अपने लंबे इतिहास में राजधानी दिल्ली बार-बार बसी और उजड़ी है। मुहम्मद तुगलक से लेकर अकबर और ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजधानी यहां से हटाकर अन्य जगह ले जाने के प्रयोग किए। पर कुछेक समय तक उलट-पलट के बाद दिल्ली ही दोबारा राजधानी बन गई। ऐसी नगरी में राजनीति के बदलाव का दौर सिर्फ कुछ सत्तारूढ़ या सत्ता से दर बदर हुए घरानों या दलों तक सीमित नहीं रहता। वह कई तरह की अनकही उलझनों से भरा और कहीं न कहीं बहत गहरे सामूहिक मानवीय अनुभवों और दर्शन से भी जुड़ा साबित हुआ होता है।
सत्ता के बदलाव के इन पहलुओं को अक्सर राजनेता नहीं, साहित्यकार का मन ही पकड़ पाता है। वजह यह, कि वह निजी राग-द्वेष या लालच की तहत फौरी डायग्नोसिस नहीं देता। बदलाव को वह तटस्थ मन से देश की सनातन विचार परंपरा की रौशनी में परखता है। आज जबकि 2019 के चुनाव खत्म हो चुके हैं और यह क्षण इसी तरह के सही शोध-बोध का है। पर यह काम दलीय प्रवक्ताओं और तथाकथित विशेषज्ञों की चें-चें, पें-पें से भरी टीवी बहसों की या राजनेताओं की फब्तियों, उक्तियों की तरफ से कान बंद करके ही किया जा सकता है।
संतन को कहा सीकरी सों काम? आते जात पनहियां टूटीं बिसर गयो हरिनाम
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सो चलिए इस बार के जनादेश को बाहर खड़े होकर देखा जाए। विजय गर्व से दमकते सत्ता पक्ष की जयकार बुलवा रहे पक्ष का सवाल चौखट पर रोकता है। राजनीतिक बदलाव में जो दौर पीछे छूट गया, जो दल वनवास भेज दिया गया, उसके इतिहास पर इतना क्या सोचना? क्या मतदाता ने इस बार यह साफ नहीं जता दिया है कि उसे राजनीति के शीर्ष पर पुराना संभ्रांत वर्ग (जाने क्यों अच्छी भली हिंदी बोलने वाले भी इसके लिए अंग्रेजी के ‘इलीट’ या ‘खान मार्केट गैंग’ सरीखे विशेषण इस्तेमाल कर रहे हैं) कुबूल नहीं है।
नए को समझो, उसका स्वागत करो। इलीट वर्ग और उसकी विचारधारा और जीवन शैली पर खाक डालो। जीत के बाद हारे हुओं की खिल्ली उड़ाना हर विजयी दल का प्रिय शगल होता है। मौजूदा पार्टी ही इसका अपवाद क्यों हो? पर इस बार खिल्ली का विषय चयन कठिन है। वाम दल की समाप्तप्राय धारा के मद्देनजर पुराने आरोप, शंकाएं या उपहास बेमानी पड़ चुके हैं। केंद्र द्वारा तेजी से अपनी विचारधारा में रंगे जा रहे जेएनयू के लिए ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का विशेषण या कि बड़ी तादाद में पिछले पांच सालों में बड़े सरकारी पुरस्कारों के कृतज्ञ लाभार्थियों के द्वारा की जा रही हर मंच से वंदना के बाद ‘अवार्ड वापसी गैंग’ को कोसना भी अब पहले की तरह सरकारी मीडिया प्रकोष्ठ के दिल की कली नहीं खिला सकता है।
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‘भारतमाता ग्रामवासिनी, खेतों में फैला है अंचल धूल धूसरित’... किस्म का ‘हम गरीब बनाम वे शहरी थैलीशाह’ वाला रुदन भी अब संभव नहीं। वजह यह कि इस बार की नवनिर्वाचित लोकसभा खुद भी करोड़पतियों से भरी पूरी है, जिनकी निजी संपत्ति का औसत लगभग 20.9 करोड़ बताया जा रहा है। तो सत्तारूढ़ दल के लोग देश की कुल आबादी के 0.1 फीसदी संपन्नतम वर्ग के सदस्य साबित होने के बाद अब तर्क दे रहे हैं कि मां भारती तरक्की कर गरीबी से उबर चुकी है, देखा नहीं कि इन चुनावों में धर्म और जाति के रसायनों से वोट बैंकों की कितनी सफल लामबंदी की गई?
‘नामदार बनाम कामदार’ की तुकबंदी भी सुनने में नहीं आ रही। ऊपर वाले की कृपा से सत्तारूढ़ सरकार में कितने नामदार आ गए हैं। 40 करोड़ की घोषित संपत्ति वाली बादल परिवार की बहू हरसिमरत कौर, मेनका गांधी, वरुण गांधी, धौलपर के राजकुंवर और जयपुर की राजकुमारी जैसे नामदार खानदानी रईस लोग भारी बहुमत से चुनाव जीत कर सांसद बन गए हैं तो नामदार कामदार छोड़ो।
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फिर वे सोचते हैं चलो खान मार्केट पर ही चर्चा करें। सुनें कि पुराने रईस क्या खा-पहन या पढ़ रहे हैं! युवा वर्ग भी अब इस ‘चलो जरा खान मार्केट तक टहल आते हैं,’ वाली कामना से सहमत है। उसकी अपनी इच्छा पहले की पीढ़ी के झोलाधारियों की तरह किसी गांव में जाकर एनजीओ खोलकर धूल-पानी के बीच रहते हुए जनसेवा करने की नहीं है। वह पुराने अमीरों की नए अमीरों द्वारा टीवी पर खिंचाई सुन हंसता है। पर उस हंसी में कुंठा अधिक है, देश प्रेम या समाज सुधार के लिए लगाव बहुत कम।
फेसबुक गवाह है कि आज का औसत मिलेनियल सोशल मीडिया पर सेल्फी युग का अमरत्व हासिल करने, विदेश जाकर पढ़ने, अपने दोस्तों के साथ मॉल जाकर कीमती सामान मोलाने, रेस्तरां-पब गुलजार करने और अंतत: खुद भी एक सेलेब्रिटी नामदार बनने के ही सपने दिन-रात देखता है। भारत, चीन या जल संकट से अधिक चिंता उसे अपनी पोस्ट पर आने वाली लाइक्स की रहती है। रही बात भ्रष्टाचार की, सो उनके लिए इतना ही काफी है कि भगोड़े माल्या और नीरव मोदी पर सात समुंदर पार अदालती कार्रवाई चालू है। बैंकिंग के कई बड़े सितारों को भी अस्ताचलगामी बना दिया गया है।
चीन के देंग श्याओ फिंग के व्यावहारिक मुहावरे में यह भारतीय मतदाता भी सोचता है कि बिल्ली काली हो या सफेद, इससे क्या फर्क पड़ना है? इतना ही जरूरी है कि वह उसकी खातिर चूहे पकड़ सकती हो। तो इस तरह कुल मिलाकर हमको तो भविष्य के लिए जो आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सपने जगाए, गढ़े और मीडिया की मार्फत प्रचारित किए जा रहे हैं, बारीकी से देखने पर क्रांतिकारी नहीं यथास्थितिवादी ही दिख रहे हैं।
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एक गुलाबी अखबार ने यह भी भली याद दिलाई है कि ‘खान मार्केट गैंग’ का विशेषण दरअसल मीडियावालों के बीच सभी दलों के खाते-पीते सांसदों के समूह के लिए मजाक-मजाक में बना था।यह वे गुट थे, जिनको संसद के सेंट्रल हॉल में मिलने वाला रेलवई का खाना रास नहीं आता था और अच्छा कुछ खाने-पीने के लिए यह मंडली संसदीय सत्र के दौरान अक्सर दोपहर में खान मार्केट के किसी दामी रेस्तरां का रुख करती दिखती थी। बहरहाल, इन दिनों खान मार्केट गैंग विशेषण को पुरानी इलीट का समानार्थक बनाकर धड़ल्ले से टीवी और सोशल मीडिया पर फेंका जा रहा है।
दूसरी गुप्त सच्चाई यह है कि लुटियंस इलाके की लगभग सारी कोठियां सरकार के शीर्ष मंत्रियों और बड़े बाबुओं को आवंटित होती रही हैं। सो आज की सरकार के ही लोग सही मायने में आज का लुटियंस गैंग ठहरते हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या? आप किसी भी समय खान मार्केट चले जाइए आपको वहां इन्हीं के भीमकाय काले कैट कमांडो और बड़ी-बड़ी एसयूवी गाड़ियां मार्केट में उनके बीबी-बच्चों को शॉपिंग कराते या मालिकान के किसी रेस्तरां से खा-पीकर लौटने के इंतज़ार में चहलकदमी करते दिख जाएंगे।
तब ‘मीर’ की तरह उजड़ी दिल्ली के दयार के गरीब बाशिंदों, खासकर मीडिया के वरिष्ठ जनों को, अचानक खान मार्केट गैंग के खास उल खास नाम से काहे नवाजा जा रहा है? दरअसल, पत्रकारों और पढ़ने-पढ़ाने वालों के आकर्षण का विषय उस इलाके की ‘बाहरी संस’ या ‘फकीरचंद’ सरीखी पीढ़ियों पुरानी किताबों की दुकानें ही बची हैं, जो कमर्शियल आग्रह कम पुस्तक प्रेम के कारण ही अधिक चल रही हैं, और कब तक चलेंगी कहना कठिन है। उनमें घंटों नई किताबें पलटना वहां के जानकार पुराने कर्मचारियों से लेखकों की बाबत गप लड़ाने का अपना ही सुख है।
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और पुराने किताबी कीड़ों के लिए ऐसी रसमय जगहें अब शेष दिल्ली में बहुत कम बची हैं। पब्लिक लायब्रेरियां तो और भी कम। पार्कों, कहवाखानों की न पूछिए, जिनकी जगह छोटे-बड़े पब हर जगह उपज रहे हैं। वहां बाहर पहलवानी व्यायमशालाओं से निकले मुच्छड़ दरबान पहरा देते हैं और भीतर अनवरत नाच-गाना और शराबनोशी चलती रहती है।
सो खान मार्केट में बची-खुची लुप्तप्राय सरस्वती धाराओं से ज्ञान रस ग्रहण करने, घर खर्च में कटौती करके भी किताबें खरीदने, और उजड्डता भरे अराजक कैंपसों में पढ़ने-पढ़ाने वालों का सीमित विद्याव्यसनी वर्ग बस किताबें खरीदता है। यह वही समुदाय है जो भारत की असली परंपराओं, 1950 के संविधान निर्माताओं के द्वारा एक समन्वयवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भारत के सपनों का चश्मदीद गवाह और जानकार बचा है। कई बार अपनी नौकरी या सर गंवाने की कीमत पर भी दिल्ली के इसी वर्ग ने पीढ़ी दर पीढ़ी बर्बर जत्थों द्वारा उजाड़ी-जलाई जा रही ज्ञान की परंपराओं को वेदव्यास की तरह किसी सुदूर जंगल में छुपा कर बचाया भी है।
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