तुमसे पहले वह जो इक शख्स यहां तख्त नशीं था,
उसको भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था...
आमतौर पर शासकों को सत्ता का नशा खुद के खुदा होने की गलतफहमी का शिकार बना देता है। नरेंद्र मोदी भी कुछ ऐसे ही शासकों में से हैं। और, भला उन्हें अपनी ‘खुदाई’ का गुमान क्यों न हो। एक मामूली चायवाला कब यह ख्वाब देखता है कि कभी वह खुद सरकार होगा। लेकिन मोदी तो उन चायवालों में से हैं जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ऐसे शासक बन बैठे जिसके हर झूठ पर करोड़ों भारत वासियों ने विश्वास किया। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब फिर’औन (प्राचीन मिस्र का ऐसा राज, जो खुद को भगवान सझता था) की खुदाई नहीं चली तो, मोदी की कब तक चलेगी।
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यह भारत है, पाकिस्तान नहीं। यहां लोकतंत्र का राज चलता है, तानाशाही का नहीं। हो सकता है कि लोकतंत्र कभी कभार झूठे प्रचार में बह जाए, और यह भी हो सकता है कि उसकी आंखों पर कभी कभार धर्म की पट्टी बांध दी जाए, लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सकता कि इस लोकतंत्र की चेतना जागृत ही न हो और उसकी आंखें न खुलें। हाल के उपचुनाव के नतीजों में लोकतंत्र ने बीजेपी को जो लात लगाई है, उसने मोदी के होश तो उड़ा ही दिए होंगे।
लेकिन बीते कुछ समय में जो राजनीतिक बदलाव सामने आए हैं, वह इस बात के गवाह हैं कि अगर स्थितियां ऐसी ही रहीं तो 2019 मोदी के लिए भारी साबित होगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के गढ़ से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना तक, बिहार, पंजाब, कर्नाटक से लेकर मेघालय तक, पूरे देश में मोदी का नशा टूट रहा है। इससे पहले अभी पिछले साल दिसंबर में मोदी के हाथों से उनका अपना गृहराज्य गुजरात जाते-जाते बचा है, और कर्नाटक भी हाथ में आकर फिसल चुका है। कर्नाटक में तो विपक्षी दलों ने एकजुट होकर नए युद्ध का ऐलान भी कर ही दिया है।
2014 के लोकसभा चुनाव में जब पूरे देश में मोदी लहर थी, तो बीजेपी को 31 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 69 फीसदी वोट हासिल करने के बावजूद विपक्ष नाकाम साबित हुआ था। इसकी वजह सीधी सी यही थी कि विपक्ष का सारा वोट बंट गया था और मोदी सत्ता के सिंहासन तक पहुंच गए। कैराना में विपक्षी एकता की कामयाबी इस बात का स्पष्ट संकेत है कि विपक्षी गठजोड़ मोदी का किला ढहा सकता है। सबसे बड़ी बात पूरा विपक्ष इस समय गठजोड़ के पक्ष में भी दिख रहा है। ऐसे में नरेंद्र मोदी की ‘खुदाई’ पर खतरा मंडरा रहा है।
लेकिन, ‘खुदाई’ का नशा बुरी लत है। यह जल्द उतरता नहीं। शासन चलाना ऐसा ही काम है कि अगर शासक खतरे में पड़े तो वह खुद को बचाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करने में भी परहेज नहीं करता। भले ही अदालतों ने नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों से बरी कर दिया हो, लेकिन इतिहास मोदी के दामन पर लगे 2002 के दाग को कभी नहीं भूल सकता और न ही उन्हें माफ कर सकता है। इसी दौर से उन्होंने सत्ता की तरफ कदम बढ़ाना शुरु किए थे।
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और आज, 2018 में तो नरेंद्र मोदी सत्ता के नशे में चूर हैं। वह देश के शासक हैं, किसी छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री नहीं। और अपनी सत्ता बचाने के लिए वे किसी भी हद जा सकते हैं, और अपनी डूबती नाव को बचाने के लिए वे देश के 2002 के रंi में रंगने से भी शायद परहेज़ न करें। इतना ही नहीं, मोदी आरएसएस यानी संघ के कंधों पर सवार हैं। मोदी, संघ के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा की आखिरी उम्मीद भी हैं। ऐसे में मोदी को सत्ता में बनाए रखने के लिए संघ के प्यादे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
इन सब बातों के मद्देनजर, भारत आज एक बेहद पेचीदा राजनीतिक दौर में है। एक तरफ कर्नाटक और उपचुनाव के ताज़ा नतीजों ने देश के माहौल को बदला ही नहीं, बल्कि देश के लिए एक नया रास्ता भी निकाला है। दूसरी तरफ मोदी और मोदी समर्थक शक्तियां अपनी सत्ता बचाने के लिए किसी भी हद तकजाने को तैयार बैठी हैं। ऐसी स्थिति से बचने का एक ही रास्ता है, और वह हिंदुस्तान के लोग यानी लोकतंत्र की।
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अब जरूरत सिर्फ विपक्ष की एकता की ही नहीं, बल्कि विपक्षी एकता के झंडे तले देश के हर राज्य में बड़ी-बड़ी रैलियां करने की जरूरत है। इन रैलियों में देश को सिर्फ मोदी की नाकामियों के बारे में बताने, उन्हें इसका एहसास कराने की ही जरूरत नहीं, बल्कि मोदी की ‘बांटो और राज करो’ की राजनीति और नीति के खतरे से आगाह करने की भी है।
देश आज उसी मुकाम पर खड़ा है, जहां 1947 में अंग्रेज़ों की इसी ‘बांटो और राज करो’ की चाल को समझने में गलती कर बैठा था, लेकिन आज, देश इस चाल को जानता है, समझता है और उसका विरोध कर सकता है।
कुल मिलाकर बात यह है कि देश के लोग मोदी की खुदाई को लात मारने को तैयार हैं। उपचुनाव के नतीजे इसके सबूत हैं। लेकिन, फिर भी जरूरत एकजुट विपक्ष के लोगों की अदालत में जाने की है, ताकि 2019 में मोदी की खुदाई चकनाचूर हो सके।
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