रीय अखबारों और  सोशल मीडिया पर प्रमुख नैरेटिव बना।

29 वर्षीय प्रचारक अमृतपाल के समर्थकों तथा आलोचकों के बीच पंजाब और देश से बाहर पंजाबी प्रवासियों में गर्मागर्म तथा विवादपूर्ण बहस छिड़ी हुई है। कहा जाता है कि अमृतपाल पिछले साल मध्य तक दुबई में ट्रांसपोर्टर था। व्यक्तिगत विवाद निबटाने के लिए ढाल के तौर पर वह पवित्र सिख धर्म ग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहिब का इस्तेमाल करते रहे और इसकी कई लोगों ने आलोचना की तो कई ने इसे सही बताया।

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अलग सिख देश के लिए आंदोलन ‘रिटर्न ऑफ खालिस्तान’ का भूत 1980 के दशक से ही पंजाब को डराता रहा है। इससे कर्फ्यू,  हत्याकांडों, सांप्रदायिक दंगे और हिंसक मुठभेड़ों की ऐसी दुखदायी स्मृतियां हमेशा उभरती रहती हैं जिसने पंजाब में एक पीढ़ी को बर्बाद कर दिया। जब तक कि 1990 के दशक की शुरुआत में उसे सख्ती से कुचल नहीं दिया गया। प्रवासी भारतीयों के एक छोटे-से वर्ग को छोड़कर पंजाब में इसे बहुत कम समर्थन मिला, फिर भी कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के प्रयास में 2020-21 में भारतीय मीडिया ने ‘खालिस्तानी’ शब्द का बड़े पैमाने पर और बिना सोचे-समझे इस्तेमाल किया। अमृतपाल सिंह पर मीडिया के बहुत अधिक ध्यान देने से इसे नया जीवन मिल गया।

पंजाब में आम तौर पर यह माना जाता है कि ‘खालिस्तान’ सत्ताधारी पार्टी के लिए चुनावी लाभ हासिल करने और अल्पसंख्यक हिन्दुओं को मदद करने के नाम पर उचित क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दबाने की ‘एजेंसियों’ की गहरी चाल है। 1990 के दशक से ही आतंकवाद बाद के चरण में पंजाब की राजनीति में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अकाली दल-बीजेपी गठबंधन प्रमुख रहे हैं। पिछले 25 साल से राज्य पर उनकी मजबूत गिरफ्त के दौरान पंजाब ने कृषि संकट, उद्योगों के बाहर जाने, बेरोजगारी, ड्रग्स, पलायन और ऋण जाल देखे हैं जिसने सुनिश्चित किया कि एक वक्त ‘भारतीय मुकुट में हीरा’ माने जाने वाला पंजाब अपनी खास जगह बनाने के लिए जूझ रहा हो।

सत्तारूढ़ राजनीतिक वर्ग के पास इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं रहा है। बल्कि वे समस्या के हिस्से रहे हैं। बालू, ड्रग्स, शराब, ट्रांसपोर्ट, केबल टीवी आदि तरह-तरह के माफिया ने सरकारी संसाधनों की लूट की है। राजनीति कुछ ही परिवारों के इर्द-गिर्द बनी रही जिनके सामान्य व्यापारिक हित और पारिवारिक संबंध थे और उनलोगों ने आईपीएल खिलाड़ियों की तरह बराबर पालाबदल किया। अर्थव्यवस्था गिरती रही और राजनीति बिकाऊ बन गई जबकि समाज अधिक युवा, अधिक शिक्षित, अधिक आकांक्षी तथा आपस में मिला-जुला एवं नई कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के उपयोग में अधिक प्रवीण बना।

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इन शक्तियों ने पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब (पीपीपी) और आम आदमी पार्टी-जैसे नए राजनीतिक दलों के बढ़ने में मदद की और ऐसे सिख वाम और सिख दक्षिणपंथ- दोनों को नया जीवन दिया जो किसान यूनियनों और धार्मिक संगठनों में प्रभुत्व रखते थे। कपास की फसलों पर सफेद मक्खियों के हमले को लेकर हुए आंदोलन और पंजाब के झलूर में दलितों को कम दरों पर जमीन देने की मांग पर हुए आंदोलन-जैसी गतिविधियों ने वाम को मजबूत किया जबकि ‘सच्चा सौदा’, ‘बेअदबी’ और ‘सिख बंदियों’ ने सिख कट्टरपंथी तत्वों को गति दी। ये दोनों शक्तियां ऐतिहासिक किसान आंदोलन या किसानों के विरोध के दौरान थोड़े दिनों के लिए एक साथ आए लेकिन दिल्ली में लाल किले पर 26 जनवरी, 2021 को झंडा लगाने के विवाद के बाद अंततः अलग हो गए।

मार्च, 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में ये अंतरधाराएं आखिरकार समाप्त हो गईं और आम आदमी पार्टी सत्ता में आ गई। अनुभव न होने, दिल्ली के नेतृत्व पर अधिक निर्भरता और खाली खजानों की वजह से भगवंत मान सरकार ने पहले ही साल में अपनी विश्वसनीयता खो दी। यह अधिकांश मुद्दों पर अनजान लगती है। गैंगस्टरों और अपराधियों को खुली छूट मिली हुई है जबकि नशीले पदार्थ और बालू माफिया प्रमुख मुद्दे बने हुए हैं। किसान और सिविल सोसाइटी ऐक्टिविस्ट वस्तुतः समानांतर प्रशासन चला रहे हैं और नियमित तौर पर सरकार को अपने घुटनों पर रहने को मजबूर कर रहे हैं।

अकाली दल और कांग्रेस को अब भी अपना औचित्य साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐतिहासिक तौर पर बीजेपी पंजाब में छोटी-मोटी शक्ति रही है लेकिन वह नए सिरे से प्रयास कर रही है और राज्य में सत्ता हासिल करने के लिए आक्रामक तौर पर सक्रिय है। पंजाब में पारंपरिक सिख दक्षिणपंथ को अकाली दल और इससे टूटकर अलग हुए संगठन पालते-पोसते रहे हैं। यह धर्म, ‘केन्द्र’ के खिलाफ मान ली गईं शिकायतें और पंजाब को अधिक अधिकारों, स्वायत्तता और यहां तक कि खालिस्तान से संबंधित मांगों पर जोर देकर फली-फूली।

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प्रकाश सिंह बादल, सुरजीत सिंह बरनाला-जैसे ‘मॉडरेट’ और जरनैल सिंह भिंडरावाले और सिमरनजीत सिंह मान-जैसे ‘कट्टरपंथियों’ के बीच प्रभुत्व के लिए प्रबल संघर्ष दक्षिणपंथी सिख राजनीति की एक अन्य विशेषता रही है। कट्टरपंथियों का 1980 के दशक के दौरान जोर रहा और 1989 चुनावों में उसने भारी जीत हासिल की। लेकिन 1992 से प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाले मॉडरेट समूह ने अकाली राजनीति में निरंतर अपनी पकड़ बनाई। 1997 के चुनावों के बाद प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र सुखबीर अकाली राजनीति में प्रमुख रहे और उन्होंने इसके राजनीतिक खंड- शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजीपीसी) को नियंत्रित किया।

अकाली कट्टरपंथियों को समाहित कर लिया गया, वे या तो खंड-खंड बिखर गए या किनारे कर दिए गए। राज्य चुनावों में सिमरनजीत मान गुट का पराजय उसका उदाहरण है जिसे संगरूर उपचुनाव के दौरान हाल के पुनरुत्थान तक शायद ही कभी 1-2 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल हो पाए।

इस शताब्दी की शुरुआत से पंजाब में ‘नव पंथिकों’ का उभार शुरू हुआ। खालिस्तान, 1984 के पुराने घावों और भिंडरावाले-जैसे लोगों के कट्टरपंथी विचारों की चर्चा यहां-वहां, पंजाबी पत्रिकाओं, पैम्पफ्लेट, किताबों और कट्टरपंथी विचारों को जीवित रखने वाले गीत-संगीत में होती रही। ‘सामान्य’ स्थिति बहाल हो जाने के बाद 1990 के दशक के बाद सरकार ने शिकंजा ढीला किया, तो प्रतिबंधित साहित्य प्रचुर मात्रा में फैलने लगा। ‘खालसा फतेहनामा’-जैसी पत्रिकाएं, ‘भिंडरावाले दे शेर’, ‘जांबांज राखा’-जैसी किताबें और भिंडरावाले पोस्टर पूरे राज्य में बस स्टॉल और किताबों की दुकानों में देखे जाने लगे।

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कट्टरपंथी, उनमें भी खास तौर से प्रवासी भारतीयों ने 1980 के दशक को लेकर अपना पक्ष, आतंकियों की दिलेरी की प्रशंसा और सरकारी दमन को बताने के लिए इंटरनेट एवं नई संचार टेक्नोलॉजी का उपयोग करना शुरू कर दिया। 1980 के अशांत समय के बाद आए अधिक से अधिक शिक्षित सिख इस नैरेटिव से प्रभावित होने लगे। कट्टरपंथी विचारों के साथ धारियांवाला, पंथ प्रीत, डाडुवाल आदि-जैसे नए धर्म प्रचारकों ने आम लोगों के बीच धार्मिकता को तेज किया।

प्रमुखतः कट्टरपंथी सोच वाले कई रेडियो स्टेशन खुल गए और बाद में वे डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी आ गए। यूट्यूब, फेसबुक, वाट्सएप, इन्स्टाग्राम, ट्विटर और क्लबहाउस, स्मार्टफोन, सस्ते डेटा पैक, वीडियो ब्लॉगिंग और इंटरनेट टेलीफोनी-जैसी नई मीडिया और प्लेटफॉर्म ने इस तरह के विचार-विमर्श को पूरी दुनिया से जोड़ा है।

कई युवा सिख खालिस्तान और इस तरह के विचार की मांगों का समर्थन करते हैं। क्लीन शेव सिख, खास तौर से ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले जट्ट सिख ‘नव पंथिकों’ के अच्छे-खासे हिस्से हैं। वे गहरे रूप से विभाजित हैं और ये नए पंथिक विरोधी विचारों के प्रति असहिष्णु हैं तथा सोशल मीडिया पर गाली-गलौज तक कर देने वाले हैं।

2014 के बाद से नरेन्द्र मोदी के उभार और हिन्दुत्व पर जोर तथा हिन्दू राष्ट्र की मांग ने कट्टरपंथी सिख अधिकार एवं खालिस्तान समेत उनकी मांग को औचित्यपूर्ण रूप दे दिया है। पंजाब के जख्म पर मरहम लगाने और नदी जल विवादों, 1984 के पीड़ितों को न्याय, सरकारी यंत्रणाओं, सिख बंदियों आदि-जैसे लंबित मामलों को बंद करना सुनिश्चित करने आदि में सरकार की विफलता ने उनकी शिकायतों को हवा दी है।

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अमृतपाल सिंह सोशल मीडिया पर अपने जुझारू खालिस्तान-समर्थक पोस्ट की वजह से लोगों की नजरों में आया। वह पहले दुबई में ‘ट्रांसपोर्टर’ था। जो उसके विचारों के विरोधी थे, वह उनका कठोर तरीके से जवाब देता था। वह अभिनेता से कट्टरपंथी ऐक्टिविस्ट बने दीप सिद्धू का बड़ा समर्थक था। दीप सिद्धू दिल्ली में किसानों के प्रदर्शन के दौरान लाल किले की घटना की वजह से चर्चा में आए थे। पिछले साल फरवरी में उनकी सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। लगता है, उनकी मृत्यु के बाद ही अमृतपाल ने भारत आने का फैसला किया। वह सितंबर में आया और सिद्धू द्वारा स्थापित संगठन- ‘वारिस पंजाब दे’ से अलग हुए संगठन का नेतृत्व करते हुए प्रचारक में बदल गया।

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पिछले छह माह के दौरान धर्मांतरण और ईसाई पोस्टरों, हिन्दुओं, वामपंथियों, मिशनरियों, पंथिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ खालिस्तान के पक्ष में उसकी बातें क्रमशः तेज होती गई हैं। अजनाला में पुलिसकर्मियों से मुकाबले से पहले दिसंबर में उसके समर्थकों ने एक गुरुद्वारा में रखी उन कुर्सियों को जला दिया जो वहां बूढ़े श्रद्धालुओं के लिए रखी गई थीं। वह दुबला और लंबा है, उसकी पगड़ी की अपनी स्टाइल है, उसकी निगाह तीखी है और वह जिस किस्म से बोलता है, वह संत जरनैल सिंह भिंडरावाले से मिलता-जुलता है। भिंडरावाले की तरह वह बताता है कि सिख भारत में ‘गुलाम’ हैं और वह नशीले पदार्थों को लेकर व्याप्त व्यसन के विषनाशक के तौर पर ‘अमृत संचार’ अभियान चला रहा है। भिंडरावाले की तरह वह सिख धर्म के सख्त और कट्टर संस्करण का समर्थन करता है और आधुनिकता के कई आयामों के विरुद्ध है।

अमृतपाल खालिस्तान के लंबे समय से एक अन्य समर्थक सिमरनजीत सिंह मान की उनके धैर्य और लगातार समान रुख रखने की प्रशंसा करता है लेकिन वह अपने को मान की तरह सोशल ऐक्टिविस्ट नहीं मानता। उसकी नजर में, राजनीति विचारों से समझौता करने वाला बनाता है।

अमृतपाल और उसका समूह बहुत अच्छी तरह संगठित, संसाधन वाला और सोशल मीडिया का अच्छी तरह से उपयोग करने वाला है; इन बातों ने उसे असंतुष्ट और कुंठित युवाओं, खास तौर से माझा क्षेत्र में और प्रवासी भारतीयों के बीच अच्छी-खासी दखल दिलाई है।

अपेक्षाकृत छोटे अपराधों के लिए जहां लोगों को जेल में डाल दिया जा रहा है, उसकी तुलना में वह जिस तरह सक्रिय है, जिस तरह नफरत का विष और हिंसा फैला रहा है, फिर भी उसे मिल रही छूट पंजाब में इस संदेह को बढ़ा रहा है कि उसे केन्द्र सरकार का परोक्ष समर्थन हासिल है। इस बीच विवादास्पद कृषि-व्यापार कानूनों को चतुर तरीके से वापस ले लेने वाले नरेन्द्र मोदी पंजाब में पार्टी की उपस्थिति बढ़ाने के खयाल से दिन-रात एक किए हुए हैं।

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बीजेपी ने अपने सबसे राजनीतिक सहयोगी- अकाली दल को छोड़ दिया है और कैप्टन अमरिंदर सिंह, सुनील जाखड़, मनप्रीत बादल तथा अन्य नेताओं समेत कई पूर्व कांग्रेस और अकाली नेताओं को पार्टी में शामिल कर पंजाब में संकरे शहरी हिन्दू आधार को बढ़ाने का निश्चित प्रयास किया है। गुरु तेग बहादुर और साहिबजादास की शहादत का स्मारणोत्सव मनाने, कतरारपुर गलियारे को खोलने जैसे कदम उठाकर प्रधानमंत्री ने सिख समुदाय को भी लुभाने की कोशिश की है।

बीजेपी साफ तौर पर आशा कर रही है कि अमृतपाल के उभार और खालिस्तान को लेकर उसके भाषण जिसे राष्ट्रीय मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश भी कर रहा है, उससे भगवंत मान सरकार को बदनाम करने और पंजाब में हिन्दुओं की चिंताओं और भय को बढ़ाने में मदद मिलेगी। उसे लगता है कि ध्रुवीकरण से उसे 2024 आम चुनाव में सत्ता में आने में मदद मिलेगी।

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1980 के दशक में राजनीतिक पार्टियों ने अपना औचित्य खो दिया था, राज्य प्रशासन पंगु हो गया था, कट्टरपंथियों का राजनीति में प्रभुत्व हो गया था और अल्पसंख्यक सुरक्षा ढूंढ़ते थे। उस वक्त के शुरुआती समय से तुलना भूलना मुश्किल है। कई लोगों को आशंका है कि पंजाब उसी दिशा में बढ़ रहा है।

लेकिन इतिहास अपने आपको उसी तरह नहीं दोहराता है। अमृतपाल भिंडरावाले की तुलना में कहीं नहीं ठहरता। भिंडरावाले की कई साल तक धार्मिक ट्रेनिंग हुई थी, उसकी गहरी आस्था थी, धार्मिक संस्था- दमदमी टकसाल का उसे समर्थन था, निरंकारियों के खिलाफ उसका लंबा संघर्ष था और अकाली दल समेत पंथ का उसे समर्थन हासिल था। इससे भी अधिक, खालिस्तान के लिए अमृतपाल की भाषणबाजी की तुलना में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव और राज्य के अधिकारों के खिलाफ भिंडरावाले के संघर्ष को ज्यादा लोक स्वीकार्यता हासिल थी।

अमृतपाल के समर्थन का आधार अब भी काफी संकरा है और वह अधिकतर सोशल मीडिया पर ही दिखता है। उसका और उसके एजेंडे का विरोध कुकी गिल-जैसे पूर्व आतंकी, बुद्धिजीवी, धार्मिक नेता और संगठन कर रहे हैं।

फिर भी, उसकी गतिविधियां बीजेपी को पंजाब में गंभीर राजनीतिक शक्ति के तौर पर उभरने, निवेश और पर्यटन केन्द्र के तौर पर पंजाब की प्रतिष्ठा को खंडित करने और इसके समाज का ध्रुवीकरण करने के कारण मदद कर सकती है। लेकिन तब पंजाब 1980 के दशक के घावों को याद करता है और किसान आंदोलन के इतिहास में हरियाणा के किसानों के साथ नेतृत्व करने की उसकी सुखद यादें अब भी ताजा हैं।

आशा है कि पंजाब इससे उबर जाएगा; राज्य सरकार के पास कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए रीढ़ की हड्डी होगी आर सिविल सोसाइटी अपने नेतृत्व और कैडर को सौहार्द बनाए रखने और पंजाब को अंधेरे में ढकेलने के विभाजनकारी षड्यंत्र को विफल करने में सक्रिय करेगा।

हरजेश्वर पाल सिंह राजनीतिक टिप्पणीकार हैं और चंडीगढ़ के एसजीजीएस कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं।

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