मोदी सरकार के सवर्णों के कमजोर तबकों को आरक्षण देने के फैसले को लगभग सभी दलों ने समर्थन दिया, हालांकि 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने जब आरक्षण पर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की थीं, तो उन्हें जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन सरकार के लिए विडंबना यह रही कि एआईएडीएमके ने इस कदम के विरोध में आवाज़ उठाई। यहां ध्यान देना होगा कि लोकसभा चुनाव के दौरान दक्षिण भारत में टीआरएस और एआईएडीएमके के सहारे ही बीजेपी अपनी राजनीतिक नैया पार लगाने की जुगत में है।
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भले ही सरकार की यह कोशिश लोकसभा की परीक्षा पास कर चुकी है, लेकिन क्या यह कानूनी अड़चनें पार कर पाएगी, इसे लेकर कुछ सुनिश्चित नहीं है। लेकिन एक बात निश्चित है कि जिस तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह को मंडल आयोग की सिफारिशों पर आरक्षण घोषित करने का खामियाजा भुगतना पड़ा था, उसी तरह मौजूदा मोदी सरकार को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। हां, इतना जरूर होगा कि इस मुद्दे पर कुछ लोग राजनीतिक फसल जरूर काटने की कोशिश करेंगे।
अक्टूबर-नवंबर 1990 में बीजेपी ने उस समय वी पी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था जब इसके उस समय के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया था। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को और क्षेत्रीय स्तर पर बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को काफी फायदा हुआ था। लेकिन आज हालात अलग हैं। भगवा दल को उस तरीके पर तमाम सवालों का जवाब देना होगा और मतदाताओं के बड़े तबके के गुस्से का सामना करना पड़ेगा, जिस तरह से उसने तीन हिंदी भाषी राज्यों में हार के बाद आरक्षण का नाटक मंचित किया है।
दरअसल हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हार के बाद उठाया गया यह कदम मोदी सरकार की हताशा का ही द्योतक नजर आता है। विपक्ष ने तो इस कदम का समर्थन कर मोदी सरकार और बीजेपी को और कशमकशन में डाल दिया है। ऐसे में अगर सरकार इस फैसले को न्यायिक समीक्षा से बचाने में या पूरी तरह लागू करने में में नाकाम रहती है उसे भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। पहले से ही जुमला सरकार के तमगों को झेल रही बीजेपी को अपनी साख बचाना भी मुश्किल होगा।
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वैसे मोदी सरकार ने इस फैसले को अचानक लागू करने का ऐलान कर विपक्ष को चौंकाने की कोशिश की थी, खासतौर से कांग्रेस उसके निशाने पर थी। लेकिन कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष ने इसका समर्थन कर हवा का रुख मोड़ दिया और राजनीतिक लाभ उठाने की आस लगाए बैठी बीजेपी मुंह ताकती रह गई।
भले ही आरक्षण के मुद्दे पर वी पी सिंह को सत्ता से हाथ धोना पड़ा हो, लेकिन कम से कम उन्होंने पिछड़े वर्ग को सशक्त बनाने का काम तो कर ही दिया था। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार तो जैसे नेता मंडल की राजनीति से उभरे नेता ही हैं। लेकिन अगड़ी जातियों के कमजोर तबके को आरक्षण देने के बाद भी बीजेपी अगुवाई वाली केंद्र की मोदी सरकार और उनकी पार्टी को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला।
विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने फैसले पर गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, इसमें उनके डिप्टी पीएम देवीलाल भी थे। देश आज भी अगर वी पी सिंह के इस कदम की गंभीरता और मकसद पर सवाल उठाता है तो नरेंद्र मोदी को भी ऐसे ही सवालों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि आरक्षण की बैसाखी पर ही वे अपनी नैया पार लगाने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी के अपने मंत्री और पूर्व बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी तो एक तरह से इस फैसले को लेकर सरकार की समझदारी पर सवाल उठा ही चुके हैं।
सच्चाई यह भी है कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से आरक्षण के मुद्दे पर संघ और उससे जुड़े संगठन कभी भी एकसुर में बोलते नजर नहीं आए। 2015 के बिहार चुनाव से कोई एक महीना पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर जो बयान दिया था, उसकी कीमत बीजेपी को चुनावी हार का सामना कर चुकानी पड़ी थी। इस बार एआईएडीएमके ने इस मुद्दे पर अपनी नाराजगी और विरोध दर्ज कराया है। इसके अलावा संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व को भी यह देखना होगा कि आखिर आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे से जुड़े महत्वपूर्ण नीतिगत फैसले में सरकार और पार्टी ने अपना होमवर्क क्यों नहीं किया।
ध्यान रहे कि बीजेपी के साथी एक-एक कर उसका साथ छोड़ रहे हैं, और आरक्षण का जिन्न बाहर आ चुका है।
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