बीजेपी के पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ, इसके राजनीतिक संरक्षक आरएसएस और इन दोनों द्वारा समर्थित जम्मू की संगठन प्रजा परिषद की भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय में कोई भूमिका नहीं थी। लेकिन नए संगठन 26 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की विरासत को हथियाने का कुचक्र रचने में पीछे नहीं और इसी वजह से इस दिन को इस नए केंद्र शासित प्रदेश में अवकाश घोषित किया गया है। काबिले गौर है कि ऐसी खुराफात जम्मू-कश्मीर के विलय में वाकई अहम भूमिका निभाने वाले शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू या फिर पाकिस्तानी काबाइलियों से दो-दो हाथ करने वाले नेशनल कांफ्रेंस के हजारों- हजार कार्यकर्ताओं के दिमाग में कभी नहीं आई। इससे पहले कि दिल्ली में बैठी मौजूदा सरकार सुरंगों और पुलों के नाम बदलकर भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय के इतिहास को और विकृत कर दे, इनकी वास्तविक भूमिका पर गौर करना जरूरी है।
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जब संघीय सरकार ने विलय पत्र की शर्तों के मुताबिक संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किया, तब इन संगठनों ने इसे हटाने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। बाद में, जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ दिल्ली समझौते पर दस्तखत किए तो इन संगठनों ने इसका भी विरोध किया। जैसा कि प्रचारित किया जाता है, यह मानना सरासर गलत है कि जम्मू के नेताओं के आंदोलन का उद्देश्य भारत के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य के एकीकरण को सुदृढ़ करना था। उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था। वे मुख्यतः जम्मू को कश्मीर से अलग करना और फिर कश्मीर का जबरन विलय चाहते थे।
प्रख्यात इतिहासकार, प्रोफेसर एलेस्टेयर लैंब के अनुसार, प्रजा परिषद आंदोलन ने जम्मू को कश्मीर से अलग करने की मांग की थी। वे इसे एक अलग राज्य अथवा पंजाब के हिस्से के रूप में देखना चाहते थे। ‘ (एलेस्टेयर लैंब, कश्मीर: ए डिस्प्यूटेड लीगेसी, पृष्ठ197)
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नेहरू ने इसके बारे में चेतावनी भी दी थी। उन्होंने 27 जनवरी,1953 को मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र में प्रजा परिषद की इस सोच को ‘मूर्खता पूर्ण या कुटिलता का एक नमूना’ करार दिया था। नेहरू ने जम्मू को अलग राज्य बनाने के विचार को सरासर गलत बताया: “इस आंदोलन का उद्देश्य दिल्ली समझौते के लिए मुश्किलें पैदा करना है। यह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों ही दृष्टिकोण से बुरा है। जम्मू प्रांत को भारत के साथ ज्यादा मजबूती से जोड़ने का नतीजा जम्मू और कश्मीर में अशांति बढ़ेगी और इसकी वजह से उल्टे परिणाम ही निकलेंगे। हकीकत तो यह है कि इस तरह बना जम्मू प्रांत भी टूट सकता है। और इससे कश्मीर घाटी में हमारी स्थिति बेहद कमजोर हो जाएगी।”
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इन संगठनों की जम्मू को कश्मीर से अलग करने की योजना के बारे में कम ही लोग जानते हैं लेकिन अगर ऐसा हो जाता तो इससे जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत को ही बल मिलता और इस तरह भारत की धर्मनिरपेक्ष साख को नुकसान पहुंचता। जिन्ना के सिद्धांत ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में सांप्रदायिक सोच को जगह दी, इसमें दो राय नहीं। 1 जनवरी, 1952 को कलकत्ता में एक भावनात्मक भाषण में नेहरू ने इसके बारे में भी चेतावनी दी थी: “हमारी धर्मनिरपेक्ष नीतियों की इससे बड़ी जीत नहीं हो सकती कि हमने कश्मीर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। लेकिन जरा सोचिए कि अगर जनसंघ या कोई और सांप्रदायिक पार्टी कश्मीर में होती तो क्या होता। कश्मीर के लोगों का कहना है कि वे इस सांप्रदायिकता से तंग आ चुके हैं। उन्हें ऐसे देश में क्यों रहना चाहिए, जहां जनसंघ और आरएसएस लगातार उन पर अविश्वास कर रहे हैं? वे कहीं और जाएंगे और हमारे साथ नहीं रहेंगे।“ (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू, खंड 17, पृष्ठ 78)
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नेहरू जम्मू आंदोलन से बड़े दुखी थे। उनका मानना था कि यह कश्मीर को भारत से दूर कर रहा है। 6 जुलाई, 1952 को दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्वावधान में आयोजित एक जनसभा में नेहरू ने कहाः “पिछले कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने कश्मीर में जो कुछ किया है, उससे मैं हैरान हूं। बुनियादी तौर पर उनकी रणनीति कश्मीर में मौजूदा सत्ता को बदनाम करना है। ऐसे समय जब हम सभी को एक साथ चलने की जरूरत है, वे लोगों को बांटने के बीज बो रहे हैं। ऐसा करने से किसी को क्या फायदा होता है? प्रजा परिषद जोर-शोर से दावा करती है कि कश्मीर का भारतीय संघ में विलय होना चाहिए। हम भी यही चाहते हैं। लेकिन वे जो रणनीति अपना रहे हैं, उसके नतीजे आसानी से देखे जा सकते हैं। पाकिस्तानी समाचार पत्रों में जम्मू प्रजा परिषद के संदर्भों को देखा जा सकता है। पाकिस्तान जानता है कि कश्मीर में असंतोष पैदा करके प्रजा परिषद उसका ही काम आसान कर रही है।” (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू, दूसरी श्रृंखला, खंड 18, पृष्ठ 21)
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नेहरू ने कश्मीर के जबरन विलय के खिलाफ चेतावनी दी थी जिसकी जनसंघ के नेता वकालत कर रहे थे। 26 जून, 1952 को लोकसभा में अपने भाषण में उन्होंने कहाः “यह मत सोचिए कि आप उत्तर प्रदेश, बिहार या गुजरात के किसी हिस्से के संदर्भ में बात कर रहे हैं। आपका साबका एक ऐसे क्षेत्र से है जिसकी ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से एक खास पृष्ठभूमि है। अगर हम अपने स्थानीय विचारों और पूर्वाग्रहों को बात-बात में लाएंगे तो कभी भी एकजुट नहीं हो सकेंगे। हमें दूरदर्शी होना पड़ेगा। यह समझना होगा कि असली एकीकरण तो दिलो दिमाग से होता है, न कि लोगों पर थोपे गए किन्हीं शर्तों से।”
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यह आम समझ की बात है कि अगर संकट के शुरू में ही कश्मीर में जनमत संग्रह होता तो यह भारत के पक्ष में जाता और यही वजह है कि जब जवाहरलाल नेहरू का संदेश लेकर माउंटबेटन ने 1 नवंबर, 1947 को जिन्ना के सामने संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में कश्मीर में जनमत संग्रह की पेशकश रखी तो वह इसके लिए तैयार नहीं हुए। लेकिन अफसोस की बात है कि जनसंघ और प्रजा परिषद की सांप्रदायिक सियासत का नतीजा यह रहा कि जल्दी ही यह स्थिति पलट गई और अगर 1953 में कहीं जनमत संग्रह हो गया होता तो यह भारत के खिलाफ जाता। दुखी नेहरू ने अपने मित्र बी.सी. रॉय को 29 जून, 1953 को लिखे पत्र में कहा भी कि “अगर सांप्रदायिक हिंदू जम्मू में कोई आंदोलन चला सकते हैं तो सांप्रदायिक मुस्लिम कश्मीर में क्यों नहीं? अब तो ऐसे हालात हैं कि अगर रायशुमारी हो गई तो कश्मीर के ज्यादातर मुसलमान हमारे खिलाफ वोट करेंगे।”
1953 तक जनसंघ और आरएसएस समर्थित प्रजा परिषद ने जम्मू-कश्मीर को कगार तक पहुंचा दिया। जम्मू को कश्मीर से अलग करने के असफल प्रयासों के लगभग 67 साल बाद उसके मौजूदा उत्तराधिकारियों ने 5 अगस्त, 2019 को लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया। अगर इसके नतीजे भी उतने ही बुरे हों तो हैरत नहीं।
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