भक्ति आंदोलन को अपने यहाँ मनुवादी वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पहला बड़ा विद्रोह बताया जाता रहा है। लेकिन बुद्ध और महावीर सहित कई बड़े चिंतक उसे पहले भी कड़ी चुनौती दे चुके थे, जो कुछ सदियों तक कामयाब रही, फिर धीरे धीरे बिला गई और शंकराचार्य सनातन धर्म को फिर मुख्यधारा बना सके।
करीब छ: शताब्दियों तक चले भक्ति आंदोलन का भी यही हश्र हुआ। यद्यपि इस बार इसके तहत कर्नाटक ने वासवन्ना सरीखे महान कवि चिंतक प्रशासक को जन्म दिया। 18वीं सदी (अंग्रेज़ों के आने तक) तक इस वर्णाश्रम विरोधी असहमति की धाराओं के जाल का ऐसा संपूर्ण लोप कैसे हुआ, कि उनको हमारे यहां जाति पांति के बंधन और भी सख्त और जकड़न भरे मिले? क्या इसकी वजह यह थी, कि पहले मुस्लिम सामंतों ने (और उनके बाद अंग्रेज़ों ने भी) राजपूत रजवाड़ों और ब्राह्मणतंत्र के ठेकेदारों से समझौता कर सहअस्तित्व की एक अलिखित संधि कर ली थी, जो दोनों को रास आती रही?
जब कायाकल्प की मजबूरी ही नहीं बनी, तो सहज था कि भक्ति आंदोलन द्वारा जातिवादी व्यवस्था को तोड़ते हुए एक समतावादी राज-समाज बनाने और दलितों औरतों की दशा के आमूलचूल कायाकल्प की जो संभावना वासवन्ना सामने लाये थे, उसको शीर्ष के ताकतवर धड़ों की मौकापरस्त, किंतु ऊपर से सौम्य दोस्ती निगल जाये।
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कुछ सवाल सहज उठते हैं। वासवन्ना, अक्क महादेवी और अल्लामा प्रभु की मार्फत कर्नाटक में ब्राह्मणवाद के खिलाफ जिस लड़ाकू कन्नड साहित्य व शैववाद ने लिंगायत संप्रदाय का चूल्हा अलग करवा कर उनको राजनीति के बड़े मुकाम तक पहुँचाया, वह 14वीं सदी तक आते-आते विजयनगर साम्राज्य में दोबारा मुख्यधारा के सनातनी हिंदुत्व और संस्कृत लेखन की ओर क्यों मुड़ गया?
अपने वर्चस्व के दिनों में भी क्यों वह पड़ोसी राज्य तमिलनाडु तक भी नहीं फैला, जिसे सनातन धर्म को चुनौती देने के लिये 20वीं सदी तक इंतज़ार करना पड़ा? उत्तर कर्नाटक में, महाराष्ट्र में भी इसी तरह ज्ञानेश्वर से युयुत्सु शिवाजी महाराज तक और पंजाब में नानक से गुरु गोविंदसिंह के वर्णव्यवस्था के विरुद्ध जुझारूपन का सबक जनता तक पहुँचाने में सदियां क्यों लग गईं?
अगर हम ज़िद्दी पूर्वाग्रह छोड़ कर ईमान से देखें, तो अंग्रेज़ों के तमाम कानूनों और अदालती स्थापनाओं, सुधारवादी आंदोलनों और बीसवीं सदी के मंडलवादी उफान के बाद भी वर्णव्यवस्था के सदियों से अपरिवर्तित रहने की वजहें हमको भक्ति आंदोलन के भीतर ही दिखती हैं।
हमारे अधिकतर सुधारवादियों ने जब जातिवाद के खिलाफ मुहिम छेड़ी, तो वे खुद भी एक नया पंथ और शिष्य परंपरा बनाते दिखते हैं, जिन्होंने सीधे सनातन धर्म पर धावा नहीं बोला। मुख्य धारा भी बहती रही और असहमत गैर सनातनी सुधारवादी धारा भी। कालांतर में इन पंथों के भीतर भी उसी तरह के मठ, अखाड़े, पदक्रम से जुडी रूढ़ियां नई कोंपलों की तरह वैसे ही विकसित होने लगीं, जैसी मुख्यधारा की सनातनी शाखाओं उपशाखाओं में थीं। सब के अपने चिमटे अपने त्रिशूल अपनी धूनियां !
जिस तरह से आज के कर्नाटक में विभिन्न दलों ने वोक्कलिगा, लिंगायत और वीरशैव धड़ों की व्याख्या और तुष्टीकरण की मुहिम छेड़ी है, उससे ज़ाहिर है कि कभी सनातन धर्म से बगावत कर अलग हुए इन पंथों के समवर्ती गुरुओं को भी हिंदूधर्म की मुख्यधारा राजनीति के बड़े दलों साथ बहने में कोई बड़ा ऐतराज़ नहीं है। बशर्ते आरक्षण की रेवड़ियों का एक हिस्सा उनको भी मिल जाये, और त्रिशंकु विधानसभा बनी तो उनके किसी खानदानी व्यक्ति को शीर्ष पद भी। उनके पूर्ववर्ती गुरुओं संतों की बगावत इस तरह सही, न्यायसंगत और सामयिक होने की वजह से उतनी नहीं, जितनी उनकी जोड़ तोड़ की चमत्कारिक क्षमता से जोड़ कर धुकाई जा रही हैं।
ज़मीनी फार्मूला यह दिखता है कि औसत पिछड़े के लिये उसकी जाति की ज़ंजीरें तोड़ने के बजाए आरक्षण का मुलम्मा चढ़ा कर फायदेमंद बना दी जाएं। चमत्कारी पितृतुल्य मार्गदर्शकों के लिये तो आध्यात्मिक मुक्ति की राह हर पल खुली है ही।
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यह शर्मनाक है कि मैसूर राज्य, जो दक्षिण में हमेशा से शिक्षा और उदार विचारों का आश्रदाता रहा है, वहां इन दिनो ज़हरीला चुनाव प्रचार किया जा रहा है। जैसे वहां जातिवादी जनगणना के आंकड़े लीक किये गये, और लिंगायत समाज के लिये आरक्षण को 50 के बजाय 70 फीसदी करने जैसे मुद्दों को लेकर बात उठाई जा रही है, साफ है कि पिछड़ी जातियों का सुधारवादी सशक्तीकरण नहीं, जातिवाद की मज़बूती ही इस चुनाव की रीढ़ है।
इससे भी पहले से रामसेने सरीखे हिंदुत्ववादी लड़ाकू गुट औरतों, साहित्यकारों, तर्कसमर्थक बुद्धिजीवियों को पीट पाट कर प्रतिगामी विचारों के लिये एक सुरक्षा कवच रच चुके हैं, जिसे अपने संक्षिप्त दौरे से योगी आदित्यनाथ खाद पानी दे गये। साफ है कि इस तरह के वातावरण में यह चुनाव जो भी जीतेगा उसके लिये जन्मजात उच्चता पर आधारित तंत्र को स्थायी तौर से ढहा कर योग्यता पर आधारित तंत्र खड़ा करना नामुमकिन होगा।
कर्ण और एकलव्य के देश में नये पिछड़े दलों के लिये आरक्षण की परिधि अदालत की तय सीमा के परे फैलाने के वादे करना, देश के इतिहास को सर के बल खडा करना नहीं। हमारे यहां वह तंत्र था ही कब जिसमें उपेक्षित जातियों की योग्यता को खुले दिल से सराहना और पोसना शामिल हो? कर्ण को कभी सूतपुत्र कह कर दुत्कारा गया, तो कभी क्षत्रिय होने के लिये शाप मिला। शिशुपाल की निन्यानवे गालियों में भी कृष्ण की जाति का उपहास बार बार सुनाई देता है। भारत में मुख्यधारा बन कर बहने के नियम बार-बार विखंडित जनता दल के (यू, या स या राजद सरीखे) खंडों ने सीखे ही नहीं। इसीलिये उनको जेब में रखने के इतने तरीके बिहार से कर्नाटक में आजमाये जा रहे हैं।
अब इस विश्लेषण के संदर्भ में आपको मई माह के कर्नाटक चुनावों के नतीजों की प्रतीक्षा करनी चाहिये, क्योंकि अगले बरस यही गणित राष्ट्रीय चुनावों में भी राजनीति के मेकैनिक और ठेकेदार अपनाने जा रहे हैं।
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