जम्मू-कश्मीर में प्रशासन की ओर से ‘सरकारी जमीन’ को खाली कराने की मुहिम चल रही है। इसमें गलत क्या है? बहुत कुछ। लोगों का कहना है कि तहसीलदारों को कथित अतिक्रमण और अवैध निर्माण की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त थमाई गई है। ऐसे तमाम निर्माण ढहाए जा चुके हैं, कई को जगह खाली करने का नोटिस दिया गया है, कई मामलों में जमीन का पट्टा रद कर दिया गया है और कई जगहों पर इस आशय का बोर्ड लगा दिया गया है कि ‘यह सरकारी जमीन है।’ लोगों को कहना है कि मंशा ‘बाहरी’ लोगों के लिए लैंड बैंक बनाने की है।
जम्मू-कश्मीर में एक ओर तो प्रशासन ‘भू-माफिया’, बड़े व्यवसायियों और विधायकों के कथित अवैध कब्जे से जमीन को खाली कराने की मुहिम चला रहा है तो आम लोग सड़कों पर उतरकर गुस्से का इजहार कर रहे हैं। लोगों का कहना है कि उनके पास लंबे समय से जमीन हैं, कई मामलों में तो 50-100 साल से। कुछ का कहना है कि देश के विभाजन के बाद आए लोगों को खुद सरकार ने इन जमीनों पर बसाया था। लोगों को प्रोत्साहित किया गया कि अगर वे जमीनों को उपजाऊ बना सकते हैं तो खेती-बाड़ी करें। बीजेपी नेता कहते हैं कि अगर कुछ गलत हो रहा है तो लोग अदालत जा सकते हैं। इसके जवाब में लोगों का कहना है कि उनके पास कोई लिखित ऑर्डर नहीं है जिसके आधार पर वे चुनौती दे सकें। कुछ मामलों में कमर्शियल संपत्तियों, दुकानों और पॉल्ट्री फॉर्म के लिए दी गई जमीन का पट्टा ही रिन्यू नहीं किया गया। लेफ्टिनेंट गवर्नर का कहना है कि किसी भी बेकसूर के साथ नाइंसाफी नहीं होगी और सिर्फ चंद भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई की जा रही है और इन जमीनों का इस्तेमाल उद्योग लगाने और रोजगार बढ़ाने में किया जाएगा। लोगों का कहना है कि फिर केवल वही निशाने पर क्यों हैं जो राजनीतिक तौर पर बीजेपी के खिलाफ हैं? लोगों का कहना है कि कश्मीर घाटी की आधी जमीन पर जंगल है। यह संरक्षित क्षेत्र है। जो जमीन बची, उसमें से ज्यादातर पर सुरक्षा बलों और केन्द्रीय एजेंसियों का कब्जा है। ऐसे में अतिक्रमण के लिए बहुत गुंजाइश बचती ही कहां है?
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जम्मू समेत मैदानी भागों में स्थिति कुछ अलग है। 1948 में कृषि भूमि अधिनियम जिसे आम बोलचाल में ‘जोत की जमीन’ कानून कहते हैं। डोगरा शासन की सख्त नीतियों और टैक्स व्यवस्था से पीड़ित लोगों को इस कानून से राहत मिली। लेकिन 50-70 साल तक जमीन जोतने के बाद इन्हें सरकारी घोषित किया जा रहा है।
अगस्त, 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर से बाहर के कुछ लोगों और व्यवसाय घरानों ने घाटी में जमीन खरीदी है। स्वीडन की उप्पस्ल यूनिवर्सिटी में पीस एंड कन्फ्लिक्ट रिसर्च में प्रोफेसर अशोक स्वैन कहते हैं, ‘भारत सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा गैर-कश्मीरी यहां जमीन खरीदें और इसी के लिए सरकार ज्यादा से ज्यादा जमीन को सरकारी घोषित कर लैंड बैंक तैयार करने में जुटी है।’ प्रो. स्वैन के इस अनुमान से आम लोग भी सहमत हैं और उनका कहना है कि जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम आबादी को अल्पसंख्यक बनाने का बीजेपी और आरएसएस का लंबे समय से एजेंडा रहा है।
श्रीनगर में ‘सरकारी जमीन’ पर बनी दुकानों का रजिस्ट्रेशन तीन एजेंसियों ने किया- श्रीनगर म्यूनिसपल कॉरपोरेशन (एसएमसी), श्रीनगर डेवलपमेंट अथॉरिटी (एसडीए) और अकाफ कमेटी, श्रीनगर (एसीएस)। दुकानदारों का कहना है कि वे दशकों से दुकानें चला रहे हैं और बाकायदा किराया भी दे रहे हैं। जब भी किराया बढ़ाया गया, वे नई दर से किराया देने लगे। आफताब मार्केट के मो. अमीर कहते हैं, ‘पिछले साल अकाफ कमेटी ने किराये में 5,000 फीसद का इजाफा कर दिया, फिर भी हमने बिना देरी किराये का भुगतान किया। हम यहां 70-100 सालों से दुकानें चला रहे हैं और किराया भी दे रहे हैं। फिर हमारा कब्जा गैरकानूनी कैसे हो गया? इस बाजार के सभी लोगों ने 2023 का किराया दे रखा था, फिर भी हमारी दुकानों पर ताला लगा दिया गया।’ गुस्साए लोगों ने ऐतिहासिक लाल चौक पर प्रदर्शन किया जिसके बाद प्रशासन ने जांच जारी रहने तक दुकानों को खोलने की इजाजत दे दी। सवाल तो यह उठता है कि जांच से पहले दुकानें सील ही क्यों की गईं?
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वहां के एक बाशिंदे ने कहा, ‘मौजूदा प्रशासन तो डोगरा राज से भी ज्यादा सख्त है’। लोगों ने इस बात पर चिंता जताई कि जम्मू-कश्मीर पिछले तीन दशकों से हिंसा की गिरफ्त में रहा है और पूरी की पूरी पीढ़ी यही सब देखते-झेलते बड़ी हुई है और इस तरह उनकी जमीनों पर गैर-वाजिब कब्जा उनकी मुश्किलों को बढ़ा रहा है।
कश्मीर ट्रेडर्स एंड मैन्युफैक्चरर्स फेडरेशन के महासचिव सज्जाद गुल कहते हैं कि ‘राजस्व विभाग ने तमाम सूचियां तैयार की हैं और इन्हें तहसीलदारों को दे दिया गया है। जब हमने तहसीलदार दफ्तर में सूची को देखा तो लगा मानो इनमें श्रीनगर की एक-एक इंच जमीन को सरकारी दिखाया गया है।’
अर्थशास्त्री एजाज अयूब को लगता है कि बांटने वाली नीतियों के लिहाज से यह समय सही नहीं। अगर उन्हें यह सब करना ही था तो पहले अर्थव्यवस्था को जिंदा होने देते, राज्य का दर्जा बहाल करते और विधानसभा के चुनाव कराते। इतनी जल्दबाजी आखिर क्यों?
पर्यटन से जुड़ी ज्यादातर बुनियादी संरचनाएं सरकारी जमीन पर पट्टे पर हैं। सरकार स्थानीय लोगों का पट्टा रिन्यू नहीं कर रही है और लगता है कि वह इन सबको बाहरी लोगों को सौंपना चाहती है।
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जम्मू में प्रदर्शनकारियों ने नारे लगाए- 'जो कहते सरकारी है, वो जमीन हमारी है'। बेदखली नोटिस के विरोध में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। हाथ में तिरंगा लिए सुंजवां के पार्थ शर्मा ने बताया कि उन्हें निजी तौर पर तो अभी किसी तरह की परेशानी नहीं हुई है लेकिन प्रभावित लोगों के साथ एकजुटता जताने वह विरोध में शामिल हुए हैं। उन्होंने कहा, ‘इस क्षेत्र में कोई रोजगार नहीं है और लगभग हर व्यक्ति घर पर बैठा है। लेकिन प्रशासन गुर्जर, मुस्लिम, हिंदू और सिखों को आपस में बांटने वाले बयान दे रहे हैं ताकि लोग नौकरी, महंगाई और रोजगार जैसे मुद्दों पर बात न करें।
पहचान जाहिर न करने की शर्त पर एक व्यक्ति ने कहा, ‘जहां कोई समस्या नहीं थी, वहां उन्होंने समस्या पैदा की। वे इसका इस्तेमाल विपक्ष को बदनाम करने और चंद लोगों को निशाना बनाने के लिए करेंगे। अंत में वे स्थानीय बीजेपी नेताओं और मित्र दलों को बातचीत से मामले को ठंडा करने को आगे बढ़ाएंगे।’ दरअसल, बीजेपी के कुछ नेताओं को विरोध प्रदर्शन में देखा जा सकता है। कुछ पूर्व बीजेपी विधायकों के खिलाफ भी अवैध अतिक्रमण के आरोप में कार्रवाई की गई है। लगता है, सब कुछ तय हिसाब से ही चल रहा है।
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घाटी का मिजाज अलग है। नाहक एक मसले को खड़ा कर देने से लोगों में दबी हुई हताशा को बढ़ाने का काम किया है। बेंगलुरू में नौकरी कर रहे शमीम अहमद का कहना है कि यह कदम कश्मीरियों को आर्थिक और राजनीतिक रूप से कमजोर करने के लिए है।
इन सब विषयों पर नेशनल मीडिया ने खामोशी ओढ़ रखी है। प्रो. स्वैन कहते हैं, ‘भारत की सिविल सोसाइटी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रभाव में है। मुसलमानों और खास तौर पर कश्मीरी मुसलमानों के साथ भेदभाव पर उसकी चुप्पी की वजह यही है।’
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