गांधीजी की महानता पर उनकी समाधि और आश्रमों पर टूट पड़े नेताओं द्वारा जितना सार्वजनिक भाषणों में बहुत कुछ कहा, सुना और रोया गया है, लेकिन जितना वे बोलते हैं, उतना ही लगता है कि वे गांधी को नहीं समझ सके हैं। बुद्ध की ही तरह हम बस उनके अवशेषों पर स्तूप बनाकर उनको पूज रहे हैं। विदेशों में गांधी की 150वीं जयंती का हवाला देकर फिर बुद्ध की तुक युद्ध से मिलाते हुए दूर की हांकी जाती है, कि हम तो बुद्ध और गांधी के शांतिप्रिय वारिस हैं। लेकिन घर भीतर?
ऐसी पिटी-पिटाई बातें कहना कतई बेमतलब है कि हम सबको गांधी और बुद्ध के पगचिन्हों का अनुसरण करना है। बुद्ध या गांधी इसलिए महान नहीं थे कि वे अपने युग की किसी बनी बनाई लीक पर चले। गौरतलब है कि उन्होंने बुद्धत्व या गांधीवाद के नाम पर अपने जीते जी कोई पंथ और मठ भी नहीं बनाए। इसलिए गांधी की 150वीं जयंती वर्ष में जो राजनेता शांति स्थल पर फूल चढ़ाने के बाद राजशाही पगड़ियां पहनकर अल्पसंख्यकों, दलितों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ तमाम तरह के सामंती तेवर सहित छायायुद्ध लड़ रहे हैं, वे गांधी के नाम पर कलंक हैं।
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बुद्ध और गांधी दोनों अपने-अपने समय के समृद्ध परिवारों में जनमे और उनसे यही पारिवारिक उम्मीदें की जाती रही होंगी कि वे अपने पुरखों के पदचिन्हों पर चलते हुए राजकाज या वकालत करेंगे। पर चारों तरफ झगड़ते, सतत असंतुष्ट या आत्मतुष्ट खाते-पीते राजे-रजवाड़े, व्यापारी उनको कैसे कोई विरासत देते? इसलिए लीक छोड़कर दोनों ने अपने युग के जन्म-बुढ़ापे-बीमारी से अनिवार्यत: गुजरते हुए मरण की तरफ बढ़ते तमाम दु:खी आमजनों की जाति प्रथा की मारी दुनिया में पैठ की, जिससे उनको उनका परिवेश बचपन से जवानी तक भरसक दूर रखता रहा। वे महान तब बने जब उन्होंने बासी परंपरा को वासांसि जीर्णानि की तरह उतार फेंका और अपनी आत्मा और विवेक के सहारे अपने लिए ताजा सत्य की तकलीफदेह तलाश शुरू की।
बुद्ध और बापू दोनों से उनके सत्य की खोज ने सबसे पहले कठोर वर्णाश्रम और गृहस्थाश्रम को त्याग करना सिखाया। इसलिए मृत्यु शैया के गिर्द बिलखते अपने शिष्यों को बुद्ध का आखिरी संदेश था- ‘अप्प दीपो भव’। अपना दिया खुद बनो। मेरे प्रवचन तो बस एक तमेड़ हैं, अज्ञान की नदी पार करने के बाद इनको सर पर धारे-धारे मत फिरना।
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गांधी का भी कमोबेश यही संदेश था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। सत्य की खोज में हर कोई शोधक समयकाल की जरूरतों के अनुसार अपने विचार बदलता है। खुद ‘हिंद स्वराज’ लिखते वक्त वह हस्पतालों, अदालतों और मशीनों के धुर विरोधी थे, लेकिन दस बरस बाद जनसंपर्क की जरूरत हुई, तो उन्होंने रेल से लंबे-लंबे सफर किए, अदालतों के अंग्रेजी कानून के आधार पर मिले आदेश स्वीकार कर सिविल नाफरमानी के तहत बार-बार जेल गए। बछड़े का हक न मिटे इसलिए गाय का दूध पीना छोड़ा, पर एक बछड़े को टेटनस की मरणांतक तकलीफ से छटपटाते देखकर उसे जल्द मौत देने की स्वीकृति देने से नहीं हिचके। और चौरीचौरा हत्याकांड के बाद कुछ दिन के लिए अपना आंदोलन वापिस ले लिया।
गांधी का सारा जीवन कट्टर सिद्धांतों और फौरी जरूरतों के लगातार किए जाते संतुलन के उदाहरणों से भरा पड़ा है। तब वह कौन सा अखंड कालातीत गांधी का रास्ता है जिस पर चलने की हमारे नेता कसमें खाते, वादे करते नजर आ रहे हैं? मीडिया से प्रधानमंत्री जी सीधा सहज संपर्क शायद पसंद नहीं करते, अलबत्ता उनके साथ गए कुछ चुनींदा राजनयिकों, पत्रकारों के हवाले से शेष देश को बताया गया है कि उनकी हालिया अमेरिका यात्रा राजनय और जनसंपर्क के दोनों पैमानों पर बहुत सफल रही।
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अमेरिका में शांति, सह-अस्तित्व और स्वच्छता का संदेश देकर और विश्व पर्यावरण पर गांधी के नामोच्चार के बाद (जिसका सरकारी ऑल इंडिया रेडियो ने स्वाहिली तक में अनुवाद प्रसारित किया), गांधी के 150वें जन्म समारोह के बीच बालाकोट हमले के विलंबित वीडियो जारी करना कुछ समझ नहीं आया। यह शांतिप्रियता की भला कैसी मिसाल है? कई विद्वानों ने इस लेखिका को डपट कर कहा कि पाकिस्तान, खासकर इमरान खान अमेरिका में कश्मीर पर जो भारत के खिलाफ अनर्गल बोल रहे हैं, उसके बदले में दुनिया को बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक का आईना दिखाकर बताना सही बनता है कि हम दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने को तैयार हैं। पर आज से पचास साल पहले हमारे अन्य प्रधानमंत्री शास्त्री जी (जिन का जन्मदिन हमने 2 अक्टू बर को ही मनाया), कह गए कि “कश्मीर पर पाकिस्तान से लड़ना हर बार एक दुधारी तलवार साबित होगा, क्योंकि बिना उसकी हिंदू कार्बन कॉपी बने हम कश्मीर का विशेष स्वरूप नहीं बदल सकते”।
ऐसे लोगों की आज कमी नहीं जिन का मानना है कि बिना एक हिंदू राष्ट्र बने भारत मौजूदा हालात से उबर नहीं सकता। पर हमारा इतिहास गवाह है कि इस्लाम या क्रिस्तानी धर्मों के विपरीत, सनातनी धर्म ध्वजा के नीचे राजनीतिक एकछत्रता कायम करने की कोई पहल शुरू में भले लहती दिखे, लेकिन भारत को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में अधिक देर तक कायम नहीं रख सकती। वजह यह, कि हिंदू धर्म कोई सुपरिभाषित किताब पर चलने वाला इकरंगा धर्म कभी रहा ही नहीं। संघ भले ही अपनी वजहों से सनातन धर्म को धुकाता हो, पर सनातन धर्म वृहत्तर हिंदू धर्म का एक बड़ा पंथ है। वह शाखा है, सारा पेड़ नहीं। और यह शाखा तथा पांचरात्र और वैष्णव-शैवपंथी अन्य कुछ शाखाएं जैसी आज हैं वे 11वीं 12वीं सदी के पहले नहीं थीं।
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जिसे हम सचमुच का हिंदू धर्म कहते हैं वह पास से परखने पर कई-कई आस्तिक शाखाओं, नास्तिकतावादी पंथों, वेद बाह्यमत रखने वाले समूहों और उनके शास्त्र विहित या शास्त्र वर्जित सामूहिक आचार-विचारों, 33 करोड़ स्वीकृत देवी-देवताओं वाला बहुमुखी मैदान है। उसके भीतर इन देवताओं के अलावा उतनी ही तादाद में यक्ष, गंधर्व, किन्नर, साधु-बाबाओं, उनके सैकड़ों अखाड़ों, अर्द्धमानवीय लोक देवताओं की बहुरंगी, बहुभाषा-भाषी भीड़ की पूजा करने वालों का समूह भी है, जो एक सरीखी भावना से कभी किसी लाट, तो कभी वृक्ष, तो कभी किसी मजार पर लगे मेलों में सर नवाता, सिन्नी बांटता दिखता है। लिहाजा यहां सनातन राष्ट्र कायम कर भी दिया गया, तो यकीन मानिए उसको पाकिस्तान से भी अधिक अनेक जातीय, भाषा-भाषी उपराष्ट्रों, तालाबों, पोखरों में बंटने में देर नहीं लगेगी।
जो एक सागर की तरह भव्य हिलोरें लेता जलसमूह है, उस पर कोई बांध तो नहीं बांधा जा सकता। गांधी की महानता यह थी कि उन्होंने इस विविधता को हमारी ताकत बनाया और तमाम तरह की सांस्कृतिक- सामाजिक विविधताओं की मदद से भारतीयों को अंग्रेजों की राजनीति के बरक्स खुद अपनी तरह की राजनीति सिखाई। जभी वे मि लकर एक लोकतंत्र गढ़ सके। हर जाति, धर्म, प्रांत के हमारे सैकड़ों अनुशासित शिक्षकों ने वे इंजीनियर और बुद्धिजीवी तैयार किए जिन्होंने (बाहरी ज्ञान से आयातित वैज्ञानिक और मशीनी क्षमता को बिना नकारे) हमारी निरक्षरता, भूख और गरीबी को कम किया और कई जटिल बांधों, इस्पात संयंत्रों से लेकर जटिल अंतरिक्ष यानों तक को रचा है।
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गांधी की खराद पर तैयार मानसिकता ने ही हमको सर्वधर्मी अखिल भारतीय राष्ट्रीय वफादारियां दीं, जिन को पनपाए बिना एक आधुनिक समावेशी लोकतंत्र गढ़ा जाना असंभव था। इस मुहिम पर पाकिस्तान शुरू से पिछड़ा तो पिछड़ा ही रहा और होते-होते लोकतंत्र की जगह सेना ने ले ली। यह सब जानने के बाद भी जिन के मन में यह इच्छा है कि परमाणु बम चलें तो चलें, पर एकबारगी से पड़ोसी देश और घाटी के लोगों के उपराष्ट्रवादी तेवरों से हिसाब बरोबर कर ही लिया जाए, कहना होगा कि वे एक गहरी मृत्युकामना से पीड़ित परममूर्ख हैं। टीवी पर गरजते चंद मुच्छाड़ रिटायर्ड सैनिकों या पांच उंगलियों में पंद्रह अंगूठियां पहने संतों-साध्वियों की मार्फत इस तरह की मृत्युकामना को जनता के बीच बेलगाम छोड़ा जाना सबसे बड़ा देशद्रोह है।
अब रही बात अंतरराष्ट्रीय संगठनों की, उनसे या महादेशों से कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ अपने पक्ष में वक्तव्य जारी करवाना उससे भी बड़ी बेवकूफी है। सब जानते हैं कि दुनिया में हर देश अपनी कूटनीतिक दोस्ती से ऊपर अपने राष्ट्रहित रखता रहा है। अमेरिका ने पेरिस सम्मेलन में ही पर्यावरण सुरक्षा के लिए मदद देने से साफ इनकार कर दिया, क्योंकि उसके अपने कॉरपोरेट स्वार्थ आड़े आते थे। जबर्दस्त का ठेंगा सर पर। सो उसकी बेवफाई पर पेरिस से जिनेवा तक कूटनीतिज्ञों के बीच चुप्पी रही। आए दिन प्रशांत महासागर में उत्तरी कोरिया आणविक शस्त्रों के परीक्षण से धमाल मचाता रहता है, सऊदी शासक अमेरिकी पत्रकार को मरवा कर उसकी लाश टुकड़े-टुकड़े कर कहीं फिंकवा देता है, चीन हांगकांग का बैंड-बाजा बजा रहा है, पाकिस्तान ने बलोचियों के बीच शिकारी कुत्तों की तरह तालिबान छुड़वा दिए, विश्व बिरादरी ने उन सबका क्या कर लिया?
पर्व का महीना है, पर मंदी के मारे माल नहीं बिक रहा। क्या इस समय में भी हमको देश का टुकड़े-टुकड़े हो जाना मंजूर है, पर कश्मीरी नेतृत्व और पड़ोसी से बातचीत करना नहीं? अलबत्ता देश के दर्जनों शीर्ष कलाकारों और अवकाशप्राप्त नौकरशाहों की शिकायतों की सुनवाई की जगह उनके खिलाफ नए देशद्रोह कानून की तहत सुनवाई को हरी झंडी देकर उसने अपने लिए एक और सरदर्द नाहक मोल ले लिया है। जो भव्य बहुमत इस सरकार को जनता ने दोबारा दि या था, उससे सरकार से फराखदिली दिखाते हुए राष्ट्रीय एकता बढ़ने और बहुलतावाद का संरक्षण करने की उम्मीद बनती थी। पर कहना होगा कि कट्टरपंथी हिंदुत्व को ही इकलौता राजनीतिक हथियार बनाने की जिद और प्रशासन के अहंवादी बर्ताव के कारण एक ऐसी क्रांति होते-होते रह गई जिसके लिए देश तैयार था।
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