दिल्ली अफवाहों की भी राजधानी है। यहां से निकलकर अफवाहें सारे देश में फैल जाती हैं। लगता है दिल्ली देश पर शासन नियम-कायदों से नहीं, अफवाहों से करती है। इन अफवाहों से कई सार्वजनिक छवियां बनतीं, कई बिगड़ती रहती हैं। कई ट्रोलिंग एजेंसियां हैं, खासकर सत्तारूढ़ राजनीतिक दल की जिनका दैनिक काम दिन भर, मन भर अफवाहें फैलाना है। अफवाह का स्रोत पता करना कठिन होता है, पर फैल वह हर जगह जाती है- सरकारी विभागों में, अखबारों और चैनलों पर, रेस्त्रांओं में, चाय की दुकानों पर, सेठों-मुनीमों के यहां, अफसरों और बाबुओं की जमात में, अकादमिक परिसरों में, बुद्धिजीवियों आदि सभी तबकों में। ऐसा लगता है कि शीर्ष नेता से लेकर रेहड़ीवाले तक का पेट नहीं भरता, अगर उसने किसी भी दिन दो-चार नई-ताजी अफवाहें भकोस न ली हों।
इन दिनों दिल्ली भीषण गर्मी की चपेट में रहा है: इतनी तेज असह्य गर्मी कम-से-कम पिछले तीसेक साल के हमारे अनुभव मे पहले कभी नहीं पड़ी। आम तौर पर लोग घर से बाहर निकलने से बचते रहे हैं- सारे वक्त थकान-सी लगती है और आलस्य भी आता है। लेकिन अफवाहों के उत्पादन और प्रसार में कोई मंदी नहीं आई है। जितनी गर्मी है, उससे अधिक गरम अफवाहें लू में भी घर-घर तैर रही हैं, फेरा लगा रही हैं।
Published: undefined
हैं तो बहुत, पर फिलमुकाम तीन पर ध्यान दें। पहली है कि सत्तारूढ़ दल, उसके शीर्ष नेताओं ने कई सांसदों को येन-केन प्रकारेण अपने में शामिल करने का इंतजाम कर लिया है। एकाध महीने में इस तरह उसका बहुमत हो जाएगा और वह सत्ता में रहने के लिए अपने सहयोगी एलायेंस के दलों पर निर्भरता से मुक्त हो जाएगी। अनेक राज्यों में उसने ऐसा पहले सफल और दबंग तरीके से किया है।
दूसरी अफवाह यह है कि पहली अफवाह के कारण नए प्रशासन की शैली में कोई अंतर नहीं आएगा और वह पिछले दस सालों से जो करता आया है, वही करता रहेगा। तीसरी अफवाह यह है कि नई सरकार कुछ महीने के बाद गिर जाएगी क्योंकि उसकी कई नीतियों और कार्रवाइयों से सहयोगी दल असंतुष्ट होंगे और वे साथ छोड़ देंगे।
इन अफवाहों के पीछे एक बात साफ है। वह यह कि हमारे सामाजिक आचरण की सारी मर्यादाएं तज दी गई हैं। देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद में खरीद-फरोख्त का काम हो सकता है, तो हम इसे राजनीतिक लेन-देन समझते हैं जो होता ही रहता है। राजनीति की नीति शून्यता हमें बेचैन नहीं करती।
यह सोचना थोड़ा डरावना लगता है कि हम एक ऐसा लोकतंत्र बनते जा रहे हैं जिसमें सार्वजनिक अंतःकरण, सामाजिक मर्यादा और नैतिक कर्म की जगह बहुत घट रही है।
Published: undefined
इधर सररियलिज्म पर एक नई किताब पढ़ने का सुयोग हुआ, तो पता चला कि यह वर्ष उसकी जन्मशती का है। फ्रेंच कवि और इस आंदोलन के नेता-प्रवक्ता आन्द्रे ब्रेतां ने अक्तूबर, 1924 में उसका आधिकारिक मेनीफेस्टो प्रकाशित किया था जिसे उसकी शुरुआत माना जा सकता है। इसका प्रभाव चित्रकला, कविता, रंगमंच, फैशन वेशभूषा, जीवनशैली आदि विचार अनेक क्षेत्रों पर पड़ा था।
भले इसके नाम में रियलिज्म शब्द का प्रयोग है, यह तब तक प्रभावशाली यथार्थवाद के विरुद्ध आंदोलन था जो यूरोप, ब्रिटेन और अमेरिका में फैलने के अलावा लगभग विश्वव्यापी आंदोलन हो गया। उसका स्थायी प्रभाव पड़ा और उससे अनेक विचारों के लोग शामिल हुए। उसका आग्रह सच्चाई को, मनुष्य के विभिन्न अनुभवों को, बिम्बों-प्रतीकों और मनोवृत्तियों को, उसके रूढ़ हुए रूपों को दरकिनार या ध्वस्त कर, नए ढंग से देखना-समझना और व्यक्त करना। उसमें विचित्रता, वि-धर्मिता, प्रयोग की प्रमुखता थी।
यह वर्ष भारत की आधुनिक कला के चार मूर्धन्यों- सूज़ा, रामकुमार, गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन की जन्मशतियों का है। रज़ा फाउंडेशन इसी महीने के अंत में अपने अभिलेखागार से सूज़ा, राम कुमार और गायतोंडे द्वारा रज़ा को और रज़ा द्वारा उनको लिखे गए पत्रों की एक प्रदर्शनी दिल्ली में त्रिवेणी में आयोजित कर रहा है।
Published: undefined
फिर उधर अक्तूबर, 2024 में विजय देवनारायण साही की जन्मशती पड़ रही है। वह कवि, आलोचक, विचारक, समाजवादी कार्यकर्ता, भदोही के बुनकर आंदोलन के प्रणेता और संपादक आदि रहे थे। उन पर एक बड़ा आयोजन ‘समय और साक्षी’ होने जा रहा है। उनकी समग्र कविताओं का प्रकाशन भी होगा। इसी वर्ष उनकी कम-से-कम दो जीवनियां भी प्रकाशित होने वाली हैं जिनमें से एक उनकी बेटी सुस्मिता श्रीवास्तव लिख रही हैं।
संयोग यह भी है कि इस वर्ष जून में नेहरू जी की मृत्यु के साठ वर्ष पूरे हुए। उन पर एक विचारोत्तेजक परिसंवाद 27 मई को हुआ जिसने साबित किया कि नेहरू के विचार अब भी प्रासंगिक हैं और उन पर कई युवा अध्येता विभिन्न पक्षों पर मनोयोग और अध्यवसाय के काम कर रहे हैं।
मुक्तिबोध की मृत्यु को इस वर्ष सितंबर में साठ वर्ष हो जाएंगे और उनकी दो प्रसिद्ध पुस्तकों ‘एक साहित्यिक की डायरी’ और पहले कविता संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ के प्रकाशन को भी साठ वर्ष हो जाएंगे। याद तो यह भी कर सकते हैं कि इस वर्ष फ्रांज़ काफ़्का की मृत्यु को सौ बरस हो गए हैं और सौ बरस पहले ही ईएम फॉस्टर का क्लासिक उपन्यास ‘ए पैसेज टू इंडिया’ प्रकाशित हुआ था।
Published: undefined
हाल ही में एक थप्पड़ को लेकर बहुत चर्चा हुई है। एक सुरक्षाकर्मी स्त्री ने एक अभिनेत्री को थप्पड़ मारा। बताया जाता है वह इस अभिनेत्री के उसकी मां सहित कई सिख किसान आंदोलनकारियों को खालिस्तानी कहने, यानी सार्वजनिक रूप से गाली देने से नाराज थी और उसने मां के अपमान का बदला लिया।
राजनीति और सार्वजनिक क्षेत्र में हाथों का इस्तेमाल डराने-धमकाने, कुछ लोगों को बड़ी माला के घेरे से बाहर करने, तरह-तरह की नाटकीय मुद्राएं बनाने आदि के लिए व्यापक रूप से किया जाता है। बुलडोजर भी एक किस्म का बड़ा हाथ है जो मकानात गिराता, मलबे को हटाता है। इसकी भी चर्चा होती रहती है कि पुलिस किसके हाथों की कठपुतली बनती गई है।
एक और थप्पड़ याद आता है जो 1935 में पेरिस में हो रही ‘कांग्रेस ऑफ राइटर्स फॉर द डिफेंस ऑफ कल्चर’ के दौरान एक महारथी ने दूसरे महारथी को जड़ दिया था। मूलतः इस कांग्रेस के प्रस्तावकों में से एक और अतियथार्थवाद के नेता-प्रवक्ता फ्रेंच कवि आन्द्रे ब्रेतां ने सोवियत रूसी कथाकार इल्या एहरेनबर्ग को सीधे थप्पड़ मारे थे। वह एहरेनबर्ग द्वारा अपने एक निबंध में अतियथार्थवाद को क्रांति से विमुख बताने से क्षुब्ध थे। थप्पड़ कई मारे गए थे। नतीजन ब्रेतां का नाम वक्ताओं की सूची से हटा दिया गया। बाद में, उन्हें बोलने का मौका तो मिला, पर आधी रात को जब अधिकांश प्रतिभागी आराम करने जा चुके थे। ब्रेतां का वक्तव्य स्वयं उन्होंने नहीं दिया- उसे प्रसिद्ध फ्रेंच कवि लुई अरागां ने पढ़ा।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined