प्रधानमंत्री मोदी लगातार हमारे देश को विश्वगुरु बनाते रहे हैं। पहले तो यह कल्पना या फिर जुमलेबाजी नजर आती थी, पर इस बार तो कम से कम पर्यावरण विनाश के सन्दर्भ में उन्होंने भारत को विश्वगुरु बना कर ही अभूतपूर्व कारनामा कर दिया है। आजादी का अमृत महोत्सव और मोदी जी के शासनकाल के 8 तथाकथित स्वर्णिम वर्ष के जश्न के बीच ऐसी खबर का आना सचमुच विश्वगुरु का अहसास कराता है। इस वर्ष के पर्यावरण प्रदर्शन इंडेक्स, यानि एनवायर्नमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स में कुल 180 देशों में भारत का स्थान 180वां है। इस इंडेक्स को वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के लिए येल यूनिवर्सिटी और कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक संयुक्त तौर पर तैयार करते हैं और इसका प्रकाशन वर्ष 2012 से हरेक दो वर्षों के अंतराल पर किया जाता है। वर्ष 2020 के इंडेक्स में भारत 168वें स्थान पर था।
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इस इंडेक्स में सबसे आगे डेनमार्क है और इसके बाद क्रम से यूनाइटेड किंगडम, फ़िनलैंड, माल्टा, स्वीडन, लक्सेम्बर्ग, स्लोवेनिया, ऑस्ट्रिया, स्विट्ज़रलैंड और आइसलैंड का स्थान है। इंडेक्स भारत पर ख़त्म होता है और भारत से पहले क्रम में म्यांमार, वियतनाम, बांग्लादेश, पाकिस्तान, पापुआ न्यू गिनी, लाइबेरिया, हैती, तुर्की और सूडान का स्थान है। एशिया के देशों में सबसे आगे जापान 25वें स्थान पर है। साउथ कोरिया 63वें, ताइवान 74वें, अफ़ग़ानिस्तान 81वें, भूटान 85वें और श्री लंका 132वें स्थान पर है। चीन 160वें, नेपाल 162वें, पाकिस्तान 176वें, बांग्लादेश 177वें, म्यांमार 179वें स्थान पर है। जाहिर है, हमारे सभी पड़ोसी देश हमसे बेहतर स्थान पर हैं। दुनिया के प्रमुख देशों में जर्मनी 13वें, ऑस्ट्रेलिया 17वें, न्यूज़ीलैण्ड 26वें, अमेरिका 43वें, कनाडा 49वें और रूस 112वें स्थान पर है।
पर्यावरण प्रदर्शन इंडेक्स का आधार जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जनस्वास्थ्य, साफ़ पानी और स्वछता और जैव-विविधता जैसे सूचकों पर देशों का प्रदर्शन है। इसमें कहा गया है कि डेनमार्क और यूनाइटेड किंगडम जैसे चंद देश ही वर्ष 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन की राह पर हैं। यदि आज जैसे हालात बने रहे तो वर्ष 2050 तक कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में से 50 प्रतिशत से अधिक का योगदान केवल 4 देशों – चीन, भारत, अमेरिका और रूस – द्वारा किया जाएगा।
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वर्ष 2014 के बाद से पर्यावरण संरक्षण केवल अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों को नकारना और प्रधानमंत्री के प्रवचनों तक सिमट गया है, दूसरी तरफ देश में पर्यावरण के विनाश की गति बढ़ गयी है और पर्यावरण संरक्षण के लिए आवाज उठाने वालों पर खतरे भी बढ़ गए हैं। साल दर साल यही स्थिति बनी हुई है और वर्ष 2021 भी पिछले वर्षों की तरह ही रहा। अंतर बस यह है कि जो गरीब देश अन्तराष्ट्रीय मंचों पर जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के क्षेत्र में भारत को अपना नेता मानते थे, उन्हें भी भारत सरकार की दोहरी नीति स्पष्ट हो गयी। ग्लासगो में आयोजित तापमान बृद्धि के नियंत्रण से सम्बंधित बहुचर्चित सम्मलेन (COP26) में भारत के जोर देने पर अंतिम ड्राफ्ट से कोयले के उपयोग को समाप्त करने सम्बंधित मसौदे को हटाकर उसके बदले कोयले के उपयोग को कम करने को शामिल किया गया। इसे प्रशांत क्षेत्र के बहुत से देशों ने, जिन्हें डूबने का खतरा है, ने मानवता के विरुद्ध अपराध करार दिया। सम्मलेन के मुखिया अलोक शर्मा ने भी कहा था, कि इस कदम के बाद भारत को गरीब देशों को जवाब देना ही पड़ेगा।
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दुनियाभर में 22 देशों की उस सूची में जिसमें पर्यावरण संरक्षण करते लोगों की हत्या की गई, उसमें भारत भी केवल शामिल ही नहीं है बल्कि दुनिया में सबसे खतरनाक 10वां देश और एशिया में फिलीपींस के बाद दूसरा सबसे खतरनाक देश है। भले ही भारत का स्थान 22 देशों की इस सूची में 4 हत्याओं के कारण 10वां हो, पर हमारे देश और पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी पैनी नजर रखने वाले इन आंकड़ों पर कभी भरोसा नहीं करेंगें। पर्यावरण संरक्षण का काम भारत से अधिक खतरनाक शायद ही किसी देश में हो। यहाँ के रेत और बालू माफिया हरेक साल सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं, जिसमें पुलिस वाले और सरकारी अधिकारी भी मारे जाते हैं। पर, इसमें से अधिकतर मामलों को दबा दिया जाता है, और अगर कोई मामला उजागर भी होता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण का नहीं बल्कि आपसी रंजिश या सड़क हादसे का मामला बना दिया जाता है। इसी तरह, अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं। स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उसे माओवादी, नक्सलाईट या फिर उग्रवादी का नाम देकर एनकाउंटर में मार गिराया जाता है, या फिर देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया जाता है। आदिवासी और पिछड़े समुदाय के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले पर्यावरण और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी आतंकवादी और देशद्रोही बताकर जेल में ही मरने को छोड़ दिया जाता है। फादर स्टेन स्वामी का उदाहरण सबके सामने है। दरअसल जिस भीमा-कोरेगांव काण्ड का नाम लेकर दर्जन भर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सरकार ने साजिश के तहत आतंकवाद का नाम देकर जेल में बंद किया है, वे सभी आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार की आवाज ही बुलंद कर रहे थे। बड़े उद्योगों से प्रदूषण के मामले को भी उजागर करने वाले भी किसी न किसी बहाने मार डाले जाते हैं। इन सभी हत्याओं में सरकार और पुलिस की सहमति भी रहती है।
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यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड के विशेषज्ञों द्वारा किये गए अध्ययनों के अनुसार पिछले 20 वर्षों के दौरान (2001 से 2020 तक) भारत में लगभग 20 लाख हेक्टेयर का बृक्ष आवरण समाप्त हो गया है। बृक्ष आवरण समाप्त होने का मतलब है, वनों का कटना, आग लगाने से बृक्ष का बर्बाद होना, सामाजिक वानिकी के अंतर्गत बृक्षों का काटना या फिर तेज तूफ़ान में बृक्षों का गिरना। बृक्ष आवरण समाप्त होने की दर, वर्ष 2014 के बाद से बढ़ गयी है। इसका सबसे खतरनाक तथ्य यह है कि पूर्वोत्तर राज्यों में यह दर बहुत अधिक है, और यह दर लगातार बढ़ती जा रही है। पिछले 20 वर्षों के दौरान देश का जितना क्षेत्रों से बृक्षों का आवरण समाप्त हो गया है, उसमें से 77 प्रतिशत क्षेत्र देश के पूर्वोत्तर राज्यों में है, और यदि केवल वर्ष 2020 की बात करें तो यह क्षेत्र 79 प्रतिशत तक पहुँच जाता है। वर्ष 2001 से 2020 के बीच पूर्वोत्तर राज्यों की 14 लाख हेक्टेयर भूमि बृक्ष विहीन हो गयी, जबकि अकेले 2020 में यह क्षेत्र 110000 हेक्टेयर रहा।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के शोध छात्र विजय रमेश ने वर्ष 2020 में देश के वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोग में परिवर्तित करने का गहन विश्लेषण किया है, और इनके अनुसार पिछले 6 वर्षों के दौरान सरकार तेजी से वन क्षेत्रों में खनन, उद्योग, हाइड्रोपॉवर और इन्फ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने की अनुमति दे रही है, जिससे वनों का उपयोग बदल रहा है और इनका विनाश भी किया जा रहा है। इस दौर में, यानि 2014 से 2020 के बीच पर्यावरण और वन मंत्रालय में वन स्वीकृति के लिए जितनी भी योजनाओं ने आवेदन किया, लगभग सबको (99.3 प्रतिशत) स्वीकृति दे दी गई, या फिर स्वीकृति की प्रक्रिया में हैं, जबकि इससे पहले के वर्षों में परियोजनाओं के स्वीकृति की दर 84.6 प्रतिशत थी। यही नहीं, बीजेपी की सरकार वनों के साथ कैसा सलूक कर रही है, इसका सबसे उदाहरण तो यह है कि 1980 में लागू किये गए वन संरक्षण क़ानून के बाद से वर्ष 2013 तक, जितने वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोगों के लिए खोला गया है, इसका 68 प्रतिशत से अधिक वर्ष 2014 से वर्ष 2020 के बीच स्वीकृत किया गया। वर्ष 1980 से 2013 तक कुल 21632.5 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोग के लिए स्वीकृत किया गया था, पर इसके बाद के 6 वर्षों के दौरान ही 14822.47 वर्ग किलोमीटर के वन क्षेत्र को गैर-वन गतिविधियों के हवाले कर दिया गया।
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इस वर्ष के लगातार चक्रवात, हिमस्खलन, चरम गर्मी, भयानक बाढ़, भूस्खलन, बादलों का फटना, और आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं से जूझ रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक पिछले अनेक वर्षों से चेतावनी दे रहे है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के प्रभाव से चरम प्राकृतिक आपदाएं साल-दर-साल बढ़ रही हैं और भारत ऐसे देशों में शीर्ष पर है जहां सबसे अधिक असर होगा। पर, हमारी सरकार जलवायु परिवर्तन की माला तो बहुत जपती है, पर इसे नियंत्रित करने के उपायों में फिसड्डी है। हमारे देश की तुलना में इस क्षेत्र में बेहतर काम एशिया-प्रशांत खेत्र के अनेक छोटे देश कर रहे हैं। हमारी सरकार के पास जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय हैं – अमेरिका, यूरोपीय देशों और चीन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना और सौर ऊर्जा में कहीं न दिखने वाली उपलब्धियों का डंका पीटना। सौर ऊर्जा के नशे में चूर सरकार कोयले के उपयोग को लगातार बढ़ावा देती जा रही है।
प्रधानमंत्री जी जब हाथ हवा में लहराकर पर्यावरण संरक्षण पर प्रवचन दे रहे होते हैं, उसी बीच में कुछ जंगल कट जाते हैं, कुछ लोग पर्यावरण के विनाश और प्रदूषण से मर जाते हैं, कुछ जनजातियाँ अपने आवास से बेदखल कर दी जाती हैं, कुछ प्रदूषण बढ़ जाता है और नदियाँ पहले से भी अधिक प्रदूषित हो जाती हैं।
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