बेवजह और बहुत ज्यादा बोलने वालों के लिए कभी किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने सलाह दी थी: अपना मुंह बंद रखकर लोगों को यह सोचने देना कि आप अज्ञानी हैं, बेहतर है, बनिस्बत इसके कि आप अपना मुंह खोलकर उनके संदेह को सही साबित कर दें। ऐसा लगता है कि लाख टके की यह बात काम के बोझ के तले दबे शेरपा अमिताभ कांत और स्मिता सभरवाल जैसे लोगों पर पूरी तरह लागू होती है। स्मिता को यूट्यूब चैनलों पर देश की ‘सबसे सुंदर आईएएस अधिकारी’ बताया जाता है। अफसोस की बात है कि दोनों ही मेरी पिछली सेवा (आईएएस) से जुड़े हैं।
‘भारत में बहुत ज्यादा लोकतंत्र है’ और पिछले साल भारत में आयोजित जी-20 सम्मेलन के बारे में ‘इतना शानदार आयोजन पहले कभी नहीं हुआ’ जैसी टिप्पणियों के कारण अमिताभ सुर्खियों में रहे। भले ही भारत में लोकतंत्र आईसीयू में हो और कोई नहीं जानता हो कि आखिर वह जी-20 हुआ क्यों, सिवाय इसके कि इससे 2024 के चुनावों पर एक खास तरह का रंग चढ़ता। दूसरी ओर, लगता है कि सुश्री सभरवाल ने अब यह बता देने का फैसला कर लिया है कि उनके पास सुंदरता के साथ-साथ दिमाग भी है और इसलिए उन्हें अमिताभ कांत से एक पायदान ऊपर रखा जाना चाहिए।
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मेरा संदर्भ हाल ही में दोनों के सार्वजनिक बयानों से है जो सुस्त यूपीएससी और कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के सौजन्य से पूजा खेडकर द्वारा आईएएस में आरक्षित कोटे के दुरुपयोग के चौंकाने वाले खुलासे के बाद आए। कांत ने बता दिया है कि वह एससी/एसटी और ओबीसी कोटे का तो समर्थन करते हैं लेकिन शारीरिक रूप से विकलांगों के लिए कोटे का समर्थन नहीं करते और इसकी ‘समीक्षा’ की जानी चाहिए: उन्होंने यह स्पष्ट करने की जहमत नहीं उठाई कि इस छोटे से शब्द से उनका आशय क्या है।
ऐसा लगता है कि वह इसे खत्म कराना चाहते हैं। उन्होंने ट्रांसजेंडर कोटे का भी विरोध किया। उनकी तुलना में सभरवाल ने ज्यादा स्पष्टता के साथ अपनी बात कही। वह चाहती हैं कि विकलांग कोटा खत्म कर दिया जाए क्योंकि विकलांग व्यक्ति कठोर फील्ड वर्क और रोजाना लंबे समय तक काम नहीं कर सकते। (दोनों ही मामलों में वह गलत हैं: औसत आईएएस अधिकारी फील्ड पोस्टिंग के पहले 4-5 वर्षों के बाद अपना बाकी जीवन दफ्तर की नौकरियों में बिताता है, जैसा कि सुश्री सभरवाल अभी खुद भी कर रही हैं। जहां तक लंबे घंटों की बात है, मेरा बेटा जो पैराप्लेजिक है, सप्ताह में छह दिन अपने कार्यालय में डेस्क पर मुझसे ज्यादा घंटे बिताता है।)
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अपनी बातों के समर्थन में इन महाशया ने तर्क दिया कि कोई भी विकलांग पायलट विमान नहीं उड़ा रहा है या कोई विकलांग सर्जन ऑपरेशन नहीं कर रहा है तो इसकी कोई तो वजह होगी! (वह फिर गलत हैं और उन्हें यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज के सतेंद्र सिंह का लेख पढ़ना चाहिए जिसमें कुछ प्रतिष्ठित विकलांग पेशेवरों, प्रशासकों और शिक्षाविदों के योगदान को सूचीबद्ध किया गया है। यह साफ तौर पर दिखाता है कि अगर उचित और समान अवसर मिले तो ज्यादातर क्षेत्रों में विकलांग व्यक्ति, सामान्य लोगों से बेहतर नहीं तो कम से कम उनकी तरह तो काम कर ही सकते हैं। ‘पीपल विद डिजेबिलिटीज नीड ब्यूरोक्रैट्स हू आर अलाइज एंड नॉट एडवर्सरीज’ शीर्षक वाला यह आलेख 26 जुलाई 2014 को ‘द लॉन्ग केबल’ में प्रकाशित हुआ।)
कुल मिलाकर अपनी भद्दी टिप्पणियों से इन दोनों अधिकारियों ने न केवल अपने असंवेदनशील और कठोर स्वभाव को उजागर किया है, बल्कि अपनी अज्ञानता और प्रतिगामी प्रवृत्ति का भी परिचय दिया है। विकलांगों के लिए समानता और समान अवसर अब सभी देशों के सामाजिक और कानूनी ढांचे का हिस्सा तो है ही, यह समावेशी समाज के लिए भी जरूरी है।
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विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को लेकर 2006 के संयुक्त राष्ट्र समझौते पर भारत ने भी दस्तखत कर रखा है। इसके साथ ही यह संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों और अनुच्छेद 41 का भी हिस्सा है जिसके तहत सरकार को विकलांगों के साथ-साथ समाज के अन्य कमजोर वर्गों के लिए काम करने के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए प्रभावी प्रावधान करने का निर्देश दिया गया है। विकलांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम (2016) सरकार, समाज, नियोक्ताओं आदि के दायित्वों को स्पष्ट करता है। दुनिया विकलांगों को समाज की मुख्यधारा में लाने की दिशा में आगे बढ़ रही है लेकिन ये दो नौकरशाह-डायनासोर अपने हृदयहीन, सामान्य शरीर के अहंकार और संवेदनहीन विवेक से आगे नहीं बढ़ पाए हैं।
अगर ये विकलांग कोटे को निशाने पर लेने के बजाय सभी तरह के कोटे के दुरुपयोग, जैसा कि पूजा खेडकर के मामले में हुआ है, के खिलाफ मजबूती से सामने आते तो हर कोई इनकी सराहना करता।
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अगर वे नीचे लिखे गए सवाल और मांग उठाते, तो हर कोई इनके साथ होता:
डीओपीटी ने सुश्री खेडकर को नियुक्ति पत्र कैसे और क्यों जारी किया जबकि इसका यूपीएससी ने विरोध किया था और कैट ने भी उनका मामला खारिज कर दिया था?
उन्हें यूपीएससी की 40% विकलांगता को पूरा करने के लिए तीन अलग-अलग अस्पतालों से, अलग-अलग समय पर चार अलग-अलग विकलांगताओं (चलने-फिरने, देखने, सुनने, मानसिक) के प्रमाणपत्र को स्वीकार कैसे किया गया?
यूपीएससी/डीओपीटी का ध्यान इस ओर कैसे नहीं गया कि प्रत्येक परीक्षा के साथ वह 40% सीमा तक पहुंचने के लिए अतिरिक्त विकलांगताएं जोड़ती रही? इस पर तो पहले ही आपत्ति की जानी चाहिए थी।
जब वह छह बार एम्स, दिल्ली बोर्ड के सामने उपस्थित नहीं हुईं तो उनकी नियुक्ति पर विचार ही क्यों किया गया?
यूपीएससी के अध्यक्ष को ठीक उसी समय इस्तीफा देने की अनुमति क्यों दी गई जब उन्हें इस घोटाले में अपने संगठन की संदिग्ध भूमिका के बारे में सवालों का जवाब देना चाहिए था?
डीओपीटी और यूपीएससी ओबीसी और विकलांगता कोटा प्रणाली की खामियों की टोंटी बंद करने की कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं जबकि यह जानी हुई बात है कि सालों से ऊंची पहुंच वाले लोग व्यवस्था से खेल रहे हैं? वे ‘क्रीमी लेयर’ के प्रावधानों से बचने के लिए कागजी गोद लेना, संपत्ति का उपहार देना, समय से पहले सेवानिवृत्ति लेना जैसे फरेबों को रोकने के लिए नियमों/प्रक्रियाओं को सख्त क्यों नहीं कर रहे हैं?
क्रीमी लेयर के मद्देनजर आर्थिक स्थिति निर्धारित करने के लिए उम्मीदवारों की अपनी आय (केवल माता-पिता की) की गणना न करने के पीछे क्या तर्क है? बिल्कुल साफ है कि यहां खामियां गडकरी के एक्सप्रेस-वे जितनी ही चौड़ी हैं!
मांग है कि 2010 से जितने भी उम्मीदवार सफल हुए, उनके ओबीसी/विकलांगता कोटा प्रमाणपत्रों की गहन जांच की जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि सड़ांध कहां तक फैली हुई है। सोशल मीडिया पर जितने साक्ष्य उपलब्ध हैं, उन्हें देखते हुए तो यही लगता है कि खेडकर मामला तो बस झलक मात्र है?
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व्यवस्था का यह ‘खेल’ सिविल सेवाओं की गुणवत्ता पर दो तरह से विपरीत असर डालता है- एक तो इससे घटिया लोग सेवाओं में भर्ती पा जाते हैं और दूसरा, यह वास्तव में विकलांग/आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को इन नौकरियों के उनके अधिकारों से वंचित कर देता है। इस तरह का ‘खेल’ और खेडकर ने जो किया, वह विभिन्न स्तरों पर मिलीभगत और उच्च पदों पर बैठे लोगों की मदद के बिना हो ही नहीं सकता। अब यह बात साफ है कि बड़े स्तर की लीपापोती की गई। खेडकर की सेवाएं समाप्त कर दी जाएंगी लेकिन उनके खिलाफ दायर विभिन्न मामलों को समय के साथ अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। यूपीएससी चेयरमैन को पहले ही ‘साधुत्व’ धारण करने की छूट दे दी गई है और निस्संदेह वे मौन व्रत ले लेंगे, कुछ छोटे नौकरशाहों और डॉक्टरों को इधर-उधर किया जाएगा और सामान्य कामकाज फिर से शुरू हो जाएगा।
काश! आरक्षण और कोटे के बारे में इतनी चिंतित दिखने वाली अमिताभ कांत-सभरवाल की जोड़ी ने भावनात्मक और सहानुभूतिपूर्ण सोच को हाशिये पर डालकर अपने पूर्वाग्रहों से भरी दलीलें देने की जगह इन मुद्दों पर सूझबूझ का इस्तेमाल किया होता। उन्हें यह सवाल करना चाहिए था कि नहाने का पानी इतना गंदा क्यों है न कि बच्चे को उसी गंदे पानी में फेंक देने की तरफदारी करनी चाहिए थी। आसान विकल्प आमतौर पर सही नहीं होता।
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