विचार

पंडित जवाहरलाल नेहरूः आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री, जिसने आज के नए भारत को गढ़ा

पंडित नेहरू की लोकतंत्र में गहरी आस्था थी। अटल बिहारी वाजपेई जैसे युवा विपक्षी सांसद को गढ़ने का काम नेहरू जी जैसा प्रधानमंत्री ही कर सकता था। चीन से पराजय के बाद जनसंघ के चौदह सदस्यों के नोटिस पर सदन में चर्चा कराने से भी वे पीछे नहीं हटे और जवाब भी दिया।

आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही आज के नए भारत को गढ़ा
आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही आज के नए भारत को गढ़ा फोटोः सोशल मीडिया

आज देश भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के 134 वें जन्मदिन पर उन्हें स्मरण कर रहा है। बच्चों के प्रति विशेष लगाव के चलते उनका जन्मदिन ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनके व्यक्तित्व, खासकर निजी जीवन को लेकर बहुत से दोषारोपण किए जाते हैं और कतिपय नीतियों को लेकर सारा दोष उनके मत्थे मढ़ देने का फैशन सा चल निकला है। इन सबके बावजूद स्वतंत्र भारत में नेहरूयुग की अनदेखी कर पाना नामुमकिन है।

नेहरू जी के पिता मोतीलाल नेहरू अपनी वकालत, महंगी फीस, राजा-महाराजाओं और अंग्रेजों से दोस्ती और अमीरी के किस्सों के लिए सारे भारत में विख्यात थे। महात्मा गांधी के आह्वान पर शुरू हुए ‘असहयोग आंदोलन’ ने पूरे परिवार की जीवन शैली बदल डाली। पिता-पुत्र की जोड़ी ने अदालत जाना बंद कर दिया, घर से अनेक नौकरों की विदाई हो गई, कीमती सामान फर्नीचर आदि समाप्त होने लगे। विलायत के महीन कपड़ों की जगह मोटे खद्दर ने ले ली।

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भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ग्यारह वर्ष उन्होंने ब्रिटिश सरकार की जेलों में बिताए। अक्सर जब परिवार को उनकी आवश्यकता होती तो वे जेल में होते। उनके पिता मसूरी से इलाज कराकर इलाहाबाद वापस आए और उसी दिन, 18 अक्टूबर 1930 को एक जनसभा को संबोधित करते हुए जवाहरलाल गिरफ्तार कर लिए गए, वे अपने बीमार पिता से मिल भी नहीं सके। पत्नी जब भुवाली सेनीटोरियम में इलाज करवा रही थीं तब वे अल्मोड़ा की जेल में बंद थे। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय तो परिवार के सभी वयस्क सदस्य जेल में बंद थे।

गुपचुप तरीके से भारत लाए गए ‘आजाद हिन्द फौज’ के सेनानियों को ब्रिटिश सरकार मौत के घाट उतारना चाहती थी, लेकिन गांधीजी के निर्देश पर कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा पारित प्रस्ताव नेहरू जी ने तैयार किया था। इसके फलस्वरूप कांग्रेस ने ‘आजाद हिन्द फौज’ के सदस्यों का मुकदमे में बचाव किया था। इस उदाहरण से नेहरू जी की यह सोच और पुख्ता हुई थी कि स्वतंत्रता संग्राम में गांधी मार्ग ही उचित है, सशस्त्र युद्ध अथवा विदेशी मदद से भारत को स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। उन्होंने जापान से सैन्य मदद लेकर भारत को स्वतंत्र कराने के किसी भी उद्देश्य का समर्थन नहीं किया।

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आजाद भारत का नेतृत्व किसे दिया जाए, यह महत्वपूर्ण प्रश्न महात्मा गांधी के सामने था। जवाहरलाल नेहरू और गांधीजी के बीच मतभेद थे। गांधी के विकास का रास्ता देहात से शुरू होता था, दूसरी ओर नेहरू शहरीकरण के हिमायती थे। गांधीजी के लिए मजदूर, किसान, कामगारों का उत्थान सर्वोपरी तो था, पर वे पूंजीपतियों के भी खिलाफ नहीं थे। नेहरूजी पूंजीवादियों से पर्याप्त दूरी के पक्षधर थे और भारत को यूरोपीय देशों की तर्ज पर समाजवादी लोकतान्त्रिक देश बनाना चाहते थे। इसके बावजूद औद्योगीकरण को प्राथमिकता देने के साथ-साथ नेहरूजी ने ग्रामीण विकास के मूल स्तम्भ कृषि और कुटीर उद्योग को भी बढ़ावा दिया।

पहली पंचवर्षीय योजना में ही कृषि क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर सिंचाई हेतु ‘भाखरा-नंगल’ जैसी बड़ी सिंचाई परियोजनाएं शुरू की गईं। ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के अंतर्गत निजी क्षेत्र के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्रों में बड़े उद्योग लगाए गए, लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए 1955 में ‘राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम’ की स्थापना की गई । ‘स्टेट बैंक’ का राष्ट्रीयकरण ग्रामीण क्षेत्र में कर्ज मुहैया कराने के लिए ही किया गया। नेहरूजी का सोचना था कि भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या, गरीबी और बेरोजगारी दूर करने और लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए व्यापक शहरीकरण और औद्योगीकरण ही बेहतर उपाय है।

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सुसंस्कृत, दंभ से कोसों दूर, दिल से हिन्दुस्तानी, आम जनता के बीच लोकप्रिय नेहरूजी की विदेशी राजनेताओं के साथ अच्छी मित्रता थी। भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ थी और जवाब देने का कूटनीतिक चातुर्य भी उनके पास था। उनके बयानों से कभी भी बवाल नहीं मचा। नास्तिक नेहरू जी का पूजा-पाठ, प्रार्थना आदि में विश्वास नहीं था। उनकी उम्र कम थी और स्वास्थ्य भी सरदार पटेल की तुलना में बेहतर था। शायद इन्हीं गुणों के कारण वे गांधीजी की पहली पसंद बने। सरदार पटेल सहित तमाम समकालीन नेताओं ने उनके नेतृत्व में देश के नवनिर्माण में अपनी आहुति देने हेतु सहमति दी।

लोकतंत्र में उनकी गहरी आस्था थी। अटल बिहारी वाजपेई जैसे युवा विपक्षी सांसद को गढ़ने का काम नेहरू जी जैसा प्रधानमंत्री ही कर सकता था। चीन से पराजय के बाद जनसंघ के चौदह सदस्यों के नोटिस पर सदन में चर्चा कराने से वे पीछे नहीं हटे। अपने तरीके से कभी गुस्से में तो कभी झुंझलाहट में तो कभी हंसते हुए वे सदन में सभी आरोपों का जवाब देते थे।

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कश्मीर आज भी एक नासूर है। शेख अब्दुला से दोस्ती, महाराजा हरी सिंह के प्रति वैमनस्यता, धारा 370 को संविधान का अंग बनाना, ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में मुद्दे को ले जाना और कश्मीर में अचानक ही युद्धविराम की घोषणा कर देना आदि के लिए उन्हें दोषी ठहराये जाते वक्त कश्मीर की जटिल और उलझी हुई परिस्थितियों को लोग भूल जाते हैं। कश्मीर मुस्लिम बहुल आबादी वाली ऐसी रियासत थी जिसके शासक हिन्दू महाराजा थे। जूनागढ़ जैसी रियासतों के भारत विलय के जो मापदंड थे उस लिहाज से कश्मीर का भारत में विलय संभव नहीं था। नेहरू जी ने कश्मीर के सामरिक महत्व को पहचाना, उचित समय की प्रतीक्षा की और जब महाराजा ने ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर कर दिए तो नेहरूजी ने तत्काल सर्वश्रेष्ठ कदम उठाए।

शेख अब्दुला से उनकी मित्रता रंग लाई, जनमत को भारत विलय के पक्ष में तैयार किया गया। कबाइलियों के आक्रमण से निपटने नेहरूजी ने सेना भेजने से भी परहेज नहीं किया और फौज को बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के अपना कार्य अठारह माह तक निष्पादित करने दिया गया। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में तो भारत इस मामले को लार्ड माउंटबेटन के कहने पर ले गया और जब उसके प्रस्ताव भारत के पक्ष में नहीं दिखे तो नेहरूजी ने उन्हें लागू करने से भी इंकार  करने का साहस दिखाया। धारा 370 विलय की बुनियाद को पुख्ता करना उस वक्त आवश्यक था। इसके बहुत से प्रावधान तो नेहरूजी और इंदिरा गांधी के समय में ही कमजोर बना दिए गए थे। अपने मित्र शेख अब्दुला को उनकी भारत विरोधी गतिविधियों के चलते गिरफ्तार करने से भी वे पीछे नहीं हटे।

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गांधीजी के सच्चे अनुयाई, अहिंसा की शक्ति के पुजारी नेहरूजी का सबसे अप्रतिम योगदान भारत की विदेश नीति बनाने और विश्वशान्ति के लिए समर्पित है। पंडित नेहरू ने विश्वयुद्धों से कराह उठी मानवता के कष्ट को नजदीक से देखा था। इसीलिए स्वतंत्र भारत और विश्व को युद्ध के संकट से बचाने हेतु वे कृत संकल्पित थे। उनके नेतृत्व में तटस्थ भारत ने आक्रांता देश की सदैव निंदा की और निर्बल देशों का साथ दिया। शीतयुद्ध के दौर में उन्होंने ‘गुट निरपेक्ष आंदोलन’ की नींव रखी और साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त हुए नव-स्वतंत्र देशों का नेतृत्व करने का भारत को सुनहरा अवसर प्रदान कराया।

अपने कूटनीतिक कौशल से नेहरूजी ने अमेरिका और उसके मित्र देशों के साथ और वामपंथी विचारों वाले सोवियत रूस और उसके समर्थक देशों से भारत के मधुर संबंध बनाए रखकर देश को आर्थिक विकास हेतु वित्तीय सहायता और तकनीकी कौशल हासिल करने में सफलता हासिल की। चीन के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को सम्मान देने ‘पंचशील समझौता’ नेहरू जी की दूरदृष्टि का परिचायक है। चीन से उनकी यह नीति सीमित संसाधनों के साथ नव-स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास के लिए जरूरी भी थी।

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नेहरूजी के इन तमाम योगदानों का आकलन समग्र रूप से करने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि नेहरू जी से चूक नहीं हुई, लेकिन गरीब, पिछड़े भारत को विकासशील देश बनाने और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्षरत देशों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए उनका स्मरण किया जाना जरूरी है। नेहरूजी को हमें इसलिए भी याद रखना चाहिए क्योंकि उन्होंने सांप्रदायिकता की आग में जल रहे उपमहाद्वीप में हिन्दू-मुस्लिम एकता के संदेश को मजबूती प्रदान की। नेहरूजी को ‘हिन्दू कोड बिल’ जैसे सामाजिक सुधारों के लिए भी याद किया जाना चाहिए। अपने इन्ही गुणों के चलते वे भारत की जनता के जवाहर बने रहेंगे।

(लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता अरूण कुमार डनायक का लेख सप्रेस से साभार)

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