किसानों की आय में गिरावट, उन पर लगातार बढ़ता कर्ज, गांवों से मौसमी पलायन और जलवायु परिवर्तन ने पिछले दो दशकों से भारत के कृषि क्षेत्र को संकट में डाल रखा है। जाहिर है, ऐसे देश में जहां बड़ी आबादी कृषि पर आधारित है, इस क्षेत्र के संकट में आने के सामाजिक-आर्थिक आयाम भी हैं। यह एक बड़ी चुनौती है और इसका सामना सरकार और समाज- दोनों को मिल-जुलकर, एक-दूसरे से सीखते हुए करना होगा।
इस सिलसिले में सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है जो नीतियां तयकर समस्या से संस्थागत तरीके से जूझती है। जाहिर है, इसमें कहीं कुछ कमी है जिसकी वजह से नतीजा वैसा नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। इसलिए समाज की ओर रुख करना चाहिए जिसमें विभिन्न इलाकों में विभिन्न लोग, संस्थाएं अपनी तरह से कृषि संकट से निकलने के उपाय कर रही हैं। अगर कागज पर नीतियां बनाने वाले जमीन पर धूल-मिट्टी से सने अनुभवों को भी ध्यान में रखें तो शायद बेहतर परिणाम मिल सके।
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इस संदर्भ में बात ‘सहज आहारम’ की। ‘सहज आहारम’ कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर और आर्थिक-सामाजिक संकट से अपने तरीके से निपटने की कोशिश कर रहा है। ‘सहज आहारम’ ऐसा ब्रांड है जो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सक्रिय है और इसका मूल मंत्र है स्थानीय स्तर पर प्राकृतिक आहार उपलब्ध कराना। इसका मानना है कि हमें ऐसी व्यवस्था की कल्पना करनी चाहिए जो स्थानीय हो, उपज और खपत की श्रृंखला छोटी हो और यह प्रकृति अनुकूल हो।
आइए चलते हैं 47 साल की महिला किसान वी. मल्लेश्वरम्मा के पास। हैदराबाद से करीब 450 किलोमीटर दूर कडपा जिले में उनका गांव है मुसलिरेड्डीगरीपल्ली। वह अपने गांव में महिला किसानों की सहकारिता- गायत्री महिला रायथुला मुचुअली एडेड कोऑपरेटिव सोसाइटी- की मुखिया हैं। उनकी सहकारी समिति में सभी जाति-धर्म और आयु-वर्ग की करीब 250 महिला किसान हैं। आधे एकड़ के फार्म को दिखाते हुए मल्लेश्वरम्मा कहती हैं, ‘हमारे यहां सबकुछ स्थानीय, यानी देसी है।’ इस फार्म में तरह-तरह के पेड़-पौधे हैं- अंजीर, अमरूद, आम, जंगली जामुन से लेकर फूल और सब्जियां। मल्लेश्वरम्मा इसे पोषण उद्यान कहती हैं। जाहिर है, उनके पास व्यावहारिक जानकारी है और वह शायद तमाम विशेषज्ञों की तुलना में वनस्पति विज्ञान और कृषि विज्ञान के बारे में ज्यादा जानती हैं।
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एक ओर एक छोटा-सा मौसम स्टेशन और सौर खाद्य ड्रायर भी है। इस ड्रायर से नहीं बिकी या ज्यादा हो गई हरी सब्जियों को सुखाकर रख लिया जाता है और इस तरह उसकी शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है। पास ही मल्लेश्वरम्मा का अपना खेत है जहां वह वैसे अनाजों की खेती करती हैं जो अब लोग कम ही उगाते हैं जैसे लाल चना, बाजरा वगैरह।
यह मानसून का समय है। इस गांव में ज्यादातर किसान 1-3 हेक्टेयर की छोटी जोत वाले हैं और खरीफ के मौसम में कृषि कार्यों में व्यस्त हैं। मल्लेश्वरम्मा की पहल से यहां के तमाम किसानों की जिंदगी बदल गई है। पेट पालने के लिए कभी एक दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने वाली मल्लेश्वरम्मा आज एक सफल जैविक किसान उद्यमी हैं और कर्ज के बोझ तले उस दौर से आज तक की अपनी यात्रा के बारे में बताते हुए वह बार-बार कुछ खास शब्दों का इस्तेमाल करती हैं- वेरायटी, डायवर्सिटी, केमिकल-फ्री और कलेक्टिव। इन चार शब्दों में मल्लेश्वरम्मा की पूरी सोच छिपी है। वह उन महिलाओं में से हैं जिन्होंने किसानों को एकजुट करके जैविक अन्न और साग-सब्जी का उत्पादन किया और सफलता की नई कहानी लिखी।
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वह कहती हैं, ‘मुझे पिता की यह बात हमेशा याद रहती है कि अपने हित के बारे में सोचना तो ठीक है लेकिन गरीबों और वंचितों के हितों को नहीं देखना ठीक नहीं।’ वह कहती हैं कि सामूहिक ताकत एक साथ खड़े होने, एक साथ सीखने और एक साथ आगे बढ़ने में है। वह यह कहते हुए चुटकी लेती हैं कि बाजार में अकेले आपके लिए कोई जगह नहीं लेकिन अगर आप एक समूह में हैं तो बिल्कुल है। वह बताती हैं कि आज हम सब मिलकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन बमुश्किल दो दशक पहले ऐसा नहीं था। हम सब कर्जदार थे, गरीब थे और ऐसे संघर्ष का सामना कर रहे थे जिसका कोई अंत नजर नहीं आता था। उनके घर में ही सहकारी समिति का ऑफिस भी है। वहां सुंदर ढंग से सजाए गए मिट्टी के बर्तनों में तमाम बीज रखे होते हैं जिन्हें समिति मुफ्त में गांवों में बांटती है। मल्लेश्वरम्मा कहती हैं, ‘यह हमारे स्थानीय भोजन का उत्सव है’। समूह के ज्यादातर सदस्य छोटे-सीमांत किसान हैं, गंगादेवी की तरह, जिसके पास तीन एकड़ जमीन है और उस पर वह कपास, बाजरा की खेती करती है। उसका नींबू का एक छोटा बाग भी है।
जैविक खेती में तमाम चीजों का ध्यान रखना होता है। मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखनी होती है और खाद भी जैविक ही इस्तेमाल की जाती है। निश्चित रूप से इसमें अधिक मेहनत होती है लेकिन यह सब करके उन्हें खुशी मिलती है और इसके दूसरे भी मायने हैं। मल्लेश्वरम्मा कहती हैं कि जैविक उपज का उत्पादन और उसकी बिक्री तो एक बात है लेकिन हम महिलाओं की जिंदगी में इसके जरिये और भी बहुत कुछ आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि महिलाएं अब आत्मनिर्भर हैं, उन्हें खुद पर भरोसा है और वे महिला किसानों के बारे में लोगों के नजरिये में बुनियादी बदलाव ला सकी हैं।
हैदराबाद के एक स्टोर में हमारी मुलाकात नियमित ग्राहकों के एक समूह से होती है। यह स्टोर करीब दर्जन भर सहकारी संघों और समूहों द्वारा चलाया जाता है जिसमें मल्लेश्वरम्मा की अगुवाई वाला सहज आहारम कंपनी लिमिटेड भी थी। इसकी अलमारियों पर हरे और पीले रंग में रंगे लगभग 150 अलग-अलग सामान रखे हुए थे जिनमें चावल से लेकर मूंगफली, बाजरा से लेकर गुड़ और डेयरी उत्पादों से लेकर स्नैक्स तक के पैकेट थे। साथ ही टोकरे में रखे ताजी कटी हुई साग भी थी।
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आउटलेट से सटे एक छोटे से कमरे में दो महिलाएं बाजरे के स्नैक्स तलने में व्यस्त थीं जिसे स्टोर 50/100 ग्राम के पैकेट में बेचता है। स्टोर-कीपर संध्या कहती हैं, ‘यह सब ऑर्गेनिक है, जहर मुक्त।’ पास ही खड़े एक ग्राहक एन. किशोर ने कहा, ‘यह स्वास्थ्यवर्धक है, और किसी भी अन्य भोजन की तुलना में बेहतर है, और बड़ी आसानी से उपलब्ध है।’ सहज आहारम के सीईओ टी.पी. प्रसन्ना कुमार कहते हैं कि हमारे स्टोर में आने वाले लोग पूछते हैं कि उनके लिए ये सब उपजाता कौन है। प्रसन्ना ने कहा कि वे लोग ग्राहकों को बतातें हैं कि उनके लिए जो खाने का सामान तैयार होता है, उसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है और सहज आहारम कैसे उपज का उत्पादन करता है।
सहज आहारम की स्थापना 2014 में हुई थी और इसकी टैग लाइन है- ‘एड हेल्थ टु योर लाइफ’ और आठ साल में न केवल इस ब्रांड ने उपभोक्ताओं का भरोसा जीता है बल्कि जैविक उत्पादों के प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में खुद को स्थापित भी किया है। यह एक जैविक ब्रांड की कहानी है जो छोटे और सीमांत किसानों के सामूहिक प्रयासों से साकार हुआ है।
हैदराबाद में गैरलाभकारी संस्था ‘सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर’ (सीएसए) के कार्यकारी निदेशक और सरकारी अनुसंधान में काम कर चुके वनस्पति वैज्ञानिक डॉ जीवी रामंजनेयुलु बताते हैं कि उनका संगठन खाद्य उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच सेतु का काम करता है। रामंजनेयुलु कहते हैं, ‘हम सर्विस प्रोवाइडर की तरह काम करते हैं।’ उनका संगठन उत्पादक समूहों के लिए क्षमता निर्माण करता है, जरूरी सेवाएं देता है और फिर उन्हें बाजार से जोड़ता है और इस तरह ये उत्पाद उन उपभोक्ताओं तक पहुंचते हैं जो रसायन मुक्त भोजन के लिए कुछ अधिक खर्च करने को तैयार हैं।
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रामंजनेयुलु कहते हैं कि ‘प्रयास यह है कि उत्पादन और खपत के दोनों सिरों को वैसे जोड़ें कि यह पर्यावरण के अनुकूल हो। इसके लिए हम शहरी उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम भी चलाते हैं। दूसरी ओर किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करते हैं।’ कहावत सरल है: ‘आपूर्ति श्रृंखला जितनी छोटी होगी, पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही बेहतर होगा; इस श्रृंखला में किसान को भी बेहतर मूल्य मिलेगा।’
मल्लेश्वरम्मा की सहकारी समिति अपने सदस्यों के जैविक उत्पादों को एकत्र करती है, प्राथमिक प्रसंस्करण के बाद उनकी ग्रेडिंग करती है और फिर उन्हें हैदराबाद के सहज गोदाम में भेज देती है। यहां पर पैकेजिंग और लेबलिंग की भी सुविधा है जिससे अगर जरूरत हो तो यहां भी ये काम हो सकें।
रामंजनेयुलु कहते हैं कि सहज जल्दी खराब हो जाने वाली वस्तुओं को बेकार नहीं जाने देता। इसके लिए सौर ड्रायर लगाए गए हैं जिससे जल्दी खराब होने वाले उत्पादों को सुखाया जाता है और फिर उन्हें अलग तरीके से अलग किस्म के खरीददारों को बेच दिया जाता है। सहज सहकारी समिति की हर इकाई अपने आप में अनूठी है। इसकी संरचना और डिजाइन को हर परिस्थितियों के अनुकूल ढाला जा सकता है।
संघ के पास फिलहाल 16 सहकारी समितियां हैं जिनमें सदस्य के तौर पर लगभग 10,000 प्रमाणित जैविक उत्पादक हैं जो 150 से अधिक उत्पादों की आपूर्ति करते हैं। 3 करोड़ रुपये के औसत सालाना कारोबार के हिसाब से इन सहकारी समितियों और उनके संघ का कुल कारोबार लगभग 50 करोड़ रुपये का है। अगले पांच वर्षों में, सहज समूहों में लगभग 50-60 किसान-सहकारिताएं होंगी जिनमें 50,000 सदस्य कम-से-कम 150 विभिन्न जैविक उत्पादों को उगा रहे होंगे।
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प्रकृति अनुकूल तरीके को अपनाते हुए लागत को किस तरह कम किया जाए, इस दिशा में सीएसए ने 2004 से ही काम करना शुरू कर दिया था। इसी वजह से गैर-कीटनाशक-प्रबंधन (एनपीएम) का जन्म हुआ। इस मामले में 54 किसान परिवारों का एक छोटा-सा गांव एनेबावी बड़ी चुनौती बनकर उभरा। किसानों को जैविक प्रथाओं के लाभ के बारे में समझाने में पांच साल लग गए। संक्रमण के समय में समय और तमाम तरह के संसाधन की जरूरत पड़ी। प्रशिक्षित कर्मचारियों को जोड़ा गया और खेती की लगातार निगरानी करते हुए किसानों को समझाते रहना पड़ा। गांव किसान सहकारी समिति के पूर्व प्रमुख 50 वर्षीय पोन्नम परमेश्वर कहते हैं, ‘तब से हम से रसायनों की ओर वापस नहीं गए।’
उत्पादकता में शुरुआती गिरावट के बाद, एनेबावी के किसानों ने देखा कि उनकी पैदावार बेहतर हो रही है, मिट्टी को पोषण मिलता है और उनकी उपज की मांग बढ़ जाती है। धान, कपास, हरी सब्जियां और लाल चने (दाल, या तूर) उगाने के अलावा, एनेबावी में एक सामुदायिक डेयरी भी है।
2009 तक एनेबावी पहला पूर्ण जैविक गांव बन गया। उसके बाद के पांच वर्षों के दौरान इस क्षेत्र को गति मिली क्योंकि राज्य सरकारों और दाता एजेंसियों ने धन और संसाधनों के माध्यम से इसका समर्थन शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में किसान जैविक खेती को अपनाने लगे। जब किसान सामूहिक रूप से जैविक खेती करने लगे तो सवाल उठा कि इसे कैसे और कहां बेचें।
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सीएसए के मुख्य परिचालन अधिकारी जी. राजशेखर कहते हैं, ‘तब हमने महसूस किया कि केवल उत्पादन लागत कम करने से किसानों को ज्यादा फायदा नहीं होगा। सामूहिक उत्पादन की ओर जाना होगा और इसके साथ ही उत्पादन से लेकर खपत तक की एक पूरी श्रृंखला विकसित करनी होगी। यह एक दुस्साहसी काम जरूर था लेकिन असंभव नहीं।’
अब समस्या यह थी कि सीमित संसाधनों के साथ यह सब कैसे हो। इसका उपाय यह निकाला गया कि 10-15 किसानों के छोटे-छोटे परस्पर लाभकारी समूह बनाए गए ताकि इनका प्रबंधन बेहतर तरीके से हो सके। एक व्यापक आकार को साकार करने के लिए इस तरह के छोटे-छोटे समूहों को एक छतरी के नीचे लाया गया और फिर एक श्रृंखला बन गई। इस तरह गांवों में छोटे-छोटे समूहों का जाल बिछ गया। एकदम नीचे छोटे-छोटे समूह, उसके ऊपर सहकारी समिति जिसमें 300-500 जैविक उत्पादक हैं और फिर उन सभी समितियों के बीच सेवाओं और समन्वय का काम करता ‘सहज’। साझा करना ‘सहज’ के अस्तित्व का सार है। सदस्य एक दूसरे के साथ अपने बीज और अनुभव साझा करते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान ‘सहज’ से जुड़ी ज्यादातर सहकारी समितियों ने ताजी सब्जियां और अनाज मंगाकर उन्हें अपने गांवों और आसपास के जरूरतमंद लोगों में वितरित किया।
‘सहज’ आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 200 से अधिक गांवों में सक्रिय है और इसके तकरीबन चालीस हजार सदस्य हैं। रामंजनेयुलु कहते हैं, सीएसए इन गांवों में किसानों की आत्महत्या को कम करने में सक्षम हुआ है, और यह बहुत बड़ी बात है।
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ऑस्ट्रेलिया की मोनाश यूनिवर्सिटी में नेशनल सेंटर फॉर साउथ एशिया स्टडीज की निदेशक प्रोफेसर एंटोनिया मारिका विजियानी कहते हैं, ‘सबसे बड़ी बात यह है कि मार्केटिंग में कोई अनुभव न होने के बाद भी छोटे किसानों ने जैविक उत्पादों के लिए एक बाजार बनाने में सफलता पाई।’ 2016-17 में, उन्होंने और उनके सहयोगी प्रोफेसर जगजीत प्लाहे ने समुदाय-प्रबंधित स्थानीय खाद्य प्रणालियों पर अपने अध्ययन के दौरान ‘सहज’ के मॉडल को देखा-समझा। वह कहती हैं, ‘जैविक उत्पादों का उत्पादन करना एक बात है और मार्केटिंग बिल्कुल अलग। लेकिन ‘सहज’ ने ऐसे समय में बाजार में अपने लिए जगह बनाई जब भारत सरकार भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुदरा खाद्य का क्षेत्र खोल रही है।’
‘सहज’ के चार खुदरा स्टोर हैं- तीन हैदराबाद (तेलंगाना) में, एक तटीय शहर विशाखापत्तनम में जहां से इसका लगभग 43 प्रतिशत राजस्व आता है। यह ऑर्गेनिक क्षेत्र से जुड़े अपने सहयोगियों को भी थोक में बिक्री करता है। इसके अलावा, इसके पास मोबाइल वैन भी हैं जो सप्ताह में दो बार जल्दी खराब होने वाले उत्पाद को लेकर आसपास के इलाकों में जाती हैं; ऑनलाइन डिलीवरी भी की जाती है; नियमित उपभोक्ताओं के व्हाट्सएप समूह बनाए गए हैं; और हाल फिलहाल में व्यवसाय करने वालों को भी उत्पाद बेचे जा रहे हैं।
स्टोर और सेल्स को संभालने वाले सहज के 27 वर्षीय मार्केटिंग एग्जिक्यूटिव परदेसी दास कहते हैं, ‘मैं इसे छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि मुझे लगता है कि इससे जुड़कर मैं किसी महत्वपूर्ण चीज का हिस्सा हूं।’ दास-जैसे 45 पेशेवरों की एक टीम स्टोर, बैक-एंड संचालन और बिक्री का प्रबंधन करती है।
आगे उनकी योजना क्या है, इसके जवाब में सहज आहारम के सीईओ प्रसन्ना कुमार कहते हैं: ‘हम निर्यात की संभावनाओं पर गौर कर रहे हैं। इसके लिए फ्रेंचाइजी मॉडल के बारे में विचार किया जा रहा है।’ सीएसए लगभग 40 नवगठित किसान उत्पादक कंपनियों को भी सेवाएं दे रहा है और उम्मीद की जाती है कि अगले 3-4 सालों में ये कंपनियां अपने जैविक उत्पादों के साथ बाजार में होंगी। इस कारण भी अभी से निर्यात बाजार में संभावनाओं को टटोला जा रहा है। यह गौर करने वाली बात है कि सीएसए जैविक प्रमाणीकरण के लिए एक मान्यता प्राप्त एजेंसी भी है जिसके पास इस काम के लिए अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं हैं।
‘सहज’ से प्रेरित होकर छोटी-छोटी तमाम संस्थाएं भी खुल रही हैं। पिछले साल, हैदराबाद और उसके आसपास महिला किसानों के एक समूह ने 'बे-निशान' नामक अपना सामूहिक उद्यम बनाया, जिसका अर्थ बिना किसी प्रतीक के होता है। वे जैविक रूप से आम उगाते हैं।
सहज उद्यम ने इस मिथक को तोड़ दिया है कि छोटे किसान उद्यमी नहीं हो सकते। इस क्रांति का उद्देश्य कोई विशालकाय कंपनी बनाने का नहीं बल्कि आत्मनिर्भर, आर्थिक रूप से व्यवहार्य और स्थानीय सामाजिक उद्यम बनाने का है।
(जयदीप हार्दीकर नागपुर स्थित पत्रकार हैं और 'रामराव- द स्टोरी ऑफ इंडियाज फार्म क्राइसिस' के लेखक हैं)
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