पिछले कुछ समय से उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्या की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं।आत्महत्या करने वाले अधिकांश विद्यार्थी दलित और आदिवासी होते हैं। यद्यपि कुछ अन्य वर्गों के विद्यार्थी भी पढ़ाई के बोझ से त्रस्त होकर मौत को गले लगा लेते हैं।
रोहित वैमुला के मामले में जातिगत भेदभाव ने उसे अपनी जान लेने पर मजबूर किया था। उस पर राष्ट्रद्रोही का लेबल चस्पा कर दिया गया था। दो अन्य ऐसे ही मामले पायल तड़वी और फातिमा लतीफ के हैं। तड़वी, स्त्री रोग विशेषज्ञ बनने की ओर थी, जबकि फातिमा लतीफ, आईआईटी मद्रास में स्नातकोत्तर पाठयक्रम में अध्ययनरत थीं। भील मुसलमान पायल तड़वी डॉक्टर सलमान तड़वी की पत्नी थीं और उन्हें उनके वरिष्ठ विद्यार्थियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता था।
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वहीं फातिमा लतीफ एक मेधावी विद्यार्थी थीं और आईआईटी में अधिकांश परीक्षाओं में उन्होंने सर्वोच्च अंक हासिल किए थे। परंतु पूर्वाग्रहों के चलते आतंरिक परीक्षा में उन्हें बहुत कम अंक दिए गए। उन्होंने अपने पिता को पत्र में लिखा, ‘‘डैड, मेरा नाम अपने आप में समस्या है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि उनके एक अध्यापक उन्हें लगातार अपमानित करते हैं।
हमारे देश में किसी को भी दलित या आदिवासी या ट्रांसजेंडर होने के कारण तिरस्कृत या अपमानित किया जाना आम है। लेकिन पायल और फातिमा के मामले में मुसलमानों के प्रति समाज में व्याप्त नफरत के भाव ने भी भूमिका अदा की। ऐसा केवल भारत ही नहीं वरन् पूरी दुनिया में हो रहा है। इस प्रवृत्ति ने 9/11 के बाद जोर पकड़ा। अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद‘ शब्द गढ़ा और इसका जमकर उपयोग शुरू कर दिया और ये पूरी दुनिया में फैल गया।
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आतंकवाद का धर्म से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा। इंग्लैड में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न थी और श्रींलंका में बौद्ध भिक्षु। राजीव गांधी की हत्या करने वाली धानु हिन्दू थी और उसके संगठन एलटीईई में केवल हिन्दू थे। परन्तु 9/11 के पहले तक आतंकवाद से कभी धर्म को नहीं जोड़ा जाता था। कहने की जरुरत नहीं कि यह हमला अत्यंत भयावह और घृणित था, जिसमें 3,000 से ज्यादा मासूम लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
इस हमले के लिए ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा को दोषी ठहराया गया। यह अलग बात है कि अल कायदा का निर्माता अमरीका ही था, जिसने उस संगठन को 8 करोड़ डॉलर और सात हजार टन असलहा उपलब्ध करवाया था। अध्येता महमूद ममदानी ने सीआईए के दस्तावेजों पर आधारित अपनी पुस्तक ‘गुड मुस्लिम, बैड मुस्लिम’ में विस्तार से बताया है कि अमरीका ने किस तरह अल कायदा को खड़ा किया और किस तरह, इसके लड़कों के दिमागों में जहर भरने के लिए पाठ्यक्रम वाशिंगटन में तैयार किया गया।
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बाद में, पश्चिम एशिया में अमरीकी नीतियों- विशेषकर कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा करने की अमरीका की लालसा के चलते आईएसआईएस और आईएस जैसे संगठन अस्तित्व में आए। हिलेरी क्लिंटन ने खुले आम यह स्वीकार किया था कि अमरीका ने अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं से लड़ने के लिए अल कायदा को खड़ा किया था। उन्होंने कहा था, “हमें याद रखना चाहिए कि...जिन लोगों से हम आज लड़ रहे हैं, उन्हें बीस साल पहले हमने ही धन उपलब्ध करवाया था.. ये कहते हुए कि- आओ हम इन मुजाहिदीनों को भर्ती करें... इस्लाम के वहाबी संस्करण का आयात करें ताकि हम सोवियत संघ को परास्त कर सकें।”
विश्व में इस्लाम को आज यदि घृणा की दृष्टि से देखा जा रहा है तो उसके पीछे अमरीका की खतरनाक चालें हैं। इस वैश्विक इस्लामोफोबिया ने भारत में मुसलमानों के बारे में पूर्वाग्रहों को और गहरा किया है। इन पूर्वाग्रहों की जड़ें अंग्रेजों द्वारा किए गए सांप्रदायिक इतिहास लेखन में हैं। अंग्रेजों ने इतिहास को हिन्दू और मुस्लिम काल में विभाजित किया। जो बीज अंग्रेजों ने बोया था उसे सांप्रदायिक संगठनों, विशेषकर आरएसएस ने सींचा। मुस्लिम लीग ने इतिहास का अपना संस्करण बना लिया, जिसमें मुसलमानों को इस देश के शासक के रूप में प्रस्तुत किया गया।
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आरएसएस की शाखाओं में बच्चों और युवाओं को यह सिखाया जाता है कि मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू मंदिर तोड़े और तलवार की नोंक पर इस्लाम फैलाया। औरंगजेब को एक दानव के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। देश भर में फैले सरस्वती शिशु मंदिरों और संघ के अन्य संगठनों द्वारा अनवरत हिन्दुओं का महिमामंडन और मुसलमानों का दानवीकरण किया जाता है।
साल 1980 के दशक में मुसलमानों के दानवीकरण की प्रक्रिया में और तेजी आई और इसका कारण था राम मंदिर आंदोलन। यह प्रचारित किया गया कि बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने राम के जन्मस्थान पर बने मंदिर को तोड़कर उसके मलबे पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था। यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया निर्णय में यह स्पष्ट कर दिया है कि यद्यपि बाबरी मस्जिद के नीचे एक गैर-इस्लामिक ढांचा जरूर था, लेकिन यह ढांचा मंदिर था या उस स्थान पर राम पैदा हुए थे या मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, इसका कोई प्रमाण नहीं है।
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यह अफसोस की बात है कि ये तथ्य काफी देर से सामने आ सके। यही कारण है कि फातिमा के शिक्षक और पायल तड़वी के सीनियरों के दिमाग में मुसलमानों के बारे में जहर भरा हुआ है।आमजनों की मानसिकता का निर्माण करने में मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका होती है। मीडिया की शक्ति कितनी अधिक है, यह इससे साफ है कि अमरीका द्वारा वियतनाम पर हमले को मीडिया ने इस आधार पर उचित ठहराया कि औपनिवेशिक शासन से वियतनाम की मुक्ति, स्वतंत्र दुनिया के लिए खतरा है। नोम चोमस्की ने एकदम ठीक कहा है कि “अमरीकी मीडिया, अमरीका की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ‘सहमति का उत्पादन‘ करता है।”
उसी तर्ज पर आज भी अमरीकी मीडिया इस्लाम के खिलाफ घृणा फैला रहा है। भारतीय मीडिया न केवल अमरीकी मीडिया की बातों को दुहरा रहा है, बल्कि वह संघ की प्रचार मशीनरी की भी मदद कर रहा है। जिसके नतीजे में मुसलमानों के प्रति समाज में नफरत का भाव व्याप्त होता जा रहा है।इस वजह से आमजन में बड़ी तेजी से इस्लामोफोबिया घर करता जा रहा है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या फातिमा और पायल जैसे लोगों को अपमान और लांछनों से बचाया जा सकता है? संभावना तो यही है कि देश में कई फातिमाएं और पायलें होंगी। हम हिंदू राष्ट्रवादियों और अमरीकी मीडिया द्वारा इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ फैलाए जा रहे दुष्प्रचार का मुकाबला करने में असफल रहे हैं। इस दुष्प्रचार से मुस्लिम समुदाय को किस तरह की दुश्वारियों और मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है यह सबके सामने है। क्या हम आगे बढ़कर मुसलमानों, आदिवासियों, दलितों और अन्य कमजोर वर्गों को खलनायक सिद्ध करने के प्रयासों के खिलाफ आवाज उठाएंगे?
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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