हाल ही में म्यांमार के सैन्य शासन ने आपात स्थिति को दो वर्ष के लिए बढ़ा दिया। अब म्यांमार में अगस्त 2023 से पहले नए लोकतांत्रिक चुनावों की संभावना बहुत कम हो गई है। हाल के चुनावों के चुने हुए प्रतिनिधियों में से अधिकांश को तो जेल में ही भेज दिया गया है। इनमें देश की प्रमुख नेता सू ची भी हैं और उनकी नैशनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी के अन्य वरिष्ठ सदस्य भी है। जिस तरह सू ची जैसे शीर्ष के नेताओं को तरह-तरह के मनगढ़ंत आरोपों और मुकदमों से घेरा जा रहा है, उससे कोई संभावना नहीं नजर आती है कि सैन्य शासन उन्हें निकट भविष्य में सत्ता में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान देना चाहते हैं।
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इस वर्ष जनवरी के महीने तक म्यांमार में उम्मीद का माहौल था। हाल के चुनाव में चुने गए प्रतिनिधि अगले माह अपनी नई संवैधानिक जिम्मेदारियों को संभालने के लिए तत्पर थे। पर इससे पहले कि वे ऐसा कर सकें 1 फरवरी को सैन्य अधिकारियों ने बहुत सख्त कार्यवाही करते हुए इनमें से अनेक प्रतिनिधियों को गिरफ्तार कर लिया, उनपर प्रतिबंध लगा दिए और स्वयं सत्ता संभाल ली।
उसके बाद से हालात निरंतर गंभीर होते गए हैं। आम लोगों ने इस लोकतंत्र को दबाने की कार्यवाही को स्वीकार नहीं किया है और दमन के तमाम कुप्रयासों के बावजूद जन-विरोध और प्रदर्शन जारी हैं। इन विरोध-प्रदर्शनों के प्रति सरकार की दमन और अत्याचार की कार्यवाहियों में लगभग 800 से 1000 लोग मारे गए हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 6000 से 8000 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। लगभग 100 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है, अनेक ने भागकर अपना बचाव किया है। यहां तक कि स्वास्थ्यकर्मियों को भी नहीं बख्शा गया है।
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लोकतंत्र पर इस हाल के हमले से पहले भी म्यांमार की अनेक पूर्व सरकारों ने अनेक अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के प्रति दमन की नीति अपनाई है। इस कारण विशेषकर रोहिंग्या समुदाय के लोगों को बड़ी संख्या में विस्थापित होकर बांग्लादेश जैसे कुछ पड़ोसी देशों के शरणार्थी शिविरों में आश्रय लेना पड़ा। थाईलैंड के शिविरों में भी बढ़ती संख्या में अन्य शरणार्थी पहुंच रहे हैं और कुछ शरणार्थी भारत के उत्तर पूर्व क्षेत्र में भी आ रहे हैं।
लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्षरत म्यांमार के कुछ वरिष्ठ नागरिकों ने एक अच्छी पहल यह की है कि उन्होंने नए सिरे से इन अल्पसंख्यक समुदायों की समस्याओं को और उनकी मांगों को समझने का प्रयास किया है ताकि लोकतंत्र की स्थापना के लिए जो मुख्यधारा के प्रयास हैं उनमें इन अल्पसंख्यकों की मांगों को भी जोड़ा जा सके। इस तरह जो व्यापक एकता और एक-दूसरे को समझने की स्थिति बनेगी वह भविष्य में म्यांमार के लिए निश्चय ही उपयोगी सिद्ध होगी।
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फिलहाल इस समय एक बड़ी चिंता यह है कि टकराव के इस दौर में म्यांमार के बहुत से लोगों के लिए गंभीर अभाव की स्थिति न उत्पन्न हो जाए। जहां तक खाद्य स्थिति का सवाल है, तो अपने प्रमुख खाद्य चावल के पर्याप्त उत्पादन की दृष्टि से म्यांमार की ठीक स्थिति रही है और यहां से चावल का निर्यात भी होता रहा है। पर मौजूदा अशान्त समय में संकेत मिले हैं कि कुछ स्थानों में खाद्य उत्पादन कम हो सकता है। देश के स्तर पर पर्याप्त उपलब्धि हो तो भी टकराव की स्थिति में कुछ स्थानों पर खाद्यान्न पंहुचाने में कठिनाई आने की संभावना है।
दूसरी ओर दवाओं की कमी को लेकर भी चिंता है। अन्य देशों की तरह म्यांमार भी महामारी के दौर से गुजर रहा है और इस स्थिति में टकराव और दमन की ओर अधिकारियों का ध्यान केंद्रित हो जाए तो स्वास्थ्य और चिकित्सा व्यवस्था को उचित प्राथमिकता देने की जिम्मेदारी पीछे पड़ सकती है।
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वैसे सैन्य शासकों को दमनकारी नीतियों के बावजूद अनेक पड़ौसी देशों का सहयोग मिल रहा है, विशेषकर चीन का, अतः जरूरी उत्पादों का आयात वह कर सकेगा। हालांकि संयुक्त राज्य अमेरिका व यूरोपीयन यूनियन के कुछ देशों के विरोध के कारण सैन्य शासन की परेशानियां बढ़ सकती हैं। प्रतिबंध लग सकते हैं, पर चीन के सहयोग से सैन्य शासक इन कठिनाईयों को झेलने में समर्थ हैं। पर दूसरी ओर चीन भी अपने इस सहयोग की कुछ कीमत तो सैन्य शासकों से जरूर वसूलेगा, और वह कीमत महंगी भी सिद्ध हो सकती है।
प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से म्यांमार समृद्ध देश है। यहां तेल और गैस के भंडार हैं, विशेष तरह के रत्न व मोती आदि हैं। इसके बावजूद यदि पश्चिमी देश विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका कड़ा रवैया अपनाएं तो अभी अपनी सभी जरूरतों को आयात करने में उसे कठिनाई आ सकती है। तिस पर सैन्य शासकों का यह प्रयास होगा कि उनके समर्थकों व सैनिकों के परिवारों की जरूरतों को प्राथमिकता के
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आधार पर पूरा किया जाए। इस स्थिति में खाद्य, दवा, चिकित्सा सामग्री आदि की कमी बहुत से लोगों के लिए उत्पन्न हो सकती है। अधिक चिंता इस बात की है कि दूर-दराज के, सीमान्त व तनावग्रस्त क्षेत्रों में भुखमरी की गंभीर समस्या न उत्पन्न हो। एक अन्य बड़ी चिंता शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों के बारे में है। विशेषकर रोहिंग्या समुदाय के लोगों को राहत पहंुचाना बहुत जरूरी है। क्या निकट भविष्य में यहां ऐसे हालात बन सकेंगे कि वे अपने मूल निवासों में लौट सकें। यह एक बड़ा सवाल है जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई बार उठ चुका है। इसके अतिरिक्त मानवाधिकार संगठन राजनीतिक बंदियों के सवाल को उठा रहे हैं। पिछले छः महीने में म्यांमार में राजनीतिक बंदियों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। क्या इन्हें न्याय मिलेगा, या मनगढ़ंत मुकदमों में फंसाया जाएगा।
म्यांमार में कठिन परिस्थितियों में लोकतंत्र का संघर्ष जारी है। इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त समर्थन मिलना चाहिए। इस समर्थन से सैन्य शासकों पर इस तरह का दबाव पड़ना चाहिए कि वे शीघ्र लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करें व सू ची सहित अन्य राजनीतिक बंदियों को रिहा करें व खाद्य व स्वास्थ्य जैसी प्राथमिकताओं पर समय रहते जरूरी ध्यान दें।
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