चुनावी फायदे के लिए कुछ ऐलान कर देना और जरूरी कानून अधिकार देने में बड़ा अंतर है। महिलाओं के अधिकारों के लिए लोकसभा द्वारा पारित विधेयक, यानी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण, 90 के दशक में ही महिलाओं को दिया जाना चाहिए था, लेकिन 9 साल की मजबूत बहुमत वाली मोदी सरकार को भी सत्ता में आने के बाद महिलाओं के बारे में उस समय विचार आया जब देश के आम चुनाव बस चंद महीने दूर हैं। महिलाओं को सिर्फ एक वोटर केटेगरी मानना महिलाओं के साथ एक घटिया मजाक है। सरकार में बैठे लोगों को इस बात को समझना चाहिए कि इस देश की महिलाएं हर क्षेत्र में काफी आगे बढ़ चुकी हैं।
लेखिका निधि शर्मा ने अपनी पुस्तक 'शी द लीडर, वीमेन इन इंडियन पॉलिटिक्स' की भूमिका में भारत में महिलाओं के संघर्ष का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने सीएसडीएस के संजय कुमार के एक बयान का हवाला दिया है, जिसमें संजय कुमार ने कहा, ''2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में हमने पहली बार यह बदलाव देखा कि महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों की तुलना में अधिक था।'' और तब से ये ट्रेंड कई राज्यों में देखने को मिला है। यह ट्रेंड अब 15-16 राज्यों में देखा जा रहा है।'' इसका मतलब साफ है कि महिलाओं में बढ़ते शैक्षिक रुझान, मीडिया (यानी समाचार) के बदलते स्वरूप के कारण भारतीय महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता काफी बढ़ी है। और उनमें अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता भी बढ़ी है।
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संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने के बिल के पीछे महिलाओं का लंबा संघर्ष है। निधि शर्मा लिखती हैं कि संविधान सभा की सदस्य पूर्णिमा बनर्जी ने 11 अक्टूबर 1949 को कहा था, “मैं यह स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि महिलाएं किसी भी प्रकार का आरक्षण नहीं चाहतीं, लेकिन मेरा सुझाव है कि यदि संविधान सभा की किसी महिला सदस्य की सीट खाली होती है तो उसे महिल से ही भरा जाना चाहिए।“ यानी पहले महिलाएं किसी भी आरक्षण के पक्ष में नहीं थीं और पूर्णिमा बनर्जी ने पहली बार दबी जुबान में यह बात कही।
निधि लिखती हैं कि 1970 के दशक में महिला एक्टिविस्ट्स ने पहली बार अपना ध्यान भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका की ओर लगाया क्योंकि आजादी के बाद शुरुआती उत्साह फीका पड़ गया था और महिलाओं का राजनीति से मोहभंग हो गया था। निधि लिखती हैं कि 1975 में संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की कि 1975 'महिलाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष' होगा।
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संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं को लेकर सभी सदस्य देशों से रिपोर्ट मांगी थी। इसी कारण से शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय ने दस सदस्यीय समिति का गठन किया और इस समिति की रिपोर्ट महिलाओं के संबंध में अब तक की सबसे व्यापक रिपोर्ट कही जा सकती है। निधि ने समिति की रिपोर्ट के संदर्भ में लिखा है, "कुछ राजनीतिक दल महिलाओं की उन्नति के लिए दिखावा करना जारी रखेंगे और कुछ सांकेतिक कार्रवाई करेंगे।"
निधि ने लिखा है कि महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सबसे गंभीर कदम 1980 में कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े सरकार ने उठाया था जब कर्नाटक सरकार ने राज्य के पंचायती राज निकायों में महिलाओं के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित की थीं। एक लंबी यात्रा के बाद, 1988 में दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक बनाने और महिलाओं के लिए आरक्षण लागू करने का निर्णय लिया। निधि लिखती हैं कि राजीव गांधी ने अपने विश्वासपात्र खास और मंत्री मणिशंकर अय्यर को उनके लिए इस पर चर्चा करने का काम सौंपा था। जब मणिशंकर इर ने इस विषय पर अपने साथी मंत्री भजन लाल से बात की तो भजन लाल ने कहा, ''यह तो ठीक है, लेकिन हमें इतनी सारी महिलाएं कहां मिलेंगी।'' इस पर उन्होंने कहा था, ''कोशिश करो....''
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सच तो यह है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान दूरदर्शी और प्रबुद्ध नेता थे। जिस समय महिलाएं राजनीतिक रूप से इतनी जागृत नहीं थीं, उन्होंने देश के पहले चुनाव के नतीजों के बाद 18 मई, 1952 को देश के मुख्यमंत्रियों को लिखा, "मुझे बड़े अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि महिलाएं कितनी कम संख्या में महिलाएं निर्वाचित हुई हैं और मुझे लगता है कि राज्य विधानसभाओं और परिषदों में भी ऐसा ही हुआ होगा। इसका मतलब किसी के प्रति नर्म पक्ष दिखाना या किसी अन्याय की ओर इशारा करना नहीं है, बल्कि यह देश के भविष्य के विकास के लिए अच्छा नहीं है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारी वास्तविक प्रगति तभी होगी जब महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका निभाने का पूरा अवसर मिलेगा।“
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महिला आरक्षण बिल हमेशा से एक बेहद भावनात्मक मुद्दा रहा है। इससे पहले 1996, 1998 और 1999 में महिलाओं के लिए संसद और राज्य विधानसभाओं में 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के लिए एक विधेयक पेश करने का प्रयास संसद में हमेशा हंगामेदार रहा है। सत्रहवीं लोकसभा यानी 2019-2024 में वर्तमान में 82 महिला सदस्य हैं जो स्वतंत्र भारत में अब तक की सबसे अधिक यानी 15% है। गौ किरतलब है कि 1952 में हुए पहले संसदीय चुनाव में 24 महिला सांसद निर्वाचित हुई थीं जो कुल संख्या का 4.4% थी। सबसे अच्छी बात यह है कि देश को अब तक इंदिरा गांधी के रूप में एक महिला प्रधानमंत्री मिली है। महिलाओं के लिए आरक्षण हमारे निर्वाचित सदस्यों द्वारा महिलाओं की भूमिका की मान्यता है, चाहे वे चुनावी हों या नहीं।
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