अभी पिछले शुक्रवार को मेरी एक रिश्तेदार का निधन हो गया। 90 साल से ज्यादा की थीं। करीब छह माह से बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थीं। बेटी के साथ रह रही थीं और वह सुबह बिस्तर पर उन्हें साफ-सूफ करने के बाद ही नहा-धो पाती थी। अगर दिन में फिर जरूरत हो गई, तो फिर साफ-सफाई के बाद उसे नहाना-धोना पड़ता था। एक तरह से सभी लोग अंतिम समय की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उनके गुजर जाने की सूचना आई तो मेरे बेटे-बहू ने खुद तो जाने के प्रति अनिच्छा जताई ही, मुझे भी न जाने देने पर अड़ गए। वे यह बात बिल्कुल सुनने को तैयार नहीं थे कि उतनी बुजुर्ग महिला का तो वैसे भी निधन हो ही जाना था। मेरे छोटे बेटे का तर्क थाः क्या जरूरी है कि उन्हें कोराना नहीं हुआ होगा? मेरा मन बहुत व्यथित हुआ। मैंने अन्य लोगों से भी बात की। कोई नहीं गया था। बेटी-दामाद ने शव वाहन बुलवाया। पड़ोसी तक नहीं आए, तो अंततः कुछ मजदूरों का इंतजाम करना पड़ा। वे वाहन में बैठे और साथ श्मशान जाकर उन्होंने ही क्रिया-कर्म निबटाने में मदद की।
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यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय नहीं है। सामान्य दिनों में भी ऐसे अवसरों पर गाजियाबाद-दिल्ली के लोग आने-पहुंचने के लिए बहुत मुश्किल से समय निकाल पाते हैं। ऐसे में, मुझे दो-ढाई साल पहले अपने एक बुजुर्ग निकट संबंधी के भागलपुर में क्रिया- कर्म की याद हो आई। उनके बच्चे दिल्ली-देहरादून में रहते हैं, तो उनलोगों ने भी शव वाहन बुलवा लिया था और सारी व्यवस्था में लगे-भिड़े थे। अचानक कई मुहल्ले वाले जमा हो गए और उन लोगों ने कहाः क्या हम लोग भी मर गए कि आपने वाहन मंगवा लिया? आप लोग इन्हें अपने कंधे पर भले नहीं ढो सकते, हम इन्हें श्मशान घाट तक ले जाएंगे। फिर, बच्चों ने बिना उपयोग ही वाहन वापस कर दिए।
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इसलिए भी मैंने भागलपुर कॉल कर दिया। वहां से गुड्डू ने बतायाः यहां मुहल्ले में परसों ही एक व्यक्ति की मौत हो गई। वह युवा था लेकिन उसकी किडनी फेल हो गई थी। रिश्तेदार वगैरह जुटे। मुहल्लेवाले भी आ गए। तब ही, किसी ने कह दिया कि आखिर, कमजोर किडनी वालों को कोविड-19 भी तो घेर ही लेता है इसलिए कोई ठिकाना नहीं कि इसकी मौत भी इसी वजह से हो गई हो। कुछ ही देर में सभी लोग धीरे-धीरे खिसक लिए। जिसका निधन हुआ था, उसके पिता ने अंततः नगर निगम से शव वाहन बुलाया। वाहन चालक घर के अंदर तो जाता नहीं। बाहर ही था। उसकी एक-दो पड़ोसियों से बात हुई। उन लोगों ने कोविड वाली बात उसे भी बता दी। वह भी थोड़ी ही देर बाद वाहन लेकर निकल गया। वह तो भला हो पार्षद का। उन्होंने मदद की, तो दाह संस्कार किसी तरह हो पाया। यही नहीं, घर पर पूजा-पाठ कराने वाले पंडितजी भी नहीं आए और सारा विधि- विधान ऑनलाइन कर रहे हैं।
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इन दिनों ऐसा ही हो रहा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। हर आदमी को अपनी जान की फिक्र है और वह कोई रिस्क नहीं लेना चाहता। लेकिन भागलपुर के ही वरिष्ठ फोटोग्राफर मनोज ने एक और बात कहीः दादा, उसी दिन मैं बाजार गया था। कोई सोशल डिस्टेन्सिंग नहीं। इक्का-दुक्का लोगों ने ही मास्क लगा रखे थे। सावन का महीना शुरू होने में तीन दिन बचे थे और शनिवार को यहां काफी लोग नॉनवेज नहीं खाते, तो मटन की दुकान पर मानो धकमपेल मची थी। मछली बाजार में दिन में दस बजे भी कोई रेट नहीं पूछ रहा था; जो पसंद आए, तुलवा रहा था। फिर भी, खौफ में तो हैं ही लोग। कोई टेस्ट नहीं कराना चाहता लेकिन अगर कोई कोरोना पॉजिटिव हो गया, तो चाहते हैं कि उसके पूरे परिवार से ढाई- तीन किलोमीटर की दूरी बनाए रखें। पटना के वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद ने अभी फेसबुक पोस्ट किया हीः मेरी गली कन्टेनमेंट जोन में आ गई, तो लोगों ने फोन करना तक बंद कर दिया- अरे भाई, यकीन रखो, फोन से वायरस नहीं फैलता।
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हर कोई डरा हुआ है। लेकिन सबसे अधिक परेशान संभवतः वे बुजुर्ग हैं जिनकी संतानें कहीं बाहर हैं और उन्हें अकेले रहना पड़ रहा है। इन दिनों लगभग पूरी दुनिया में वर्क फ्रॉम होम का चलन है। ऐसे में, दोनों ही बातें हो रही हैं: लोग मान रहे हैं कि अब काम के घंटे निर्धारित नहीं रह गए हैं। जो दफ्तर से आकर सुकून से समय बिताते थे, उन्हें भी घर में 12-14 और कभी-कभी तो 15-16 घंटे तक काम में लगे रहना पड़ रहा है। सुबह जगे नहीं कि फोन पर लग जाना पड़ता है, लैपटॉप खोलकर बैठ जाना पड़ता है। पर, दूर देश में रह रहे लोग भी अपने मां-बाप से बातकर लेने का समय, लगता है, थोड़ा ज्यादा निकाल रहे हैं या उन्हें निकालना पड़ रहा है। सब एक ही बात कहते हैं: ठीक से रहिए। तबीयत ठीक नहीं है, तो डॉक्टर से तुरंत ऑनलाइन बात करिए। कुछ गड़बड़ हुई, तो हम लोग अभी नहीं आ पाएंगे।
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गाजियाबाद की सबसे बड़ी हाउसिंग सोसाइटी में रह रही उषा बताती हैं: कनाडा में रह रही बेटी से फोन पर इन दिनों कम-से-कम एक बार तो बात हो ही जाती है, हालांकि सने इतने प्रकार के निर्देश दे रखे हैं कि मैं अपनी बालकोनी में भी खड़ी नहीं हो पाती, नीचे उतरकर सड़क पर जाने की तो बात ही छोड़िए। सारा सामान ऑनलाइ नहीं मंगा रही हूं। हम दोनों पति-पत्नी एक फ्लोर की सीढ़ियां चढ़कर छतपर ही वॉक करने सुबह-शाम जाते हैं। हमारी सोसाइटी की कमेटी ने इतने प्रकार के निर्देश जारी किए हुए हैं कि मार्च अंत के बाद से काम वाली बाइयां भी नहीं आ रहीं। सो, झाड़ू-पोछा-बर्तन सब हम दोनों जन ही कर रहे।
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वैसे, उसी सोसाइटी में ही रहे रमेश उतने सौभाग्यशाली नहीं हैं। उनका बेटा बेंगलुरु में रहता है। वह पिछले दो महीने से कम पैसे भेजने लगा है। बेटे ने बताया नहीं है, पर रमेश जी को लग रहा है कि या तो बेटे की नौकरी चली गई है या वह कॉस्टकटिंग का शिकार हो गया है। उन्हें पैसे की तंगी नहीं है लेकिन वह जानते हैं कि दोनों ही स्थितियों में बेटे को अभी झेलना होगा क्योंकि आनलॉक-2 की घोषणा हो जाने के बावजूद लॉकडाउन-1 से हालात बने रहेंगे। यह शायद पूरे देश की ही हालत है।
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