विचार

मृणाल पांडे का लेख: शक्ति की अंध उपासना से अधिक व्यावहारिक और संविधान की दृष्टि से न्यायोचित है ‘न्याय’ योजना

किसी देश को या तो विराट् सपने संचालित करते हैं (जैसे गांधीयुगीन भारत, माओयुगीन चीन, कास्त्रोयुगीन क्यूबा), या फिर नियमानुशासन। सत्तापक्षीय नेता जो कहें, लेकिन उनके पास कोई बड़ा सर्वसमावेशी सपना नहीं है, सिर्फ विखंडनकारी ‘फूट डालो और वोट बटोरो’ फार्मूले हैं।

रेखाचित्र : डीडी सेठी
रेखाचित्र : डीडी सेठी 

चुनावों की घोषणा तो अभी हुई है, लेकिन साल भर से देश के मनोविज्ञान में लगातार बदलाव दिख रहा है। कुछ समय पहले तक सत्ता पक्ष और उसके मुंह लगे मीडियाकार कांग्रेस को एक वंशवादी, ढुलमल, रीढ़हीन और अक्षम नेतृत्व की पार्टी कहकर उसके शीर्ष नेताओं के निजी जीवन का अमर्यादित मजाक उड़ा रहे थे। लेकिन यह इतिहास का व्यंग्य है कि बेपनाह चुनाव कोष और मीडियाई प्रचार के साथ दिग्विजय पर निकले वाक्चतुर छत्रपति के अश्वमेधी घोड़े की लगाम अचानक ‘चौकीदार चोर है’ के जुमले के साथ मैदान में उतरे (उनकी तलुना में) बच्चे नेता द्वारा रोक दिया गया।

दरअसल पिछले पांच बरसों में जनता की नजरों में केंद्रीय सत्ता की छवि उद्दाम अहंकार और महत्वाकांक्षा से भरी और साम-दाम-दंडभेद से विपक्ष के क्षेत्रीय नेतृत्व को अपनी तरफ करने को आतुर सरकार की बनती गई है। इसकी आलोचना हुई, तो उसे देशद्रोह कहकर प्रजातंत्र के (मीडिया सहित) चारों खंभों का ध्वंस करने वाली कई नीतियां अपनाई जाने लगीं।

अल्पसंख्यक समुदाय को तो शुरू से ही कभी गोवध, तो कभी नागरिकता स्टेटस के तहत संदिग्ध बना कर मार-पीट का हौव्वा दिखाते हए घरों में सिमटने को बाध्य किया जा ही रहा था। उधर भ्रष्टाचार मिटाने के संकल्प को जपती हई सत्ता में आई सरकार की नाक तले चंद बड़े उद्योग घरानों और उपक्रमियों को एकाधिकार फैलाने और कइयों को बैंक लूट कर भागने की अनलिखी छूट भी मिल गई।

इस बाबत लिखने-बोलने वालों को राजकीय मशीनरी ने लगातार कुचला, अपमानित किया है। इस सबसे ऐसा डर देश में छा गया था कि जानकार लोग जानते-बूझते भी या तो खामोश हो चले, या शीर्ष नेतृत्व को अहोरूपं अहोध्वनि कहते हुए प्रसन्न करने में जुट गए थे। कांग्रेस ने जब ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना ) का नारा दिया, तो उसके देखते-देखते लोगों के मुंह में ‘चौकीदार चोर है’ वाले नारे की ही तरह चढ़ने की वजह यही थी।

जब अन्याय की सीमा को बार-बार छू रही तरह-तरह की दबंगई ने लस्त पड़े विपक्ष का कायाकल्प कर दिया तब जनता के बीच भी क्रिया की प्रतिक्रिया शुरू हुई। किसानी की बदहाली और जीएसटी तथा नोटबंदी जैसे फैसलों और बैंकिंग क्षेत्र के भ्रष्टाचार तथा आर्थिक भगोड़ों पर खुल कर बोलने वाले विपक्ष से प्रभावित जनता ने हालिया विधानसभा चुनावों में केंद्र पर काबिज बीजेपी के विश्वस्त प्रांतीय नेताओं को हटाकर सूबे की बागडोर पुराने नेताओंः बघेल, गहलोत और कमलनाथ को थमाना बेहतर माना।

अब पुलवामा आतंकी हमले के बाद तुरंत पाकिस्तान सीमा के भीतर एक तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाक को घर में घुसकर चुन-चुन कर मारने के जुमलों सहित सत्तापक्ष तुरंत मीडिया की तरफ मुखातिब हुआ। पर जब देशी-विदेशी मीडिया, जाने-माने रक्षा विशेषज्ञ इस हमले की कुछ बारीकियों को लेकर सवाल पूछने लगे, तो हरेक पापशंकी को गरज कर कहा गया कि वह भारतीय सेना की क्षमता और देशभक्ति पर सवालिया निशान लगाकर उसका मनोबल गिराने की कोशिश कर रहा है।

यह तमाम सवाल तो सेना के शीर्ष कमांडरों से नहीं, हमले पर भुजाएं फड़का कर पाकिस्तान और विपक्ष को समवेत चुनौती देते राजनेताओं से पूछे जा रहे थे। पर उससे क्या? ऐसी ही युद्धोन्मादी प्रतिक्रिया फिर हुई जब भारत ने अंतरिक्ष में उपग्रह से मिसाइल छोड़कर दूसरे उपग्रह को ध्वस्त किया।

इस समय नेतृत्व ने देश में लागू चुनावी आचरण संहिता के बावजूद अपने अंतरिक्षवेधी महाशक्ति होने की चौंकाने वाली घोषणा ही नहीं की, आनन-फानन में चुनाव आयोग से कहलवा लिया कि यह आचरण संहिता का उल्लंघन नहीं था। दो परमाणु ताकत से लैस पड़ोसी देश अगर उजड्ड आक्रामकता को थाम कर कगार पर आन खड़े दिखें, तो सारी दुनिया में इस पर चिंता होनी स्वाभाविक है।

बिना शेड्यूल के पाकिस्तान में जहाज रोककर प्रधानमंत्री को जन्मदिन की बधाई देने चले जाने वाले, अपने शपथ ग्रहण के समय विश्व राजनय के सभी अहि मयूर मृग बाघों को न्योत कर शांतिमय सह अस्तित्व का संदेश देने वाले शाहजहां को यह क्या हो गया कि वह अपने ही ताजमहल में पलीता लगाने की धमकी दे रहा है? खुद को जनता का प्रधानसेवक बताने वाला यकायक चौकीदार बनकर कह रहा है कि बदला लेना उसकी फितरत में है और वह चुन-चुन कर दुश्मनों का सफाया करेगा?

यह कैसी चौकीदारी है भाई, कि अपनी पार्टी के संस्थापक बजुर्गों को विदूषक की टोपी पहना कर उनका जलूस निकाल दिया? भारतीय जनता में सरकार के वे कौन से दुश्मन हैं जिनके खिलाफ ‘मिशन शक्ति’ और ‘मैं भी चौकीदार हूं’ की टी शर्ट बेचकर किशोरों और स्कूली बच्चों को उकसाया जा रहा है?

शीर्ष नेता कह रहे हैं कि देश बहुत बहुलतावादी बन गया है। अब वे कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पंजाब से परुुलिया तक सारे देश की अर्थव्यवस्था और राजनय को एक असंभव क्रांतिकारी मोड़ देकर उसे एक चालकानुवर्ती और इस चुनाव को अमेरिकी शैली का राष्ट्रपति चुनाव सरीखा बनाना चाहते हैं। लेकिन 1789 के क्रांतिदूध से झुलसे फ्रांस में कहावत है कि स्थायी क्रांति अपने आप में एक छलावा है और बेहाथ होकर अपने ही बच्चों को खा जाती है। इसलिए सारे देश को इकरंगा बनाने की जिद किसी भी जीवंत बहुरंगी लोकतंत्र में मूलत: अवैज्ञानिक और वैयक्तिक है।

भारत एक है, यह बात संविधान में लिखने से भारत एक नहीं बना है। आज अगर वह एक है, तो इसलिए कि संविधान ने उसे मूलत: ऐसा संघीय गणराज्य माना है जहां विभिन्न सूबों, जातियों, वर्गों और भाषा-भाषियों के हितस्वार्थों के बीच एक न्यासंगत संतुलन रहना जरूरी है। इसीलिए कश्मीर, नगालैंड और पूर्वोत्तर के कई राज्यों को विशेष छूटें दी गई हैं।

खुद एनडीए की पूर्व साथिन महबूबा मुफ्ती कह रही हैं कि धारा 370 हटाकर कश्मीर का भारत में समावेश कर दिया जाए तो वह भारत से मुक्त होना चाहेगा। असम और पूर्वोत्तर के राज्य नागरिक रजिस्टर बनाने के नाम से उबल पड़े हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक भी जब-तब हिंदी के मुद्दे को धुकाते ही अलगाववादी सुर अख्तियार कर लेते हैं। और पंजाब या हरियाणा में से किसी को चंडीगढ़ अलग से नहीं सौंपा जा सकता है।

इस विचलित करने वाले माहौल में कांग्रेस ने न्यूनतम आय योजना और रोजगार के मुद्दे उठाकर एक तरह से तमाम बीमार बहसों को पलीता लगाकर बहस को व्यावहारिक धरातल पर उतार दिया है। अब आलोचक कह रहे हैं ‘न्याय’ एक रूढ़िवादी समाजवादी सोच है। यह लागू हआ तो देश की अर्थव्यवस्था को तबाह कर देगा। आने वाले समय में निजीकरण और कॉरपोरेट विकास ही तरक्की का सुनहरा पैमाना और गारंटी हैं।

पर जब अर्थव्यवस्था हर पैमाने पर नीचे जा रही हो, तब वह रूढ़िवादी हो भी तो देश में बेरोजगारी का खात्मा और हर हाथ में न्यूनतम आय देने की सोच ही है जो ‘गरीबी हटाओ’, ‘मनरेगा’ की तरह विघटन और खेती की तबाही को थाम सकता है। कौन राज्य है जो नहीं चाहता कि सबसे बड़े पैमाने पर रोजगार देने वाले उसके किसानी क्षेत्र की दशा सुधरे? शहर-गांव में उसके युवाओं, महिलाओं को नौकरियां मिलें? कौन राज्य चाहेगा कि उसके सार्वजनिक बैंक आर्थिक भगोड़ों को पहले राजनेताओं के दबाव से अरबों का लोन दें, फिर जब वे बाहर कट लें तो उसको माफ कर खुद दिवालिया हो जाएं?

न सही मानवीय कारणों से, पर अपने विशुद्ध चुनावी हितस्वार्थों के तहत वे सब चाहते हैं कि उनके सूबे के गैर हुनरमंद गरीब बेरोजगारों को भी काम मिले, सार्वजनिक या सहकारी बैंक बहुसंख्य गरीबों, जरूरतमंदों के खातों की कुछ अधिक फिक्र करें, सरकारी सब्सिडियां और लोन जनता को समय पर मिल सकें, ताकि उनके हवाले से वे अपना अगला चुनाव जीत सकें।

किसी भी देश को या तो विराट् सपने संचालित करते हैं (जैसे गांधीयुगीन भारत, माओयुगीन चीन, कास्त्रोयुगीन क्यूबा), या फिर नियमानुशासन। सत्तापक्षीय शीर्ष नेता फिलहाल चाहे जो कहें उनके पास कोई बड़ा सर्वसमावेशी सपना नहीं है, सिर्फ कुछ विखंडनकारी फूट डालो और वोट बटोरो फार्मूले हैं।

हमारे संविधान की प्रस्तावना साफ कहती है कि यह संविधान देश की जनता ने खद को अर्पित किया है। यानी जनता सार्वभौम है। अगर संविधान सर्वोच्च होता, तो प्रस्तावना कहती कि हम भारत के लोग इस संविधान को न्यायपालिका को अर्पित कर रहे हैं। इसलिए फिलवक्त भारत सरीखे देश में शक्ति की अंध उपासना से न्याय की बहाली कहीं अधिक व्यावहारिक और संविधान की दृष्टि से अधिक न्यायोचित ठहरती है।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined