विचार

राम पुनियानी का लेखः पालघर लिंचिंग और विघटनकारी दुष्प्रचार तंत्र

महाराष्ट्र के पालघर की घटना में चूंकि मरने वाले हिंदू थे, इसलिए यह प्रचार किया गया कि मारने वाले मुसलमान थे और यह जानबूझकर भड़काने के लिए किया गया। लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने सच का साथ दिया और 101 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें एक भी मुसलमान नहीं है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पिछले कुछ सालों में भारत में लिंचिंग की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। अब तक इनमें से अधिकांश घटनाएं गाय और बीफ के मुद्दों से जुडीं हुईं थीं और खून की प्यासी भीड़ के हाथों मारे जाने वालों में से अधिकांश मुसलमान या कुछ जगहों पर दलित थे। इंडियास्पेंड वेबसाइट ने साल 2014 से लेकर अब तक हुई इस तरह की घटनाओं का विश्लेषण किया, जिससे यह पता चला कि बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारे गए लोगों में से 90 प्रतिशत से अधिक या तो मुसलमान थे अथवा दलित थे।

अखलाक, जुन्नैद और अलीमुद्दीन अंसारी के मामले हम सबको याद हैं। गुजरात के ऊना में हुई घटना को भी भूल पाना कठिन है। इसी दौर में जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर सरेआम हमला हुआ। देश में इन दिनों ऐसा वातावरण बन गया है कि लिंचिंग की किसी भी घटना के बारे में संपूर्ण तथ्य जाने बगैर ही उसे सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है और नफरत फैलाने वाले सक्रिय हो जाते हैं।

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इसका सबसे ताजा उदाहरण है मुंबई से लगभग 110 किलोमीटर दूर स्थित पालघर के नजदीक गढ़चिनाल नामक गांव में दो साधुओं और उनके ड्राईवर की भीड़ द्वारा बर्बरतापूर्वक पिटाई कर हत्या करना। इस त्रासद घटना की खबर जैसे ही सामने आई, बीजेपी नेताओं ने बिना कोई देरी किए इसके लिए मुसलमानों को दोषी ठहराना शुरू कर दिया। बीजेपी के प्रवक्ता नलिन कोहली ने एक जर्मन टीवी चैनल से बातचीत में इसके लिए मुसलमानों को दोषी बताया। एक अन्य बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ने धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी तबके को इस मामले में चुप्पी साधने के लिए कटघरे में खड़ा किया।

जब घटना से संबंधित पूरे तथ्य सामने आए तो पता चला कि मारे गए साधु मुंबई के कान्दिविली इलाके से गुजरात के सूरत जा रहे थे। चूंकि उनके पास लॉकडाउन के दौरान यात्रा करने के लिए आवश्यक अनुमतियां और पास नहीं थे, इसलिए वे हाईवे की जगह गांवों और कस्बों से गुजरने वाली सड़कों का प्रयोग कर रहे थे। इसी दौरान वे आदिवासी-बहुल गढ़चिनाल गांव से गुजरे, जहां उनके साथ यह त्रासदी हुई।

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लॉकडाउन के चलते देश का गरीब और वंचित वर्ग परेशान और तनावग्रस्त है। उसे खाने के लाले पड़ गए हैं। ऐसे माहौल में कई तरह की अफवाहें भी फैल रही हैं। इस गांव में भी यह अफवाह फैली हुई थी कि अलग-अलग भेषों में बच्चों का अपहरण करने वाले कई गिरोह इलाके में सक्रिय हैं। इलाके में बिल्कुल नए इन साधुओं को बच्चा उठाने वाले गिरोह का सदस्य समझ लिया गया और उनपर जानलेवा हमला किया गया।

चूंकि मरने वाले हिन्दू थे, इसलिए यह प्रचार किया जाने लगा कि मारने वाले मुसलमान थे और यह जानते-बूझते किया गया। साल 1992-93 के मुंबई दंगों में भी यही किया गया था। उस समय दो माथाडी मजदूरों (जो हिन्दू थे) की हत्या और मुंबई के जोगेश्वरी इलाके में एक बाने (हिन्दू) परिवार को जिंदा जलाने की घटना का उपयोग अल्पसंख्यकों पर हमला करने के लिए लोगों को भड़काने के लिए किया गया। ये दोनों ही मामले झूठे निकले थे।

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साधुओं के मामले में भी बीजेपी के अलावा आरएसएस भी कूद पड़ा। साधु समाज ने भी आग में घी डालने का काम किया और माहौल को विषाक्त बनाने की हर संभव कोशिश की गई। इस तरह की घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देने में सिद्धहस्त टीवी चैनल भी अपने काम में जुट गए। सोशल मीडिया पर भी कई तरह की झूठी बातें फैलाई जाने लगीं। लगातार हिंदुओं को अल्पसंख्यकों के खिलाफ भड़काने वाले पोस्ट किए जाने लगे।

परन्तु महाराष्ट्र सरकार (जिसमें शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस शामिल है) ने सच का साथ दिया और 101 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें एक भी मुसलमान नहीं है। यह दिलचस्प है कि इस गांव की पंचायत पर बीजेपी का कब्जा है और इसकी मुखिया चित्रा चौधरी नामक बीजेपी नेता हैं। महाराष्ट्र सरकार ने न केवल सही तथ्यों को लोगों के सामने रखा, वरन यह चेतावनी भी दी कि झूठ फैलाने वालों को बख्शा नहीं जाएगा।

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कानून को अपने हाथों में लेने वाले जिस तरह की क्रूरता और बर्बरता कर रहे हैं वह खौफनाक है। अगर पिछले कुछ वर्षों में इस तरह की घटनाओं में इजाफा हुआ है तो इसका एक प्रमुख कारण यह है कि दोषियों को उनके किये की उचित सजा नहीं मिल सकी है। इन घृणास्पद घटनाओं में भागीदारी करने वालों को शासक दल का समर्थन प्राप्त रहा है। यहां तक कि कई मामलों में इन हत्यारों का अभिनन्दन भी किया गया।

मोहम्मद अखलाक की हत्या के एक आरोपी की पुलिस हिरासत में बीमारी के कारण मौत होने के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने उसके शव को राष्ट्रीय झंडे में लपेटकर सम्मानित किया था। अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या में दोषसिद्ध आठ अपराधियों को जब जमानत मिली तब केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने उन्हें माला पहनाकर स्वागत किया था। इन सबसे प्रशासन और पुलिस अधिकारियों को क्या संदेश जाता है, यह समझना मुश्किल नहीं है।

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देश में इस तरह की घटनाएं इसलिए भी बढ़ रहीं हैं, क्योंकि आम लोगों की जिंदगियां और कठिन होती जा रहीं हैं और इसके कारण उनमें कुंठा व्याप्त हो गई है। बीजेपी शासनकाल में असहिष्णुता बढी है। जो सरकार से असहमत हैं, उन्हें हिन्दू-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी बताना आम हो गया है। इनमें स्वामी अग्निवेश जैसे लोग शामिल हैं, जिन्होंने अंधश्रद्धा के खिलाफ आवाज उठाई और प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी किये जाने और अमरनाथ गुफा के बर्फानी बाबा के दैवीय होने जैसे बेबुनियाद दावों की पोल खोली। अग्निवेश को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया।

मूल मुद्दा यह है कि वर्तमान सांप्रदायिक सरकार और उसका आका आरएसएस देश में संकीर्ण सोच को बढ़ावा दे रहे हैं। वे किसी भी ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं जिसे सांप्रदायिक रंग दिया जा सके और जिसका इस्तेमाल मुसलमानों का दानवीकरण करने के लिए किया जा सके। कुछ न्यूज़ चैनल विघटनकारी राजनीति के भोंपू बन बैठे हैं और सोशल मीडिया भी समाज में नफरत फैलाने के लिए कमर कसे हुए है।

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देश में लिंचिंग के विरुद्ध कानून बनाया जाना जरूरी है। लिंचिंग की घटनाओं में शामिल सभी लोगों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। समाज में यह संदेश जाना चाहिए कि नफरत फैलाने और कानून को अपने हाथ में लेने को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जो टीवी चैनल नफरत की तिजारत कर रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि कोई भी देश नागरिकों के बीच बंधुत्व के भाव के बिना विकास नहीं कर सकता। कमजोर वर्गों के दानवीकरण से उन्हें टीआरपी तो हासिल हो सकती है, परंतु इससे देश में शांति की स्थापना की राह बाधित होगी।

भारत के संविधान का सम्मान किया जाना जरूरी है। कानून के राज की स्थापना आवश्यक है। जांच-पड़ताल कर सही तथ्यों को लोगों के सामने रखने वाले आल्ट न्यूज़ जैसे संस्थानों को मजबूत किया जाना जरूरी है। महाराष्ट्र सरकार की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उसने यह सुनिश्चित किया कि लिंचिंग के शिकार लोगों को न्याय मिले और नफरत फैलाने वालों को रोका जाए।

(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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