राजनीति पर बनी हर फिल्म प्रचारात्मक नहीं होती। 1950 और 1960 के दशक में बनी गहन राजनीतिक जमीन वाली फिल्मों के केंद्र में अमीर-गरीब का भेद, देशभक्ति, अमन पसंदी और राष्ट्र-निर्माण का नेहरूवादी दृष्टिकोण होता था। तुलनात्मक रूप से इधर की हिन्दी फिल्मों जैसे ‘रंग दे बसंती’, ‘पीके’ और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ ने युवाओं की हताशा, बढ़ता अंधविश्वास और गांधी की प्रासंगिकता पर चिंतन को प्रोत्साहित किया।
लेकिन हाल के दिनों में आई फिल्में देखकर लगता है कि अब राजनीतिक फिल्मों के निर्माण का भी राजनीतिकरण हो चुका है और यह दक्षिणपंथी प्रचार फैलाने का हथियार बन चुकी हैं। ‘इमरजेंसी’, ‘आर्टिकल 370’, ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’, ‘बस्तर फाइल्स’, ‘तान्हाजी: द अनसंग वॉरियर’, ‘मणिकर्णिका’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’ जैसी फिल्में खुलेआम ‘चेहरा पंथ’ (पर्सनैलिटी कल्ट) को बढ़ावा देने वाली हैं और विपक्ष यहां इतिहास को विकृत करने, गलत सूचना फैलाने और समुदायों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले के रूप में प्रचारित है। ये फिल्में बड़ी तेजी से एक खास राजनीतिक एजेंडा चला रही हैं।
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बॉलीवुड और बीजेपी की हिन्दू बहुसंख्यकवादी परियोजना के बीच के तार ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फिल्मों में साफ दिखते हैं जहां ‘अंतरात्मा’ बिना किसी संघर्ष के राजनीतिक हित के आगे आत्मसमर्पण कर देती है। सटीक सवाल उठाने की जगह वे मुसलमानों को राक्षसी साबित करती हैं और पहले से ही ध्रुवीकृत समाज में धार्मिक तनाव भड़काने का काम करती हैं। पहली फिल्म में 1990 के दशक में पाकिस्तान समर्थित विद्रोह से भाग रहे कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा दिखाई गई, जबकि दूसरी ने दिखाया कि केरल की हिन्दू महिलाओं को किस तरह इस्लाम स्वीकार करने और इस्लामी देश में शामिल होने के लिए मजबूर किया जा रहा था। दोनों ही प्रचार और नफरत के जरिये हिन्दुत्व का एजेंडा आगे बढ़ाने के बड़े उदाहरण हैं।
‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ उस सरकार का महिमामंडन करती है जिसने राजनीतिक लाभ के लिए सैनिकों के बलिदान का फायदा उठाया है। ‘तान्हाजी’, ‘मणिकर्णिका’ और ‘सम्राट पृथ्वीराज’ जैसे संशोधनवादी ऐतिहासिक तानेबाने वाली फिल्में पौराणिक कथाओं और भारत के कथित सर्वोच्चतावादी अतीत की याद दिलाती हैं। आरएसएस संस्थापक केबी हेडगेवार पर एक बायोपिक पाइपलाइन में है।
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फिल्मों और राजनीति के बीच की रेखा को धुंधला करना और आंध्र प्रदेश तथा इसकी राजनीति में एक-दूसरे के इस्तेमाल का लंबा इतिहास है। राजनीतिक संदेशों से भरी फिल्में अक्सर चुनाव से पहले मतदाताओं को प्रभावित करने के उपकरण के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं।
आंध्र प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होने की खबरों के बीच मतदाताओं के मानस पर खास राजनीतिक सोच का असर डालने वाली प्रतिस्पर्धी कहानियों वाली फिल्मों की एक श्रृंखला जनता का ध्यान खींचने को तैयार खड़ी है। उनमें सबसे प्रमुख है दो भागों वाली ‘व्यूहम’ (रणनीति) जिसमें वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) सुप्रीमो और मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी की राजनीतिक यात्रा का महिमामंडन तो है ही, यह उनके प्रतिद्वंद्वियों विशेषकर तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू को खलनायक के रूप में पेश करती है।
राम गोपाल वर्मा निर्देशित ‘व्यूहम’ एक सपाट राजनीतिक एजेंडे वाली राजनीतिक थ्रिलर है। कानूनी बाधाओं का सामना करते हुए तेलंगाना उच्च न्यायालय द्वारा इसकी रिलीज को अस्थायी रूप से निलंबित करने के बाद फिल्म आखिरकार 24 फरवरी को स्क्रीन पर आ ही गई।
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पूरी तरह से प्रचारात्मक यह फिल्म उन राजनीतिक हालात पर केंद्रित है जो तत्कालीन मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के सितंबर, 2009 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में अचानक निधन के बाद तब के संयुक्त आंध्र प्रदेश में व्याप्त थे। वाईएसआर के बेटे जगन को कुटिल राजनीतिक चालों के एक निर्दोष शिकार के रूप में पेश करते हुए फिल्म दर्शाती है कि कैसे कडप्पा का एक युवा सांसद अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा तैयार की गई तमाम प्रतिकूलताओं और बाधाओं को पार करते हुए एक लोकप्रिय व्यक्ति के रूप में उभरा और जनता का दिल जीतने वाला नेता बना।
टीडीपी ने अदालत का रुख करते हुए आरोप लगाया कि फिल्म पार्टी और उसके नेताओं के लिए अपमानजनक है और इसमें सोनिया गांधी सहित कांग्रेस नेताओं को भी खराब तरीके से दर्शाया गया है। एक के बाद एक शूट किए गए और 1 मार्च को रिलीज हुए ‘व्यूहम’ और इसके सीक्वल ‘शपथम’ (प्रतिज्ञा) को सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थकों द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर व्यापक रूप से प्रचारित किया जा रहा है।
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सत्तारूढ़ पार्टी के नेतृत्व का महिमामंडन करने वाली एक और फिल्म है ‘यात्रा 2’ जिसमें मलयालम सुपरस्टार ममूटी हैं। यह 2003 में पूरे आंध्र प्रदेश में वाईएसआर की 900 मील की पदयात्रा की कहानी है जिसने उन्हें 2004 के विधानसभा चुनावों में सत्ता तक पहुंचाया। ‘यात्रा 2’ आठ फरवरी को रिलीज हुई थी। दूसरी ओर, ‘राजधानी फाइल्स’ पिछले टीडीपी शासन की कल्पना के अनुसार राजधानी शहर बनाने में वाईएसआरसीपी सरकार की विफलता को उजागर करती है।
गुंटूर जिले के वाईएसआरसीपी नेता लैला अप्पी रेड्डी द्वारा इसे चुनौती दिए जाने के बाद उच्च न्यायालय के आदेश से इसकी रिलीज अस्थायी रूप से रोक दी गई थी लेकिन यह अंततः 16 फरवरी को रिलीज हो गई। यह विजयवाड़ा-गुंटूर क्षेत्र के उन किसानों का संघर्ष दर्शाती है जिन्होंने चंद्रबाबू नायडू का सपना और दिमाग की उपज अमरावती के निर्माण के लिए स्वेच्छा से अपनी जमीनें दी थीं। अब अमरावती परियोजना से किनारा कर लेने के लिए किसान मौजूदा सरकार के खिलाफ युद्ध पथ पर हैं।
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एक और बेहद विवादास्पद फिल्म है ‘रजाकार- साइलेंट जेनोसाइड इन हैदराबाद’ जो पूर्ववर्ती हैदराबाद राज्य के सातवें निजाम मीर उस्मान अली खान के शासनकाल के दौरान सेट की गई एक ऐतिहासिक बायोपिक है। फिल्म का निर्माण तेलंगाना भाजपा कार्यकारी समिति के सदस्य गुडूर नारायण रेड्डी द्वारा किया गया है जिन्होंने पिछले दिसंबर में विधानसभा चुनाव लड़ा था और हार गए थे। 1 मार्च को रिलीज यह फिल्म रजाकारों-निजाम की निजी सेना द्वारा हिन्दुओं पर की गई कथित क्रूरताओं को विस्तार से दर्शाती है।
यह सही है कि राजनीतिक फिल्में पहले भी बनती थीं लेकिन हाल की फिल्में अपने क्रूर राजनीतिक एजेंडा और विवादास्पद प्रकृति के लिए सामने आई हैं।
थोड़ा पीछे मुड़कर देखें, तो 2019 के चुनावों से ठीक पहले तेलुगु मैटिनी आइडल और पूर्व मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव पर केन्द्रित दो फिल्में संबंधित पार्टियों के एजेंडे के अनुरूप और प्रतिस्पर्धी कथाओं के साथ सामने आ ई थीं और इन्होंने काफी हलचल मचाई थी।
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‘एनटीआर: कथानायकुडु’ उनके अभिनेता-पुत्र और सत्तारूढ़ टीडीपी विधायक एन. बालकृष्ण द्वारा निर्मित दो-भाग वाली बायोपिक थी। बालकृष्ण ने पिता की भूमिका निभाई और बॉलीवुड अभिनेत्री विद्या बालन ने एनटीआर की पत्नी, दिवंगत बसवा थरकम की भूमिका निभाई।
राम गोपाल वर्मा की ‘लक्ष्मी एनटीआर’ टीडीपी संस्थापक की कहानी को उनकी दूसरी पत्नी एन. लक्ष्मी पार्वती के नजरिये से प्रस्तुत करती है जिन्हें टीडीपी सरकार किसी भी तरह पसंद नहीं करती। फिल्म एनटीआर के जीवन के अंतिम दौर पर केन्द्रित है जब वह अपनी पार्टी के भीतर अपने ही दामाद के नेतृत्व में चल रहे विद्रोह से परेशान थे। 1982 में टीडीपी की स्थापना करने वाले एनटीआर को नायडू ने अगस्त, 1995 में एक राजनीतिक तख्तापलट में अपदस्थ कर दिया था।
इस घटनाक्रम से टूटे एनटीआर का कुछ महीने बाद निधन हो गया। निधन के लगभग तीन दशक बाद भी एनटीआर की विरासत की राजनीतिक प्रासंगिकता है और उनके आदर्शों का अक्सर पार्टियों द्वारा आह्वान किया जाता है। यह विडंबना ही थी कि जिस व्यक्ति ने तेलुगु देशम पार्टी की स्थापना की और एक बार नहीं बल्कि तीन बार सत्ता पर काबिज रहा, उसे अंततः अपनी ही पार्टी से बाहर कर सत्ता छीन ली गई और वह भी अपने ही दामाद एन. चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में हुए विद्रोह में। एनटीआर का निधन जिन भी तल्ख हालात में हुआ, उनकी विरासत को तो मौजूदा टीडीपी अब भी भुना रही है।
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