गोविंद निहलानी की फिल्म ‘अर्द्ध सत्य’ की कहानी बहुत तीव्र आवेग से भरी हुई है। इस फिल्म के बाद पुलिस की पृष्ठभूमि को लेकर बनने वाली तकरीबन हर फिल्म इस या उस तरीके से ‘अर्द्ध सत्य’ का अनुसरण करती हुई नजर आती है। आश्चर्य चकित कर देने वाली यह फिल्म उस वर्ष प्रदर्शित हुई थी जब जितेंद्र की हैदराबाद के निर्माता- निर्देशकों द्वारा बनाई जाने वाली हिंदी फिल्में- ‘हिम्मतवाला’, ‘मवाली’ और ‘जस्टिस चौधरी’ बॉक्स ऑफिस पर अपना दबदबा बनाए हुए थीं। यह वही वर्ष था जब राजेश खन्ना ‘अवतार’, ‘अगर तुमन होते’ और ‘सौतन’ के जरिये हिट फिल्मों की अपनी आखिरी पारी खेल रहे थे। और हां, कमर्शियल सिनेमा में जहां तक पुलिसवालों की कहानी का सवाल है तो 1983 में ही ‘अंधा कानून’ फिल्म आई थी जिसमें हेमा मालिनी ने महिला पुलिस अफसर का किरदार निभाया था। यह वर्ष वास्तव में अपराध, दंड, कानून और बाहुबली गुंडों तथा नेताओं द्वारा उसके विनाश के घातक, निर्मम और गहन अध्ययन का वर्ष नहीं था।
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सुप्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की विशेषता सामाजिक-राजनीतिक दमन के विषयों पर काम करना रही थी। उन्होंने इससे पहले भी गोविंद निहलानी की फिल्म ‘आक्रोश’ की पटकथा लिखा थी। बतौर निर्देशक ‘आक्रोश’ गोविंद निहलानी की पहली फिल्म थी और इसी फिल्म के जरिये ओम पुरी ने अपने दमदार अभिनय से सबको आश्चर्य चकित कर दिया था। ‘आक्रोश’ में ओमपुरी का आदिवासी व्यक्ति का किरदार खुद ही अपने पर थोपे गए मौन और सन्नाटे के बीच खून जमा देने वाली विद्रोह की चीत्कार करता है।
‘अर्द्ध सत्य’ में ओमपुरी का किरदार अनंत वेलणकर एक पुसिल वाला है जो समझौता तो करता है लेकिन टकराव की स्थिति में भी रहता है। वह आखिरकार बहुत ही हिंसक विरोध करता है। फिल्म के आखिर में वह कुर्सी से उछलता है और खलनायक रामा शेट्टी (सदाशिव अमरापुरकर) की सीधे गले दबाकर हत्या कर देता है। इसके बाद वह अपनी मोटर साइकिल में बैठकर सीधे पुलिस स्टेशन जाता है और अपने ‘गुनाह’ के लिए आत्मसमर्पण कर देता है।
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और फिर क्यों नहीं? अगर हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था एक सीधी सोच रखने वाले सच्चे सीविल सर्वेंट का दम घोंट देती है तो क्यों न वह ऐसे गुंडों का जीवन ही समाप्त कर दे जो बैठे-बैठे अनंत-जैसे ईमानदार पुलिस अफसर के पूरे कॅरियर का मजाक बना देते हैं?
आज के इस समयकाल में जब जीवन में समझौते लगातार न केवल बने हुए हैं बल्कि बढ़ रहे हैं तो ‘अर्द्ध सत्य’ की कहानी प्रासंगिक हो जाती है। पुलिस बल अपनी क्रूरता के लिए अभी भी दागदार बना हुआ है। अगर कुछ पुलिस वालों की चेतना/ जमीर मरा नहीं है और वे कुछ करने तथा सोचने का साहस भी जुटाते हैं तो स्वयं को बहिष्कृत पाते हैं और यहां तक कि पागल करार दे दिए जाते हैं। याद है जब उत्तर प्रदेश के एक सरकारी अफसर ने मायावती पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था तो उसे जबरन पागलखाने पहुंचा दिया गया था?
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‘अर्द्ध सत्य’ में अनंत वेलणकर की निर्बलता भारतीय अफसरशाही की नपुंसकता है। यहां पर पुलिस फोर्स अपनी ईमानदारी के बजाय परंपरागत तरीके से काम करती है। इस फिल्म में ओमपुरी का पुलिसवाले का किरदार कोई महाननायक नहीं है। निहलानी की फिल्म का चरित्र अनंत वेलणकर फिल्मी पुलिस की छवि को ‘मुझसे न उलझना’ की अपराजित क्षेत्र से बाहर निकालकर लेकर जाता है। अनंत का चरित्र एक मध्य वर्गीय मराठी युवक का चरित्र है जो टूटा हुआ है, गांव से आता है और जिसका बचपन बहुत ही तकलीफदेह रहा है। अनंत का पिता (अमरीश पुरी जिन्होंने अपनी छोटी सी भूमिका से पूरी फिल्म में जान डाल दी थी) उसकी मां को बहुत ही धमकता और मारता था। और अनंत उन सभी से नफरत करता हुआ बड़ा हुआ जो पिता की भूमिका में दिखते थे। और फिर भी विरोधाभास यह है कि अनंत अपने काम करने की जगह पर खुद ही दबंग है। परंपरागत सिनेमा से उलट गोविंद निहलानी ने अपने नायक को जिंदगी के सभी रंगों में कैद किया।
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इस किरदार की सबसे बड़ीबात यह है कि यह अपनी वास्तविकता से हटकर कुछ नया और अलग बनने की कोशिश नहीं करता... “मैं एक सामान्य सरकारी अफसर हूं और अपनी नौकरी पूरी ईमानदारी से करने की कोशिश कर रहा हूं।”
जैसे-जैसे अनंत वेलणकर का किरदार हताशा में घिरने लगता है, यह हताशा उस मध्य वर्गीय व्यक्ति को घेरती है जो अपने काम को पूरी ईमानदारी से करना चाहता है लेकिन उसे समझौता करना पड़ता है, वैसे- वैसे हम उसकी निराशा को महसूस करने लगते हैं और बहुत ही जल्द हम उसके साथ आत्मसात हो जाते हैं।
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पूरी फिल्म की धारदार यात्रा में ज्योत्स्ना (यह किरदार स्मिता पाटिल ने निभाया) पवित्रता और सिद्धांत का प्रतीक है, कभी- कभी बहुत मासूम भी। फिल्म में ज्योत्स्ना (स्मिता पाटिल) का किरदार महिलाओं के उस वर्ग को प्रस्तुत करता है जो पूरी शिद्दत के साथ यह मानती हैं कि वे सेमिनार और मोर्चों के जरिये इस दुनिया को बदल सकती हैं।
गोविंद निहलानी की फिल्मों की दुनिया में अंध राष्ट्रवाद के लिए कोई जगह नहीं है। वह निर्मम मुंबई है जहां हर तरह का व्यक्ति अपने से नीचे वाले पर शक्ति का प्रदर्शन करता है। हमें ‘अर्द्ध सत्य’ फिल्म में बहुत सारी परपीड़क हिंसा देखने को मिलती है। 1970 और 1980 के दशक के दौरान फिल्म बनाने आए और समाज में बदलाव लाने वाले अग्रदूतों के विपरीत गोविंद निहलानी हिंसा से नहीं डरते। ‘अर्द्ध सत्य’ में वह अपने किरदार अनंत की मानसिकता के काले हिस्सों को दर्शाने से पीछे नहीं हटे।
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