यह कोई बहुत पहले की बात नहीं है जब स्पैम मैसेज और सोशल मीडिया फॉरवर्ड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री की सत्यता का पता लगाने के लिए नहीं, बल्कि इस बात पर केंद्रित होते थे कि उनसे पहले प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह के पास कैसी-कैसी डिग्रियां और सम्मान हैं। उस लिहाज से मनमोहन सिंह भारत के अब तक के सबसे ज्यादा शिक्षित प्रधानमंत्री हैं। तब उन संदेशों को प्रसारित करने के पीछे राष्ट्रीय गौरव का भाव होता था, क्योंकि तथ्य यही है कि औपचारिक शिक्षा के मामले में मनमोहन सिंह संभवत: अपने समय में दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे नेता थे। फिर भी आज यह कहना मुश्किल है कि डॉ. सिंह ने हमें अच्छा शासन दिया या जहां जरूरत हुई, वहां खड़े रहे। उनके कार्यकाल के दौरान का खराब प्रशासन ही था जिसकी वजह से कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी।
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आज सोशल मीडिया मैसेज मौजूदा प्रधानमंत्री की संदिग्ध औपचारिक शिक्षा पर केंद्रित हैं और इस तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं कि एक प्रधानमंत्री का औपचारिक रूप से शिक्षित होना जरूरी है या नहीं। आज देश की बीमारी की यह दवा नहीं है। इसमें शक नहीं कि यह पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने जो डिग्री दिखाई, वह सही है या नहीं। अगर वह सही नहीं है तो बेईमानी, लोगों को गुमराह करने का मामला बनता है और तब इसके राजनीतिक और अन्य नतीजे भी होंगे। इस मामले में ऐसा संदेश दिया जा रहा है कि एक प्रधानमंत्री को अवश्य ही औपचारिक रूप से शिक्षित होना चाहिए। लेकिन यह एक अलग विषय है।
जहां तक नियमों की बात है, भारत का प्रधानमंत्री बनने के लिए यूनिवर्सिटी डिग्री की कोई शर्त नहीं। यह वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए। ज्ञान, औपचारिक और खास तौर पर विशेषज्ञ किस्म के ज्ञान का ताकत से गहरा नाता है। इससे विशेषज्ञों का एक छोटा वर्ग तैयार हो जाता है और बहुमत वंचित रह जाते हैं। फिर यह वर्ग हालात को नियंत्रित करने और अपने हिसाब से चलाने लगता है और इस तरह वह सवालों से परे हो जाता है क्योंकि उससे पूछने वाला कोई नहीं होता। इस तरह विकास के ‘विशेषज्ञ’ आइडिया, ताकत और पहुंच के साथ बुरे विकास का उदाहरण बन जाते हैं।
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आज हम जिस पर्यावरण संकट का सामना कर रहे हैं, वह इन्हीं विकास विशेषज्ञों के हाथ से हालात के बाहर निकल जाने का ही नतीजा है। तथाकथित आर्थिक ‘विशेषज्ञ’ 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट का अंदाजा तो नहीं लगा पाए लेकिन इसके हालात पैदा करने में उनका हाथ जरूर हो सकता है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में सात करोड़ पाउंड की लागत से बनी नई शैक्षणिक इमारत के उद्घाटन के मौके पर इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने स्वाभाविक लेकिन सीधा सवाल किया: ‘यह खतरनाक है ... किसी ने इसकी आहट नहीं सुनी?’ जाहिर है, किसी के पास कोई जवाब नहीं था। यह उस संस्थान की बात है जिसके पास धन-संसाधन की कोई कमी नहीं।
यहां हमारा साबका एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से है। उनका ज्ञान महत्वपूर्ण है लेकिन यही अकेला ज्ञान नहीं है। ज्ञान स्वदेशी संस्कृतियों, रीति-रिवाजों, विश्वविद्यालय प्रणालियों के बाहर सदियों से विकसित सोच-समझ में भी है। नवंबर, 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकारी कार्यालय के एक नोट ने ‘स्वदेशी ज्ञान के एक प्रकार इंडिजेनस ट्रैडिशनल इकोलॉजिकल नॉलेज (आईटीईके) को ज्ञान के उन महत्वपूर्ण निकायों में से एक के रूप में मान्यता दी जिसने अमेरिका की वैज्ञानिक, तकनीकी, सामाजिक और आर्थिक प्रगति में योगदान किया और प्रकृति की हमारी सामूहिक समझ को बेहतर किया।’
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औपचारिक शैक्षिक योग्यता पर जोर देने से राजनीतिक पद कम समावेशी हो जाएंगे, खास तौर पर भारत जैसे देश में जहां असमानता बहुत ज्यादा है। इसका नतीजा यह होगा कि जो लोग सिस्टम से बाहर हैं, उन पर बोझ बढ़ जाएगा। गुजरात से दिल्ली का सफर तय करते हुए प्रधानमंत्री मोदी का यही तो नैरेटिव रहा था। 2014 के इंटरव्यू में प्रधानमंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था: ‘मैं एक बाहरी व्यक्ति हूं। मैं वास्तव में खुद को न केवल दिल्ली की राजनीति बल्कि राजनीति के लिए भी एक बाहरी व्यक्ति मानता हूं। अपने जीवन के 50 वर्षों तक मैं बस लोगों की समस्याओं को समझने के लिए घूमता रहा, उनसे बात करता रहा। मैं हमेशा देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक घूमता रहा।’ इससे काफी पहले के एक इंटरव्यू में उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया गया था: ‘आपको यह सुनकर हैरानी होगी … लेकिन मैं शिक्षित नहीं हूं।’
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हम इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि भारत में आज हमारे पास एक ऐसा नेता है जो स्पष्ट रूप से ‘विशेषज्ञ’ से उलट है, और कम-से-कम उससे यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह विशेषज्ञों के फंदे में नहीं फंसे। वह विभिन्न विशेषज्ञों की बात सुन सकता है लेकिन उनकी हर बात को मान नहीं सकता। पर्यावरण और वसुधैव कुटुम्बकम की दृष्टि से हमारी रोजमर्रा की वास्तविक जरूरतों के लिए हमें एक अलग तरह के ज्ञान, जिज्ञासा, अवलोकन के साथ-साथ उन लोगों को सुनने की जरूरत है जिनका जमीनी वास्ता है। लेकिन इस संदर्भ में, सबसे बुरा वह गैर-विशेषज्ञ हो सकता है जो विशेषज्ञ होने का दिखावा करता है। जलवायु परिवर्तन की अध्ययन आधारित वास्तविकताओं के खिलाफ जो इन दिनों तरह-तरह की कहानियां गढ़ी जा रही हैं, वह हास्यास्पद है। बिना विशेषज्ञ ज्ञान वाले लोग खुद को विशेषज्ञ के रूप में स्थापित करने के लिए ऐसा करते हैं। ‘एंटायर पॉलिटिकल साइंस’ में डिग्री अपेक्षित ज्ञान के बिना ‘ज्ञान का ढोंग’ रचने की ही श्रेणी में आती है।
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ट्रंप और उनके बौद्धिकवाद विरोध के बारे में बराक ओबामा की यह टिप्पणी बड़ी उपयुक्त लगती है: 'आप किस बारे में बात कर रहे हैं, यह नहीं जानना अच्छी बात नहीं।' हमारे पास एक ऐसा गैर-विशेषज्ञ है जिसमें एक विशेषज्ञ की सभी संभव बुरी बातें हैं, जैसे कि अपनी सोच पर बला का यकीन करना जिसका खामियाजा हमने नोटबंदी, अचानक लॉकडाउन जैसे फैसलों के रूप में झेला।
एक शिक्षित प्रधानमंत्री की मांग बीजेपी और उसके नेता पर हमला करने का एक अच्छा तरीका हो सकता है लेकिन यह असली मुद्दे को हाशिये पर डाल देने जैसा है। इसकी जगह एक ज्यादा मानवीय प्रधानमंत्री की मांग की जानी चाहिए जो सुनता हो और भविष्य की परवाह करता हो, न कि वह लोगों के अधिकारों को कुचलता हो और जैसे ही कोई प्रतिद्वंद्वी दिखे, उसपर हमला कर देता हो। हमें एक पीएचडी प्रधानमंत्री की भी जरूरत नहीं है, बल्कि एक ऐसे सहानुभूतिपूर्ण प्रधानमंत्री की है जो विशेषज्ञों के ज्ञान का मानवीयकरण कर सके और इसे लोगों, पृथ्वी और पूरे ब्रह्मांड की देखभाल में इस्तेमाल कर सके।
(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर में फैकल्टी हैं। (दि बिलियन प्रेस)
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