कोई भी सालगिरह लेखा-जोखा करने का अवसर भी होती है। यह लेखा-जोखा ही तय करता है कि सालगिरह उत्सव का अवसर बनती है या उदासी का? अब तक क्या किया, आगे क्या करना है, यह सवाल तो हर सालगिरह का बुनियादी सवाल होता ही है। इस लिहाज से क्या स्थिति है स्वाधीनता की इस सालगिरह पर? याद आता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद लाल किले से अपने पहले संबोधन में नरेंद्र मोदी ने सभी विवादों और झगड़ों पर अगले पांच साल के लिए मोरेटोरियम लगाने की बात की थी, ताकि सारा देश मिल-जुलकर विकास पर ध्यान केंद्रित कर सके।
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लेकिन सवाल यह उठता है कि पिछले छह सालों में क्या हुआ? ऐन इस वक्त क्या हो रहा है? सत्तर साल में कुछ हुआ ही नहीं वाली निराधार बातें बंद हुईं क्या? हां, इतना जरूर हुआ कि बीच-बीच में जब वाजपेयी जी की सरकार की याद आ जाती है तो सत्तर में से दस साल घटा लिए जाते हैं। लेकिन यह बेतुकी बात बंद नहीं होती जिसे एक तरह से सारे विवाद की जड़ कहा जा सकता है। इकतीस साल की जीवनाशा से सफर शुरु करने वाला देश सत्तर साल की जीवनाशा को छू ले, आजादी के कुछ ही साल पहले महाभयानक मानवनिर्मित अकाल और बाद में फिर सूखा, अतिवृष्टि के कारण अकालों की चपेट में आने वाला देश अन्न का बफर स्टाक रखने लगे, दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाने लगे… ऐसे सत्तर सालों को एक झटके में डिसमिस करें, और फिर विवादों को स्थगित करने की बात करें, तो भला आप पर कौन विश्वास करेगा?
ऐसी बातें कृतज्ञता के घोर अभाव की सूचना देती हैं जो न किसी व्यक्ति के चरित्र में अच्छी चीज है, न किसी विचार के। विवादास्पद मुद्दों को पीछे छोड़ देने की पावन घोषणा के दो साल बाद ही नोटबंदी का कमाल कर दिया गया जिसके झटके से भारतीय अर्थव्यवस्था अभी तक नहीं निकल पाई है। अर्थव्यवस्था चलाई इतने खराब ढंग से गई है और अब ऊपर से कोरोना। स्थिति यह है कि सत्तर साल में जो वाकई कभी नहीं हुआ, वह इस शानदार सरकार के कार्यकाल में होने जा रहा है। पहली बार देश की अर्थव्यवस्था नेगेटिव ग्रोथ की ओर बढ़ रही है। व्यापार चौपट हो रहे हैं, करोड़ों लोग बेरोजगार हो रहे हैं।
सीमा पर आलम यह है कि चीन ने जमीन कब्जा ली है, सरकार के हिसाब से बातचीत चल रही है। हालांकि माननीय प्रधानमंत्रीजी के अनुसार तो सीमा पर कोई अतिक्रमण हुआ ही नहीं है, बातचीत फिर भी चल रही है। रक्षा मंत्रालय की बेवसाइट पर वास्तविकता की रिपोर्ट लगाकर हटा ली जाती है, कोई फर्क ही नहीं पड़ता। सीएजी की रिपोर्ट भी इस वजह से छुपा ली जाती है कि “विेदेशी ताकतें” उसे पढ़ न लें।
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चार घंटे के नोटिस पर नोटबंदी हुई थी, ऐन चार घंटे के नोटिस पर कोरोना से लड़ने के लिए लॉकडाउन… लाखों मजदूरों की जिंदगी अस्त-व्यस्त, हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा… ताली-थाली, दिया-बत्ती और गोमूत्र आदि के बावजूद कोरोना के लाखों मरीज, गृहमंत्री भी और पापड़ से प्रतिरोध क्षमता बढ़वाने वाले मंत्री जी भी… विपक्ष की सरकारें गिराने के अभियान पर न कोरोना का कोई असर हुआ और नही आर्थिक संकट का।
अधिकतर टीवी चैनलों के अनुसार, “आज की ताजा खबर, आज की बड़ी खबर” क्या? आर्थिक बदहाली नहीं, चीनकी हेंकड़ी नहीं, बिहार और पूर्वोत्तर में बाढ़ का प्रकोप नहीं.. बल्कि सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बहाने एक लड़की को जादू टोने वाली चुड़ैल या साजिशकर्ता के रूप में स्थापित करना, अमिताभ बच्चन की पोती का ऑनलाइन टीचर को गुडमॉर्निंग मैम कहना… अयोध्या में राममंदिर भूमि पूजन के कवरेज ने तो समाचार चैनल और संस्कार, आस्था आदि चैनलों के बीच का फर्क ही गायब कर दिया।
अर्थव्यवस्था की दुर्दशा हो या कोविड संकट में बरती जा रही लापरवाही… जिम्मेवार कौन? राहुल गांधी। क्योंकि वह फरवरी से कोरोना की चेतावनी देकर केम छो ट्रंप वाली पार्टी बिगाड़ रहे थे, चीनके विस्तारवादी इरादों के बारे में चेतावनी दे रहे थे। भारतीय मीडिया का यह दौर दुनिया की पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज होगा, आखिरकार यह कोई छोटी-मोटी खोज तो नहीं किदेश चलाने का काम सरकार का, ठीक से चला ना पाए तो विपक्ष जिम्मेवार। सरकारें गिराने की साजिश चाणक्य-नीति और विपक्ष द्वारा अपनी सरकार बचाने की कोशिश बाड़ाबंदी!
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यह सचमुच अद्भुत समय है, सत्तर सालों में ऐसा वाकई कभी नहीं हुआ। सनबासठ में चीन के इरादे समझने में देर हुई तो जवाहरलालजी ने संसद में सफाई दी, जनता का प्यार और सम्मान हासिल किया था तो चीन संबंधी विफलता की जिम्मेवारी भी ली। अपने प्रिय पात्र कृष्ण मेनन का इस्तीफा लिया, आलोचकों को देशद्रोही नहीं कहा। सातवें दशक में खाद्यान्न संकट हुआ, शास्त्रीजी ने सोमवार के व्रत की प्रेरणा ही नहीं दी बल्कि हरित क्रांति की तरफ कदम भी बढा़ए जिनकी परिणति इंदिराजी के समय में देखने को मिली। ‘पुराने भारत’ के ऐसे और अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, और इनसब बातों को पीछे छोड़ने के लिए उतावले, पिछले छह साल में बने ‘नए भारत’ के भी।
सच यह है कि मोदीजी को ऐतिहासिक अवसर मिला था। बीजेपी को अपने बल-बूते पहली बार बहुमत, ऐसी व्यापक लोकप्रियता। वे चाहते तो सच में विवादों पर मोरेटोरियम की पहल कर के देश में आम राय बना सकते थे।
हुआ इसके एकदम उलट है। समाज का मनही जैसे विभाजित हो गया है। हर बात तीखे पक्ष-विपक्ष के संदर्भ में स्थापित हो गई है, व्यक्तिगत संबंध राजनैतिक मतभेदों के कारण खटाई में पड़ रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली की हर संस्था संदिग्ध हुई जा रही है। भविष्यकी कल्पना जैसे गायब हो गई है। वर्तमान अतीत के हिसाब चुकाने की जगह में बदल दिया गया है।
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लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं होता, वह चलता है संस्थाओं से और लोकवृत्त में निरंतर बढ़ती चेतना से ताकिसत्ताधारी ताकत का दुरुपयोग न कर पाएं। सरकार अपना काम ध्यान से करे और विपक्ष अपना। यदि लोकतंत्र का सही अर्थ बचाए रखना है, यदि उसके संकुचन की बजाय उसका विस्तार करना है, हाशिये के लोगों को लोकतंत्र की सचाई का यकीन दिलाना है, तो हम सबको सरकार से ही नहीं, अपने आपसे भी सवाल तो पूछने होंगे- पिछले सत्तर सालों के बारे में भी, पिछले छह सालों के बारे में भी।
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