अंकित सक्सेना नामक एक 23 वर्षीय युवक की हत्या, उसकी मुस्लिम प्रेमिका के परिवार ने कर दी। अंकित अपने माता-पिता के एकमात्र पुत्र थे और जाहिर है कि उनकी मौत, उनके अभिभावकों के लिए दुःखों का पहाड़ बनकर आई होगी। परंतु यह देखकर हम सबको अत्यंत संतोष का अनुभव हुआ कि अपने पुत्र को खो देने के सदमे से गुजर रहे यशपाल सक्सेना ने इस घटना का साम्प्रदायिकीकरण करने से इंकार कर दिया। उन्होंने केवल यह बहुत जायज मांग की कि दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि लड़की के परिवार के फिरकापरस्त जुनून का दोष पूरे मुस्लिम समुदाय पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए। उन्होंने अपने पुत्र की याद में एक ट्रस्ट की स्थापना करने की घोषणा की, जो मूलतः अमन के लिए काम करेगा और विशेषकर ऐसे लोगों की मदद के लिए जो अपने धर्म से इतर धर्म के व्यक्ति से विवाह करना चाहते हों।
ऐसे ही एक अन्य मर्मस्पर्शी घटनाक्रम में एक अन्य पिता ने अपने पुत्र की मौत के लिए किसी समुदाय को जिम्मेदार ठहराने से इंकार कर दिया। मौलाना इमादुल रशीदी के 16 वर्षीय पुत्र की हत्या, पश्चिम बंगाल में रामनवमी जुलूसों के दौरान भड़की साम्प्रदायिक हिंसा में कर दी गई। मौलाना रशीदी, आसनसोल की एक मस्जिद के इमाम हैं। मस्जिद में श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने यह चेतावनी दी कि अगर उनके पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिए शहर में किसी भी प्रकार की हिंसा हुई तो वे मस्जिद छोड़कर चले जाएंगे। ये दोनों घटनाएं, भारत की मानवतावादी आत्मा के चमकदार उदाहरण हैं।
जहां एक ओर साम्प्रदायिक हिंसा का दानव और बड़ा होता जा रहा है, वहीं देश के संवेदनशील नागरिक और इस हालात से विचलित सामाजिक कार्यकर्ता यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वे किस तरह भारत में साम्प्रदायिक शांति और सौहार्द को बढ़ावा दें। भारत में मध्यकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच काफी मेलजोल था। राजाओं के दरबारों से लेकर उनकी सेनाओं तक, हर स्तर पर दोनों धर्मों के लोग साथ मिलकर काम किया करते थे। इसे ही भारत की गंगा-जमुनी तहजीब कहा जाता है। यह शब्द विशेषकर उत्तर भारत के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाता है जहां गंगा और यमुना का दोआब है और जहां भक्ति और सूफी परंपराएं जन्मीं और उन्होंने अकल्पनीय ऊंचाईंयां हासिल कीं, जहां दोनों समुदायों के बीच संगीत, साहित्य, स्थापत्यकला और खानपान के क्षेत्रों में अंतःक्रिया हुई। आज ‘‘दूसरों से नफरत करो‘‘ के जुनून के बीच हमें महात्मा गांधी को याद करना चाहिए, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज‘ में हिन्दुओं और मुसलमानों के मेलजोल के बारे में लिखते हुए कहा, ‘‘हिन्दू लोग मुसलमानों के मातहत और मुसलमान, हिन्दू राजाओं के मातहत रहते आए हैं। दोनों को बाद में समझ में आ गया कि झगड़ने से कोई फायदा नहीं; लड़ाई से कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेगा और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेगा इसलिए दोनों ने मिलकर रहने का फैसला किया। झगड़े तो अंग्रेजों ने शुरू करवाए...क्या हम इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानों के बाप-दादा एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें इससे क्या हो गया, जब तक कि हम एक ही लक्ष्य पर पहुंच रहे हैं। इसमें लड़ाई काहे की है?‘‘
इसी तरह, नेहरू ने अपनी कालजयी पुस्तक ‘भारत एक खोज‘ में मध्यकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गहरे रिश्तों के बारे में लिखा है। श्याम बेनेगल ने इस पुस्तक पर आधारित जो उत्कृष्ट टीवी सीरियल बनाया था, वह भारतीय संस्कृति का अत्यंत सुंदर और सटीक चित्रण करता है। यह सही है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान देश में तीन तरह के राष्ट्रवाद उभरे। पहला था गांधी-नेहरू-पटेल के नेतृत्व वाला कांग्रेस का भारतीय राष्ट्रवाद। दूसरा था मोहम्मदअली जिन्ना के नेतृत्व वाला मुस्लिम राष्ट्रवाद और तीसरा, उसके समानांतर परंतु उसका धुर विरोधी, हिन्दू राष्ट्रवाद, जिसके विचारधारात्मक नेता आरएसएस और सावरकर थे। जहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सभी धर्मों की एकता की पक्षधर थी और सभी धर्मों के लोगों की साझेदारी से एक नए भारत का निर्माण करना चाहती थी, वहीं मुस्लिम राष्ट्रवाद, मुस्लिम राजाओं का गौरवगान करते न थकता था और कहता था कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं। हिन्दू महासभा-आरएसएस का दावा था कि भारत मूलतः एक हिन्दू राष्ट्र है। इन दोनों साम्प्रदायिक राष्ट्रवादों ने इतिहास को अपने-अपने तरीके से तोड़ा-मरोड़ा और दोनों समुदायों के बीच नफरत की दीवार तामीर की। दूसरे धर्म के व्यक्ति से घृणा करने की भावना से जन्मी साम्प्रदायिक हिंसा, उससे उभरा धार्मिक ध्रुवीकरण और फिर साम्प्रदायिक पार्टियां इसे भुनाने के लिए चुनाव मैदान में उतर गईं। इसी ध्रुवीकरण के नतीजे में सन् 1940 के दशक में मुस्लिम लीग को मुसलमानों का अधिक समर्थन मिलने लगा तो दूसरी और हिन्दू राष्ट्रवादी आरएसएस ने शाखाओं के जरिए इतिहास के अपने संस्करण और अल्पसंख्यकों के विरूद्ध पूर्वाग्रहों का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया।
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आज हम जो देख रहे हैं, वह दूसरे से नफरत करो कि विचारधारा का चरमोत्कर्ष है। इसी के चलते मुंबई (1992-93), गुजरात (2002), कंधमाल, उड़ीसा (2008) और मुजफ्फरनगर (2013) जैसी वीभत्स हिंसा हुई। इन दिनों हिंसा इतने बड़े पैमाने पर नहीं हो रही है परंतु समाज को ध्रुवीकृत करने के प्रयास जारी हैं। अब यह काम राममंदिर, लवजिहाद, पवित्र गाय, भारतमाता की जय इत्यादि जैसे भड़काऊ और भावनात्मक मुद्दों को उछालकर किया जा रहा है। आग धधकती रहे इसलिए बीच-बीच में छोटे पैमाने पर हिंसा भी की जाती है। एक ओर जहां साम्प्रदायिक ताकतों और राजनैतिक दलों के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार हो रहा है और उन्हें चुनावों में विजय हासिल हो रही है, वहीं दूसरी ओर यशपाल सक्सेना और मौलाना रशीदी जैसे लोग, अंधेरे में प्रकाश स्तंभ के रूप में उभर रहे हैं। गुजरात में वसंतराव हेगिस्ते और रजब अली ने नफरत और खून-खराबे के विरूद्ध आवाज बुलंद की थी। मुंबई में 1992-93 के दंगों के दौरान कई इलाकों में लोगों ने अपना संतुलन नहीं खोया और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखा। हम सबको याद है कि मुंबई के धारावी इलाके में वकार खान और भाऊ कोरडे ने जनजागृति कार्यक्रमों और फिल्मों आदि के जरिए शांति का सन्देश लोगों तक पहुंचाया था।
आज समय आ गया है कि हम ऐसे कार्यक्रम और योजनाएं तैयार करें, जिनसे शांति के इन दूतों का काम और सन्देश आगे बढ़ाया जा सके, हम लोगों की आत्मा को छू सकें, उनके विवेक को जागृत कर सकें और शांति और सौहार्द की वापसी हो। हमें खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद और उनके जैसे अन्यों की भूमिका को याद रखना होगा। तभी हम एक बेहतर समाज और एक बेहतर देश का निर्माण कर सकेंगे।
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