हमारी नई लोकसभा अभी बनी ही है, लेकिन चल नहीं पा रही। चल पाएगी, इसमें शक है। चलकर भी क्या कर पाएगी, कह नहीं सकते। कहावत बहुत पुरानी है जो हर अनुभव के साथ नई होती रहती है कि ‘पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं।’ जो पांव दीख रहा है, वह शुभ नहीं है। यदि मैं भूलता नहीं हूं तो कवि विजयदेव नारायण साही ने इस कहावत में एक दूसरी मार्मिक पंक्ति जोड़ दी थी : ‘पूत के पांव पालने में मत देखो/ वह पिता के फटे जूते पहनने आया है।’ इस लोकसभा के बारे में यही पंक्ति बार-बार मन में गूंज रही है।
जिस पार्टी ने, जिन पार्टियों के साथ जोड़ बिठाकर सरकार बनाई है, उन सबको मालूम है कि यह वक्ती व्यवस्था है। कौन, पहले, किसे और कब लंगड़ी मारता है, इसी पर इस लोकसभा का भविष्य टिका है; और यह तो सारे संविधानतज्ञ जानते हैं कि लोकसभा के भविष्य पर ही सांसद नाम के निरीह प्राणियों का भविष्य टिका होता है। निरीह इसलिए कह रहा हूं कि पिछले कम-से-कम 10 सालों से हमारे सांसदों का एक ही काम रहा है, जिसे वे बड़ी शिद्दत से निभाते हैं : सरकार की दी हुई मेज थपथपाना या भगवान की दी हुई हथेलियों से तालियां बजाना।
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विपक्ष भी ऐसा ही करता है। फर्क है तो बस इतना कि उसके पास कोई प्रधानमंत्री नहीं होता। इस बार उसके पास एक ‘छाया प्रधानमंत्री’ जरूर है जिसकी छाया कब तक, कहां तक रहती है, देखना बाकी है। हम दुआ करते हैं कि अंग्रेजी के ‘शैडो प्राइम-मिनिस्टर’ का मक्खीमार अनुवाद भले उसे ‘छाया प्रधानमंत्री’ कहे, नेता प्रतिपक्ष कभी इस प्रधानमंत्री की छाया न बनें। न उनकी छाया में रहें, न उनको छाया दें।
ओम बिरला को दोबारा लोकसभा अध्यक्ष बनाने के पीछे प्रधानमंत्री का एक ही मकसद था : विपक्ष को आखिरी हद तक अपमानित करना! बिरला कभी इस पद के योग्य नहीं थे; आज भी नहीं हैं। विद्वता, कार्यकुशलता, व्यवहार-कुशलता, वाकपटुता तथा सदन में गरिमामय माहौल बनाए रखने जैसे किसी भी गुण से उनका नाता नहीं रहा है, यह हमने पिछले पांच सालों में देखा है। पता नहीं विपक्ष ने उनका इतना स्वागत व गुणगान क्यों किया !
ओम बिरला ने पिछली संसद में जिस तरह विपक्ष को तिरस्कृत व अपमानित किया था, उसे ही दोहराने के लिए इस बार भी उन्हें ही प्रधानमंत्री ने आगे किया है, ताकि विपक्ष व देश समझे कि कहीं, कुछ भी बदला नहीं है। नई लोकसभा के पहले ही दिन वे अपने पुराने अवतार में दिखाई दिए। जिस असभ्यता से उन्होंने दीपेंद्र हुड्डा को अपमानित किया; शशि थरूर के ‘जय संविधान’ कहने से तिलमिलाए, विपक्ष के सांसदों को कब उठना-कब बैठना सिखाने की फब्ती कसी - वह सब यह समझने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें क्या करने का निर्देश हुआ है।
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राहुल गांधी ने जब यह कहा कि उनका माइक बंद क्यों किया गया, तो अध्यक्ष का जवाब आया कि मैंने पहले भी यह व्यवस्था दी है कि मेरे पास माइक का कोई बटन नहीं है। क्या अध्यक्ष की जानकारी व अनुमति के बगैर ही कोई, कहीं से बैठकर लोकसभा की कार्रवाई में दखल दे रहा है? अगर ऐसा है तो अध्यक्ष चाहिए ही क्यों? जो अनदेखा- अनजाना आदमी बटन बंद कर सकता है, वही लोकसभा चला भी सकता है। ‘इंडिया गठबंधन’ को तब तक न लोकसभा जाना चाहिए, न राज्यसभा जब तक कि यह बता न दिया जाए कि माइक बंद किसने किया था, किसकी अनुमति या निर्देश से किया था?
परंपरा की बात है तो यह समझना जरूरी है कि विपक्ष के नेता की भी परंपराएं हैं। इस अध्यक्ष को न वे परंपराएं पता हैं, न विपक्ष के नेता का मतलब मालूम है। जिन सांसदों का जन्म ही 10 साल पहले हुआ है, उनकी यह त्रासदी स्वाभाविक है। उनकी तो आंखें जब से खुली हैं तब से उन्होंने यही देखा-जाना है कि लोकसभा का मतलब एक ही आदमी होता है। जैसे यह परंपरा है कि अध्यक्ष जब खड़ा हो जाए तो सभी सांसदों को बैठ जाना चाहिए; प्रधानमंत्री जब बोल रहा हो तब सांसदों को शांति से उसे सुनना चाहिए; वैसी ही परंपरा यह भी है कि विपक्ष का नेता जब बोल रहा हो तब उसे अध्यक्ष द्वारा बार-बार टोकना, बार-बार समय का भान कराना, क्या बोलें, क्या न बोलें आदि का निर्देश देना गलत है, अशिष्टता है, लोकतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन है।
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आखिर परंपराएं बनती कैसे हैं और उन्हें ताकत कहां से मिलती है? परंपराएं कानूनी प्रावधानों से भी अधिक मान्य क्यों होती हैं? सिर्फ इसलिए कि कोई भी उन्हें तोड़ता नहीं है। संविधान प्रदत्त शक्तिवान भी उनका शालीनता से पालन कर, उसे और अधिक मजबूत व काम्य बनाते हैं। राष्ट्रगान चल रहा हो तब राष्ट्रपति के सामने से धड़धड़ाते हुए निकलकर अपनी कुर्सी पकड़ने वाला लोकसभा अध्यक्ष हो कि राष्ट्रपति प्रवेश करें तब भी अपनी कुर्सी पर बैठा रहने वाला प्रधानमंत्री, ये सब हरकतें परंपराओं को ठेस पहुंचाती हैं।
अंधभक्त अपनी फिक्र आप करें, लेकिन हम-आप तो सोचें कि ऐसा क्यों है कि सत्तापक्ष के सारे शब्द इतने खोखले लगते हैं? शिक्षामंत्री ठीक ही तो कह रहे थे कि ‘नीट’ के बारे में हम विपक्ष के सारे सवालों का जवाब देने को तैयार हैं। वे कह तो रहे थे, लेकिन उनके हाव-भाव व तेवर यह कहते सुनाई दे रहे थे कि कर लो जो करना हो, हम कोई चर्चा नहीं करेंगे। ऐसा इसलिए था कि इसी मंत्री ने, इसी ‘नीट’ के बारे में लगातार यही कहा था कि न कोई लीक हुआ है, न कोई घोटाला हुआ है, सब विपक्ष का किया-धरा है।
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राहुल गांधी चाहें-न-चाहें, वे कसौटी पर हैं। आज नेता-प्रतिपक्ष शोभा का पद नहीं है। आज यह पद विकल्प खड़ा करने की चुनौती का पद है। विपक्ष को वक्त की सीधी चुनौती यह है कि क्या पंडित जवाहरलाल के दौर वाली संसद वापस लाने की कूवत उसमें है? नेहरू वाली संसद इसलिए कह रहा हूं कि हमने वहीं से अपना सफर शुरू किया था और लगातार फिसलते हुए यहां आ पहुंचे हैं। तो कैसे कहूं कि उस दौर से भी बेहतर संसद बनानी चाहिए ! पहले वहां तक तो पहुंचो, जहां से गिरे थे; फिर उससे ऊपर उठने की बात करेंगे।
राहुल गांधी व ‘इंडिया गठबंधन’ ने संविधान की किताब दिखा-दिखाकर प्रधानमंत्री को जिस तरह चुनाव में कमजोर किया, उसकी काट उन्होंने यह निकाली कि लोकसभा अध्यक्ष को मोहरा बना कर आपातकाल की निंदा का प्रस्ताव पारित करवाया। यह उस विज्ञापन की तरह था कि ‘उसकी कमीज मुझसे सफेद कैसे?’ लेकिन कांग्रेस को इससे बौखलाने की क्या जरूरत थी? कोई 50 साल पहले हुई चूक, जिसे इंदिरा गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष ने कई बार सार्वजनिक रूप स्वीकार किया है, उसे लेकर कांग्रेस अब क्यों बिलबिलाती है? वह इतिहास की बात हो गई। यह भी याद रखना चाहिए कि जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने 1977 में ऐसी संवैधानिक व्यवस्था खड़ी भी कर दी है कि किसी सरकार के लिए आपातकाल लगाना असंभव-सा है।
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यह वह संसद है जिसके शब्दों का कोई मोल ही नहीं रह गया है। शेरो-शायरी भी हो रही है, कहावतें भी दोहराई जा रही हैं, प्रधानमंत्री बड़े-बड़े विचारकों-दार्शनिकों के उद्धरण भी ला-लाकर पढ़ते हैं, लेकिन सब-के-सब इतने प्रभावहीन क्यों हो जाते हैं? इसलिए कि उनके पीछे विश्वसनीयता का बल नहीं है। आस्थाहीन प्रवचन आत्माहीन कंकाल की तरह होता है। यह लंगड़ी व पतनशील गठबंधनों की संसद है जो जब तक रहेगी, राष्ट्र व लोकतंत्र को शर्मसार करती रहेगी। विपक्ष के नेता व संपूर्ण विपक्ष को लगातार यह दबाव बनाए रखना चाहिए कि यह संसद सुधरे या बदले !
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