देश में 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले, भारत के दो सबसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों के बीच सार्वजनिक तौर पर वाद-विवाद हुआ था। चूंकि दोनों शिक्षाविद थे, इसलिए भाषा ज्यादातर विनम्र थी लेकिन दोनों की एक-दूसरे के प्रति असहमति मामूली नहीं थी। विवाद गुजरात मॉडल के बारे में था। जगदीश भगवती ने नरेंद्र मोदी का पक्ष लिया था जबकि अमर्त्य सेन ने इसका विरोध किया था। संक्षेप में बताएं तो भगवती-मोदी का विचार सामाजिक खर्च पर आर्थिक विकास को प्राथमिकता देना था। जबकि सेन का विचार था कि सामाजिक खर्च के बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है।
सेन ने उदारी कारोबारी माहौल का विरोध नहीं किया था, उनकी चिंता मुख्य रूप से वह थी जो सरकार ने किया था। भगवती ने भी सामाजिक खर्च का विरोध नहीं किया था, लेकिन उनकी चिंता थी कि सरकार को क्या नहीं करना चाहिए।
दोनों पक्षों में तर्कसंगत तर्क थे, लेकिन सेन के पास एक अचूक प्रश्न था: क्या कोई ऐसे राष्ट्र का नाम ले सकता है जो स्वस्थ और अच्छी तरह से शिक्षित आबादी के बिना विकसित हो गया हो? उसका जवाब था, नहीं। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसने अपनी आबादी के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश की अनदेखी की हो और विकसित हो गया हो। यह सामाजिक खर्च है जो विकास की ओर जाता है न कि दूसरे तरीके से। आपके ऐसी आबादी वाला देश नहीं हो सकते जिसकी बहुसंख्या बहुत साक्षर और बहुत स्वस्थ नहीं है, और उम्मीद की जाए कि उद्योगपति वह सारे जरूरी काम कर लेंगे जो एक राष्ट्र को विकसित करने के लिए आवश्यक हैं। इस मोर्चे पर जिम्मेदारी मुख्यत: सरकार की है कि वह इस काम को करेगी। जबकि गुजरात मॉडल बताता है कि अगर सरकार उद्योगपतियों को सब्सिडी, व्यापार करने में आसानी, मज़दूरों यूनियनों से आज़ादी और वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलनों का आयोजन करे तो यह काम हो गया। अगर सरकार ऐसा एक लंबे समय के लिए करती हैं तो इसका फायदा आम लोगों को मिलेगा और अर्थव्यवस्था को मजबूती देने का काम तो कारोबार या व्यवसाय ही करेंगे।
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सेन का मॉडल मानता है कि एक स्वस्थ और शिक्षित आबादी आर्थिक तरक्की हासिल करने के लिए बेहद जरूरी है। दरअसल सरकार के लिए यह संभव है कि वह एक शिक्षित और स्वस्थ आबादी तैयार करे, भले ही उसकी आर्थिक हालत उतनी मजबूत न हो। क्यूबा इसका एक उदाहरण है। किसी भी विकसित देश में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जहां शिक्षा और स्वास्थ्य तीसरी दुनिया जैसा रहा हो। इसीलिए सरकार को मजबूत शिक्षा प्रणाली और स्वास्थ्य सुविधाओं पर फोकस करना होगा, और अपने खर्च में इन दोनों क्षेत्रों को प्राथमिकता देनी चाहिए। सेन ने मनरेगा और भोजन के अधिकार जैसी योजनाओं का समर्थन किया, जबकि मोदी ने मनरेगा का विरोध किया और इसे ऐतिहासिक भूल करार दिया। कांग्रेस ने इसी सप्ताह कहा कि बीजेपी के 25 साल के शासन में (इनमें से 12 साल मोदी के शासन में) गुजरात ने एक भी सरकारी अस्पताल नहीं बनवाया। बीजेपी ने इस दावे का खंडन नहीं किया। यानी यह दावा सही है। निस्संदेह कई वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन हुए। यह भी सच है कि कई गुजराती इस दौरान और अमीर हुए, यहां तक कि जब 2020 में सबकी पूंजी घट रही थी, इनकी पूंजी में तीन गुना बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन बहुंसख्या आबादी को इसका कोई लाभ नहीं मिला। गुजरात में जो बड़े उद्योग हैं, उन्होंने बहुत बड़ी तादाद में लोगों को रोजगार नहीं दिया। यही कारण है कि गुजरात में राजनीतिक तौर पर सबसे ज्यादा प्रभावशाली पाटीदार समुदाय नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आया।
गुजरात मॉडल के लिए देश की आबादी ने जो बलिदान दिया है वह बहुत महान है। मानव विकास इंडेक्स में जब गुजरात बहुत नीचे था और 2012 में मोदी ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को बताया था कि उनके राज्य में कुपोषण इसलिए दिखता है क्योंकि लड़कियां फैशनेबल हो गई हैं और दूध नहीं पीती हैं।
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देश के बुनियादी मुद्दों को लेकर ऐसी बेअक्ली की बातों की कीमत देश चुका रहा है। सेन का मॉडल सिर्फ खर्च करने पर नहीं था, वह तो सरकार का फोकस किस चीज पर होना चाहिए, इस पर था। यानी अगर कोई सरकार मानती है कि इसके नागरिकों की शिक्षा और स्वास्थ्य को एक खास तरीके से सुधारा जाए तभी उनकी बेहतरी होगी। और अगर ऐसा होता तो महामारी आने के एक साल बाद देश उन हालात से दोचार नहीं होता कि अस्पतालों में बेड नहीं हैं और मरीज ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे हैं। लेकिन गुजरात मॉडल तो मानता है कि प्राइवेट सेक्टर स्वास्थ के मोर्चे को संभाल लेगा क्योंकि यह तो धंधा है और इसके उपभोक्ता भी हैं। लेकिन दुनिया ने इस मॉडल से विकास हासिल नहीं किया है।
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आज यह कहने की जरूरत नहीं है कि जगदीश भगवती ने जो कुछ कहा था वह पूरी तरह गलत था, क्योंकि आज हम अपने आसपास जो कुछ देख रहे हैं, वह इसका सबूत है। देश कराह रहा है और सत्तारूढ़ दल सच से भागता हुआ बचाव की मुद्रा में है कि कोरोना खुद ही खत्म हो जाएगा तो संकट खत्म हो जाएगा। पूरे संकट में सरकार का दखल इतना कमजोर और हल्का है कि नागरिकों को बचाने के लिए वह कुछ नहीं कर पा रही। हमें इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे क्योंकि दूसरा कोई विकल्प है ही नहीं।
और, यही कारण है कि बंगाल में अपनी रैलियां रोकने के बाद भी मोदी गायब ही हैं। वह केजरीवाल से इसलिए नाराज नहीं हो गए कि प्रोटोकॉल का उल्लंघन हुआ, बल्कि इसलिए हो गए क्योंकि सच्चाई सामने आ गई जो शर्मिंदा करने वाली है। ऐसे संकट के समय में हम तथ्यों से भाग रहे हैं कि सरकार को जो कुछ करना चाहिए था वह उसने नहीं किया। हमें दरअसल भगवती और सेन के तर्कों और विचारों पर एक बार फिर बहस की जरूरत है कि आखिर लघु और दीर्घ अवधि मे क्या कदम उठाए जाने चाहिए।
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