धार्मिक और तमाम सामुदायिक और वैचारिक विविधता वाले राजनीतिक दलों के कारण समाज का ध्रुवीकरण कम होता है, समाज में स्थिरता रहती है और प्रजातांत्रिक गतिविधियाँ जीवंत रहती हैं। इससे प्रजातंत्र मजबूत रहता है और ऐसे दल छोटी राजनैतिक पार्टियों में एक समन्वय स्थापित करने का काम भी करते हैं। इस अध्ययन को स्विस पोलिटिकल साइंस रिव्यु नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है और इसे क्वीन्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक टीमोफी अगरीन और यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर के वैज्ञानिक हेनरी जरेट ने किया है। इसके लिए इन वैज्ञानिकों ने पिछले वर्ष उत्तरी आयरलैंड, बेल्जियम, बोस्निया-हेज़ेगोविना, लेबनान और दक्षिणी टायरॉल में संपन्न चुनावों का बारीकी से अध्ययन किया है। इन सभी देशों में धर्म, सम्प्रदाय और समुदायों के बीच व्यापक विभाजन है।
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इस अध्ययन के चौंकाते नहीं हैं क्योंकि इस दौर में पूरी दुनिया में राजनीति में राष्ट्रवाद, व्यक्तिवाद, निरंकुश तानाशाही, लोकलुभावनवाद, धार्मिक उन्माद और सामाजिक ध्रुवीकरण का बोलबाला दिखता है और जीवंत प्रजातंत्र सिमटता जा रहा है। ऐसे में वैचारिक विविधता वाले राजनैतिक दलों की सत्ता में भागीदारी भी सिमटती जा रही है, फिर इनसे सामाजिक स्थिरता की बात ही बेईमानी लगती है। जिन विचारों को जनता ही नकार रही हो, ऐसे दल समाज पर या फिर प्रजातांत्रिक व्यवस्था और कार्यशैली पर कैसे प्रभाव डाल सकते हैं?
पूरी दुनिया में जीवंत प्रजातंत्र मृतप्राय हो चला है और निरंकुश सत्ता का दौर चल रहा है। पिछले एक दशक के दौरान जीवंत प्रजातंत्र 41 देशों से सिमट कर 32 देशों में ही रह गया है, दूसरी तरफ निरंकुश शासन का विस्तार 87 और देशों में हो गया है। दुनिया की महज 8.7 प्रतिशत आबादी जीवंत प्रजातंत्र में है। प्रजातंत्र का सबसे अधिक और अप्रत्याशित अवमूल्यन जिन देशों में हो रहा है, उनमें भारत, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका भी शामिल हैं। हंगरी, तुर्की, अर्जेंटीना, फिलीपींस भी ऐसे देशों की सूचि में शामिल हैं जहां प्रजातंत्र के आधार पर निरंकुश सत्ता खड़ी है। जीवंत प्रजातंत्र की मिसाल माने जाने वाले यूनाइटेड किंगडम में आज के दौर में जन-आंदोलनों को कुचला जा रहा है और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश है।
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प्रजातंत्र के अवमूल्यन का सबसे बड़ा कारण निरंकुश सत्ता द्वारा देशों के राजनैतिक ढाँचे को खोखला करना, चुनावों में व्यापक धांधली, निष्पक्ष मीडिया को कुचलना, संवैधानिक संस्थाओं पर अधिकार करना और न्यायिक व्यवस्था पर अपना वर्चस्व कायम करना है। स्टॉकहोम स्थित इंस्टिट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्शन असिस्टेंस के अनुसार दुनिया में जितने देशों में प्रजातंत्र है उनमें से आधे में इसका अवमूल्यन होता जा रहा है। कुल 173 देशों की शासन व्यवस्था के आकलन के बाद रिपोर्ट में बताया गया है कि महज 104 देशों में प्रजातंत्र है और इसमें से 52 देशों में इसका अवमूल्यन होता जा रहा है। इनमें से 7 देश – अमेरिका, एल साल्वाडोर, ब्राज़ील, हंगरी, भारत, पोलैंड और मॉरिशस - ऐसे भी हैं, जिनमें यह अवमूल्यन सबसे तेजी से देखा जा रहा है।
स्विस पोलिटिकल साइंस रिव्यु नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में इन तथ्यों को नकारा नहीं गया है, बल्कि बताया गया है कि विविधता वाले राजनैतिक दलों को भले ही जनता सत्ता से दूर करती जा रही हो, पर ऐसे दलों के प्रभाव सत्ता से अधिक समाज पर पड़ते हैं। ऐसे राजनैतिक दलों का प्रभाव चुनाव परिणामों से परे है, क्योंकि ऐसे दल समाज के हरेक तबके की बात करते हैं और जाति या सम्प्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज की बात करते हैं। इनकी नीतियों को देखकर बहुसंख्यकवाद, राष्ट्रवाद या विशेष धर्म से जुड़े राजनैतिक दल भी पूरे समाज के लिए नीतियों और योजनाओं का ऐलान करते हैं – भले ही यह उनके राजनैतिक दलों की नीतियों या उद्देश्यों के बिलकुल विपरीत ही हो। जाहिर है, इसका लाभ पूरे समाज को मिलता है।
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वर्ष 2022 में उत्तरी आयरलैंड में संपन्न हुए स्थानीय चुनावों में सबसे अधिक विविधता वाला राजनैतिक दल, द अलायन्स पार्टी ऑफ़ नोर्दर्न आयरलैंड, तीसरे स्थान पर रहा, पर एक सम्प्रदाय या धर्म का प्रचार करते सभी दलों ने अपनी विचारधारा के विरुद्ध जाकर चुनाव जीतने के लिए इस दल की नीतियों को अपनाया, और चुनाव जीतने के बाद भी इसी दिशा में काम किया। यहाँ तक कि, गर्भपात के कट्टर विरोधी राजनैतिक दलों ने भी द अलायन्स पार्टी ऑफ़ नोर्दर्न आयरलैंड के इसके समर्थन के विचारों को अपनाया। हमारे देश में भी भले ही कांग्रेस सत्ता से दूर हो और बीजेपी लगातार इसकी नीतियों और कार्यक्रमों का मजाक उड़ाती हो, पर सच तो यही है कि केवल नाम बदलकर कांग्रेस के समय के लगभग सभी कार्यक्रम बीजेपी को चलाने पड़ रहे हैं और इसका लाभ समाज के हरेक वर्ग तक पहुँच रहा है।
पार्टी पॉलिटिक्स नामक जर्नल में प्रकाशित दूसरे अध्ययन के अनुसार यह एक बड़ा छलावा है कि प्रजातंत्र में राजनैतिक दल जनता की आकांक्षाओं और मांगों को अपना मुद्दा बनाते हैं।
हमेशा यही माना जाता रहा है कि राजनैतिक दल जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप अपना एजेंडा सेट करते हैं, पर बिंघमटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक रोबिन बेस्ट की अगुवाई में किये गए अध्ययन से स्पष्ट है कि राजनैतिक दल ही जनता के मुद्दे निर्धारित करते हैं और फिर इसके अनुसार उनके कट्टर समर्थक राजनैतिक दलों की विचारधारा को जनता तक पहुंचाते हैं। इसके बाद जनता अपना मुद्दा तय करती है। सामाजिक ध्रुवीकरण को पहले जनता मुद्दा नहीं बनाती, बल्कि राजनैतिक दल बनाते हैं और फिर जनता इस दिशा में बढ़ती है। इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने अमेरिका के बाहर भारत समेत 20 प्रजातांत्रिक देशों में वर्ष 1971 से 2019 के बीच संपन्न हुए 174 चुनावों का बारीकी से विश्लेषण किया है। अमेरिका को इस अध्ययन में शामिल नहीं करने का कारण इस अध्ययन के लेखकों ने बताया है कि इस देश में दोनों प्रमुख राजनैतिक दल और उनके समर्थक लगभग हरेक विषय पर पहले से ही चरम ध्रुवीकरण के शिकार हैं। इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि 174 चुनावों के विश्लेषण के बाद भी कहीं यह साबित नहीं हो पाया कि सामाजिक और वैचारिक ध्रुवीकरण की शुरुआत जनता करती है।
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प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकेडेमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में वर्ष 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया में राजनैतिक ध्रुवीकरण अब जितना है उतना पिछले 50 वर्षों में कभी नहीं रहा। इस ध्रुवीकरण के कारण लोकलुभावनवादी राजनैतिक दलों को सामान्य जनता का भी समर्थन मिलने लगा है जिससे प्रजातंत्र पर खतरा बढ़ता जा रहा है। ऐसे राजनैतिक दलों को लोकप्रियता मिलाने और सत्ता तक पहुँचाने का सबसे बड़ा कारण समाज में बढ़ती सामाजिक और आर्थिक असमानता है। इस अध्ययन में अमेरिका में ट्रम्प, भारत में नरेंद्र मोदी, फ्रांस में लापेन, ब्राज़ील में बोल्सेनारो और यूनाइटेड किंगडम में ब्रेक्सिट आंदोलन की लोकप्रियता का उदाहरण भी दिया गया है। इस अध्ययन के अनुसार समाज में तमाम असमानताओं के कम होने पर ध्रुवीकरण वाले राजनैतिक दलों का अस्तित्व खतरे में आ जाता है इसीलिए ऐसे राजनैतिक दलों की सत्ता तक पहुँचाने के बाद समाज में असमानता और अस्थिरता बढ़ाने की मंशा रहती है।
इतना तो स्पष्ट है कि अब नए दौर में जनता को पहले से अधिक जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि राजनैतिक दल केवल अपना हित साध रहे हैं और जनता को गुमराह करते जा रहे हैं। कुछ देशों में तो लम्बे संघर्ष के बाद प्रजातंत्र वापस आ गया है, पर क्या दूसरे देशों में ऐसा कभी होगा?
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