हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के वायु प्रदूषण पर केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों पर तल्ख टिप्पणियां की हैं। न्यायाधीश अरुण मिश्र और दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि जनता को कैंसर जैसे प्रदूषण से होने वाले भयावह रोगों से तिल-तिल कर मारने से अच्छा है कि आप 15 बैग में बारूद लाइए और सबको एक साथ ही उड़ा डालिए। इस बार ‘प्रदूषण से नरसंहार’ जैसे शब्दों का उपयोग नहीं किया गया पर पिछले वर्ष न्यायाधीशों ने इस शब्द का उपयोग भी कर दिया था। इनके अनुसार दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लाखों लोगों की उम्र प्रदूषण के कारण घट रही है और लोगों का दम घुट रहा है।
इन न्यायाधीशों ने कहा कि लोगों को साफ पानी और साफ हवा मुहैय्या कराने में नाकामयाब और इनसे वंचित रखने वाली राज्य सरकारों को लोगों को मुवावजा देना होगा। जनता को संविधान ने प्रदूषण से स्वतंत्र वातावरण में रहने का मौलिक अधिकार दिया है। इस खंडपीठ ने राज्य और केंद्र सरकार से जवाब जमा करने को कहा है कि क्यों नहीं उन्हें अपने कर्तव्यों में लापरवाही बरतने के लिए जिम्मेदार माना जाए। खंडपीठ के अनुसार दुनिया हम पर हंस रही है कि भारत अपनी राजधानी के लोगों को भी साफ हवा और साफ पानी नहीं दे पा रहा है। ऐसे विकास का क्या फायदा है और क्या ऐसे ही हम विश्व शक्ति बनेंगे?
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देश की जनता से जीने का अधिकार छीना जा रहा है। पड़ोसी राज्यों ने कृषि-अपशिष्ट को न जलाने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना ही नहीं की बल्कि प्राप्त जानकारियों के अनुसार जलाने के पहले से अधिक मामले आने लगे हैं। खंडपीठ ने केंद्र के महाधिवक्ता से पूछा कि क्या ऐसी स्थिति को बर्दाश्त किया जाना चाहिये? क्या यह युद्ध से बदतर नहीं है? शहरों को गैस चैम्बर में क्यों तब्दील कर दिया गया है?
हाल में ही ‘द बीएमजे’ नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वायु प्रदूषण के परिणाम हमारी सोच से कहीं अधिक भयानक हैं। यह केवल शरीर के कुछ अंगों को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि हरेक अंग को प्रभावित करने में सक्षम है। हर्ट स्ट्रोक, ब्रेन कैंसर, गर्भपात और मानसिक विकार से भी भयानक इसके परिणाम हैं। केवल दो दिनों का प्रदूषण भी भयानक तरीके से बीमार कर सकता है। इसी साल एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार वायु प्रदूषण का प्रभाव शरीर की हरेक कोशिका पर पड़ता है।
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समस्या यह है कि पर्यावरण के सन्दर्भ में देश की अदालतें सरकारों और संबंधित सरकारी संस्थाओं पर तल्ख टिप्पणियों से आगे बढ़ती ही नहीं। कल्पना कीजिये, एक उग्रवादी शहर में घुस जाए और कुछ लोगों को मार डाले, तब भी न्यायालयों का यही रुख रहेगा? साधारण मार-पीट या चोरी पर भी तुरंत सजा होती है। यहां तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार लाखों लोगों की जिंदगी का सवाल है, फिर भी कोई सजा नहीं होती। जनता के मौलिक अधिकारों का हनन सरकार कर रही है, पर किसी को कोई सजा नहीं होती। यह कोई इस वर्ष का मामला नहीं है बल्कि हरेक साल ऐसा ही होता है।
क्या यह एक तरह का आतंकवाद नहीं है जो सरकारों की लापरवाही के कारण पनप रहा है? इसके ठीक उल्टा इन्हीं सरकारों और संस्थानों पर फिर से भरोसा दिखाया जाता है, यह इन नाकामयाब संस्थाओं की वाहवाही नहीं तो और क्या है? संसद ने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना पूरे देश में प्रदूषण नियंत्रण के लिए किया था, केंद्र में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय है- क्या ये संस्थान जनता के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे हैं, क्या संबंधित सरकारें जनता से जीने का अधिकार नहीं छीन रहीं हैं? ऐसे में न्यायालाय केवल सरकारों और संस्थानों पर गरजने के अलावा कुछ नहीं करतीं तो तब आश्चर्य होता है। ऐसा लगता है जैसे सबके लिए एक कानून नहीं है।
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न्यायालयों ने तो अब तक प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित मामलों में किसी को भी आदेशों की अवहेलना के लिए भी दोषी नहीं ठहराया है। यह सामान्य सी बात है कि सारे आदेश जो न्यायालयों ने दिए होंगें, वे सभी प्रदूषण कम करने के लिए ही रहे होंगे। पर प्रदूषण तो कम हो ही नहीं रहा है, उल्टा हरेक साल पहले से अधिक हो रहा है। ऐसे में क्या न्यायालयों के आदेशों की अवहेलना नहीं होती? सबसे आश्चर्यजनक तो यही है कि इन्हीं सरकारों और संस्थानों को फिर से वही जिम्मदारी दी जाती है, जिसमें वे लगातार असफल होते रहे हैं। यदि ऐसा ही करना है तो फिर न्यायालय आदेश देते रहेंगे, सरकारों पर तल्ख टिप्पणियां करते रहेंगे और प्रदूषण बढ़ता रहेगा और अधिकारी फलते-फूलते रहेंगे।
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