देश के अगले मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे को 'द हिंदू' अखबार ने 'प्रैक्टिकल जज' बताया है। वैसे वर्तमान मुख्य न्यायाधीश भी मेरे खयाल से प्रैक्टिकल जज ही हैं बल्कि अपेक्षा से अधिक प्रैक्टिकल हैं। उनसे और उनसे भी पहले वाले मुख्य न्यायाधीश भी काफी प्रैक्टिकल थे।अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक सारे प्रधानमंत्री भी अपनी-अपनी तरह से प्रैक्टिकल थे और मोदीजी को तो खैर प्रैक्टिकलों के पितामह साबित हो रहे हैं। ऐसे पितामह कि नोटबंदी की घोषणा करने भी खुद टीवी पर प्रकट हो गए। जब नोटबंदी उलटी पड़ गई तो भूल गए कि नोटबंदी देश को दिया गया उनका ही एक 'तोहफा' है, जिसने अपनी ओर से देश को आर्थिक मंदी के रूप में एक और तोहफा दे दिया है !
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इतने प्रैक्टिकल हैं मोटाभाई कि मोदी शरणम हो जाओ तो हजार खून, बीसियों बलात्कार,अरबों की डकैती भी माफ और मोदी अशरणम रहो तो चींटी का पैर के नीचे कुचल जाना या छींक का आ जाना या बिना आसन के वायु मुक्ति भी गुनाह बन जाता है! वह इतने प्रैक्टिकल हैं कि अपने नेतृत्व में 2002 होने दिया, मुसलमानों को मारने दिया ताकि चुनाव में निश्चित हार, न केवल पक्की जीत में बदल जाए बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी इतनी पक्की हो जाए कि दम लगा के हइशा करके भी कोई उसे हिला न सके। उस पर दही की तरह जमने से पहले उन्होंने अपने गुरू, अपने संरक्षक को जोर का धक्का दिया और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सवार हो गए! खुद को तो नरसंहार के गुनाह से पहले ही बचा लिया था, अब अपने संगी-साथियों को भी बेगुनाही का प्रमाण पत्र दिलवा दिया और जिसने भी सच बोला, उसे सीखंचे के पीछे धकेलने में देर नहीं की। जो अभी तक बचे रहने की खुशफहमी पाले हुए हैं, उन्हें भी धकेलने का संकल्प लेकर ही वह इस बार सत्ता में आए हैंं। इस मामले अंधेर है, मगर देर नहीं।
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वैसे जो प्रैक्टिकल होते हैं, वे फटाफट सफल होते हैं और राजनीति में तो प्रैक्टिकल होने से बड़ी अकलदारी कोई होती नहीं। रामविलास पासवान इसके परम उदाहरण हैं। वह इतने अधिक प्रैक्टिकल हैं कि हर काल की हर मिनिस्ट्री में फिट हैं। धर्मनिरपेक्ष से सांप्रदायिक और सांप्रदायिक से धर्मनिरपेक्ष होने में उन्हें उतना ही समय लगता है, जितना कि बंद गले का सूट बदलने में लगता है। संभव है कि मंत्री पद पर बने रहने का विश्व रिकॉर्ड उनके नाम अभी तक हो चुका हो और भारत को इस पर गौरवान्वित महसूस करने के लिए कहा जाए! जो प्रैक्टिकल नहीं होते, वे निराला और मुक्तिबोध की जिंदगी जीते और मरते हैं, मगर इसमें बड़ा खतरा यह है कि हर ऐसा आदमी मरने के बाद निराला या मुक्तिबोध नहीं हो जाता! अगर यह गारंटी होती तो मैं भी प्रैक्टिस करके अनप्रैक्टिकल बन जाता और हिंदी साहित्य में अपना नाम अमर करके ही इस दुनिया से जाता! यह गारंटी नहीं थी, इसलिए प्रैक्टिकल बना रहा!
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मुझे और आपसे नन्हे-मुन्ने भी अब कहने लगे हैं- 'अंकल जी, आंटी जी आप प्रैक्टिकल बनो'। मैं उनसे कहता हूं बच्चों, हम भी अपने जमाने में बहुत नहीं, मगर प्रैक्टिकल थे, तभी तो तुम्हारी पीढ़ी का विकास भी इस तरह हुआ है कि तुम हमें अब प्रैक्टिकल बनने के उपदेश पेलने में समर्थ बन सके हो! वैसे लगे हाथ यह भी जान लो कि हमारे जमाने में जो सिर्फ प्रैक्टिकल ही प्रैक्टिकल थे, वे आज हर तरह से हाथ-पैर मार रहे हैं। मगर उनकी दुकान पर लगा हुआ ताला खुल नहीं रहा है। यों तो हमारी दुकान पर भी मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं, मगर देर-सबेर कोई भुला-भटका आ भी जाता है। उनमें और हममें इतना ही अंतर है।
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बहुत अधिक प्रैक्टिकल होने की प्रैक्टिकल प्रॉबलम्स बहुत अधिक हैंं। मैंने अपने छात्र जीवन में हायर सेकंडरी में साइंस लेने की गलती कर दी, क्योंकि उस जमाने में साइंस लेना, सबसे प्रैक्टिकल होना था मगर उसमें करने पड़ते हैं प्रैक्टिकल! अपनी हालत यह कि प्रैक्टिकल का नाम सुनकर ही नानी अंतिम सांस लेने लगती थी। उसे मुफ्त में मारने का पाप अपने सिर पर लेने की बजाय हमने समय रहते साइंस छोड़ दी और नानी के प्राणों की रक्षा में हम भी विनम्र योगदान दे पाए। यह समझ में आ गया कि प्रैक्टिकल करना अगर नानी के जीवन-मरण का सवाल बन सकता है तो प्रैक्टिकल बनना अपने जीवन-मरण का सवाल भी बन सकता है, इसलिए उतने ही प्रैक्टिकल बनो, जितना तुम से सध सके!
बहरहाल जब प्रैक्टिकल अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार मिल रहा है, जब राजनीति से लेकर न्याय व्यवस्था तक सब प्रैक्टिकल ही प्रैक्टिकल है, तब आइए थोड़ा अनप्रैक्टिकल होने का आनंद लिया जाए!
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