धर्मग्रंथ ही नहीं, जनता भी मानती है कि यथा समय नियमानुसार चुनाव करवाना कलियुगी सरकारों के लिए पहला पुरुषार्थ है। यह भी गलत नहीं, कि अगर चुनावों के निकट आते ही राज्यों से विपक्षी हड़ताल, धरने-प्रदर्शनों का सिलसिला जारी होने और छोटी-मोटी बातों पर दंगे फसाद भड़कने की खबरें आने लगें और सामान्य राजकाज ठप्प होता रहे, यह ठीक नहीं। इनकी वजह से चुनाव हमेशा सही मुद्दों से भटक जाते हैं और सत्तारूढ़ सरकार को सारा ध्यान और सरकारी संसाधन उधर ही मोड़ने का जायज मौका मिल जाता है।
प्रधानमंत्री पहले भी इस आशय की बात कई बार कई मंचों पर कह चुके हैं कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के पंचसाला चुनाव यदि एक साथ करवाए जा सकें तो अच्छा हो। जो कुछ उठापटक होनी है, एक सीमित कालखंड में समवेत हो ले और उसे एकमुश्त निबटा कर सरकार चुनावोपरांत स्थिर माहौल में राज-काज चलावे।
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सन् 72 तक यही होता आया था। पर राजनीतिक हित स्वार्थों के दबाव से इस क्रम में जो टूट आ गई, वह अब तक चलती आ रही है। लिहाजा लोकसभा चुनाव में पुरानी सरकार बेदखल नहीं हुई कि हर केंद्र सरकार की प्राथमिकता बड़े घरेलू या अंतरराष्ट्रीय मसलों की बजाय किसी न किसी राज्य के विधानसभा चुनावों की राजनीतिक और प्रशासनिक तैयारी बन जाती है। यही नहीं, भारी बहुमत से सरकार केंद्र में आई हो, तो कुछेक सूबों में विपक्षी दल या दलों की सरकारें उसकी आंख की किरकिरी बन जाती हैं। पुरानी सरकार द्वारा (अक्सर स्वामिभक्ति के आधार पर तैनात) राज्यपाल हटाए जाते हैं और नए राज्यपाल (अक्सर उन्हीं आधारों पर) नियुक्त किए जाते हैं जो राज्य सरकारों की मध्यावधि बरखास्तगी के समय न जाने क्यों सूबे की जनता से अधिक केंद्र की राय को तवज्जो देते हैं।
ऐसे में स्वाभाविक है कि सर पर बाढ़ या सुखाड़ के खतरे हों, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र अविलंब सुधार की मांग करते हों, तब भी उनसे योजनाबद्ध तरीके से निबटना नहीं, बल्कि क्षेत्रीय शतरंज में शह-मात के लिए फौरी रणनीति तय करना ही केंद्र में सत्तारूढ हर पार्टी या गठजोड़ के लिए सर्वोपरि विचारणीय बन जाते हैं। इस क्रम में जब राष्ट्रीय सरोकारों की जगह (कई बार गैरवाजिब) क्षेत्रीय पैकेज बनाने को बढ़ावा मिलने लगे, तो क्षेत्रीय धरातल पर तरह-तरह के जातिवादी या सांप्रदायिक फार्मूले सतह पर उभर आते हैं। उनके नतीजे चुनावों में चंद दलों-राजनेताओं को भले लह जाएं, पर भविष्य के लिए वे राष्ट्रीय फिज़ा में सांप-बिच्छू छोड़ेंगे यह तय है। बंगाल जिस आग में झुलस रहा है वह उसके लंबे ममता बनाम वाम और अब ममता बनाम बीजेपी टकराव की ही पैदावार है।
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यह ठीक है कि यथास्थिति के उजास में आज फिर देश के तमाम दल बैठकर एक देश, एक चुनाव पर बात करें। लेकिन इसके लिए सभी नेताओं को तैयार रहना होगा कि बात जब निकलती है तो दूर तलक जाती है। हमारे संघीय गणराज्य के संविधान में राज्यों की स्वायत्तता की पुष्टि के साथ यह दर्ज है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हर पांच सालों के नियमित अंतराल पर करवाना अनिवार्य होगा। लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ ही हों।
ऐसा क्यों? संभवत: संविधान निर्माता जानते थे कि विविधता के पिटारे इस देश में लगातार बढ़ते बालिग मतदाताओं की संख्या के मद्देनजर राज्य और केंद्र दोनों में लाखों मतदान केंद्रों पर एक साथ नियमानुसार, शांतिपूर्वक और पारदर्शी चुनाव करवाने के लिए आने वाले सालों में जितने और जिस तरह के प्रशासकीय और वित्तीय संसाधनों की जरूरत पड़ेगी, वे कम पड़ सकते हैं। साल 2019 के आम चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से कहीं अधिक (विश्व में शायद सबसे खर्चीले) बताए जा रहे हैं। जब स्वास्थ्य क्षेत्र, शिक्षा और किसानी को बुरी तरह टूटने से बचाने को एक-एक पैसा कीमती हो, उस समय नए नकोर खर्च की राह खोलना क्या सयानापन होगा?
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दूसरा अहम सवाल यह है कि भौगोलिक विविधताओं के पिटारे हमारे जैसे विशालकाय देश में समवेत चुनावों के लिए क्या कोई भी एक ही आदर्श कालखंड निकाला जा सकेगा? हम जब भारतीय राज्यों की व्यापक भौगोलिक, खेतिहर, सांस्कृतिक और भाषाई बहुलता से रू-ब-रू होते हैं, तो दिखता है कि जाड़ों में हमारे हिमालयीन क्षेत्रों में, गर्मियों में रेगिस्तानी या रेगिस्तान से सटे प्रांतों में और बरसात में पूर्वोत्तर क्षेत्र में व्यवस्थित चुनाव करवाना लगभग असंभव है।
उत्तर में मानसून के चार महीने खरीफ की बुआई के होते हैं। इन दिनों सड़क, आकाश या जल पर सामान्य यातायात ही अक्सर खराब मौसम से ठप्प होता रहता है, बाढ़ का खतरा भी सर पर लगातार मंडराता है सो अलग। उधर, दक्षिण में बारिश जाड़ों में होती है। रहा फरवरी-मार्च का समय, वह फसल कटाई और परीक्षाओं का होता है। इस समय गांवों में लगातार चुनावी सभा कराना या स्कूली इमारतों और टीचरों को चुनावी काम में लगाना मुमकिन नहीं। शेष बरस भी तीज-त्योहारों से पटा पड़ा है।
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अनुभव यह भी गवाही देता है कि आम चुनाव अपने यहां जिस तरह खर्चीले और जनबहुल होते जाते हैं उसी परिमाण में हर राज्य में चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद हिंसक वारदातों और दंगों की संभावना भी बढ़ जाती है। राज्यवार बेहद नाजुक बन गई ऐसी ही स्थितियों को काबू में रखने के लिए 2019 के चुनाव चकरा देने वाले चरणों में करवाए गए। खास-खास हिंसापरक इलाकों में सशस्त्र बलों की तैनाती के बाद भी तीन महीनों तक शेष काम को छोड़कर मुख्यत: प्रशासकीय अमला सिर्फ कानून-व्यवस्था चाक-चौबंद रखने में जुटा रहा। व्यावहारिक सवाल सहज उठता है कि समवेत चुनावों की स्थिति बनी तो प्रशासनिक और सशस्त्र बलों की चादर को बिना फाड़े कितनी दूर तक सरकारी पैर पसारे जा सकेंगे?
समवेत चुनावों के पक्ष में यह तर्क कई लोग देते हैं कि राज्यों के चुनाव यदि लोकसभा चुनावों के साथ ही होंगे तो बड़े राष्ट्रीय दल अपने दोनों तरह के घोषणापत्रों में राष्ट्रीय हित को प्रधानता देते हुए उनमें एक स्वस्थ राष्ट्रीय एकात्मता का स्वर ला सकेंगे। इससे क्षेत्रीय अलगाववाद कम होगा और बड़े जनाधारवाली राष्ट्रीय पार्टियां अपने ही हितस्वार्थों को साधने वाले भ्रष्ट नेताओं और क्षेत्रीय दलों के साथ स्वार्थपरक भावताव वाले गठजोड़ बनाने को बाध्य नहीं होंगी। लेकिन क्षेत्रीय हितों को हाशिये पर देखने वाले यह भूल रहे हैं कि संघीय गणराज्य जैसे-जैसे युवा हो रहा है, वैसे-वैसे क्षेत्रीय मतदाता (विशेषकर दक्षिण भारत में) उत्तर भारत की कथित दादागिरी से नाखुश और क्षेत्रीय हितों को लेकर पहले से कहीं ज्यादा अधिक मुखर, महत्वाकांक्षी और अपने मुख्य इलाकाई नेता के पक्ष में लामबंद होते जा रहे हैं।
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पिछले दशकों में लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को मिलने वाले मतों में लगातार बढ़ोतरी दर्ज हुई है। साल 84 के चुनावों में जब लोकसभा में कांग्रेस को अभूतपूर्व विजय मिली तब भी क्षेत्रीय दलों का मत प्रतिशत 11 फीसदी था। 2009 में यह प्रतिशत दूने से ज्यादा 28.4 हुआ और 2014 में (जब बीजेपी को कुल मतों का 31 फीसदी भाग पाकर भारी जीत मिली) क्षेत्रीय मत प्रतिशत भी उससे तनिक ही कम 27.6 पर खड़ा था।
जब हम खेद प्रकट करते हैं कि कश्मीर या नगालैंड भारत के साथ तादात्म्य क्यों नहीं रखते या कर्नाटक और तमिलनाडु शांति से नदी जल क्यों साझा नहीं कर सकते, तब हम समझते ही नहीं कि क्षेत्रीयतावाद और सोशल मीडिया के युग में शेष दुनिया की ही तरह भारत में भी राष्ट्रराज्य की अवधारणाएं और जनआकांक्षाएं कितनी तेजी से बदल रही हैं। 1946 के भारत की शक्ल को अटल शाश्वत और किसी निगोड़ी मैकमोहन या ड्यूरेंड रेखा की कौन सोचे, साझा आर्थिक पटल पर भी विविधताएं अनंत हैं।
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1960 तक सबसे अमीर राज्य महाराष्ट्र की सकल आय सबसे गरीब बिहार से दूनी थी। 2014 में केरल जैसे नन्हें राज्य ने महाराष्ट्र को पछाड़ दिया है। देश के अन्य 12 समृद्ध राज्यों में आबादी कम हुई और आय बढ़ी, पर सबसे गरीब राज्यों के बीच आय, आबादी दर और सामाजिक विकास सूचकांकों की दृष्टि से गरीब राज्यों में आबादी बढ़ी और गैरबराबरी भी। समयानुसार परिसीमन न करने से हमारे तीन सबसे जनसंकुल सबसे गरीब राज्य: उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश आज अधिकतम सांसदों-विधायकों को चुनते हैं। वे विश्व बैंक डाटा के अनुसार आर्थिक ही नहीं सामाजिक विकास में भी बुरी तरह पिछड़ रहे हैं। समृद्धतम 100 फीसदी साक्षर राज्य केरल के सांसद की तुलना में एक तिहाई निरक्षर मतदाता वाले राजस्थान का सांसद दस लाख अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधि बनता है। ऐसे में क्या समवेत चुनाव से पहले नए परिसीमन का सवाल टाल देना अन्याय नहीं?
एक साथ चुनाव करवाने के बाद भी आने वाले समय में कश्मीर या सीमांत राज्यों की चिरंतन समस्याएं तथा जातिवाद और सांप्रदायिकता तो कम शायद न हों, लेकिन राज्यों से नए सवाल, नए टकराव उठते रहेंगे। केंद्रमुखी कराधान: जीएसटी का लागू होना और चौदहवें वित्तीय कमीशन की सिफारिशों के तहत राज्यों की आर्थिक स्वायत्तता की बढ़ोतरी और जल संसाधनों का संरक्षण और समान वितरण कुछ ऐसे ही मसले हैं। इसलिए समवेत चुनावों को न्योतने की बजाय देश की मूलभूत बहुलता और विषमता को स्वीकारना, सही परिसीमनऔर विकास के फलों का समान वितरण किस तरह संभव हो, इन सवालों को राज्य और केंद्र के लिए सबसे पहले समवेत चिंतन का विषय बनना चाहिए।
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