अगर ‘विपक्ष’ के किसी एक नेता के साथ भारत के टीवी चैनलों पर बड़े ही अदब के साथ सलूक किया जाता है तो बिना शक वह असदुद्दीन ओवैसी ही हैं। हैदराबाद से सांसद ओवैसी से वे सवाल ही किए जाते हैं जो उन्हें पसंद आएं। विपक्ष के और नेताओं की तरह उनके साथ टोका-टोकी नहीं की जाती, उन्हें अच्छी तरह अपनी बात रखने दी जाती है।
जब ओवैसी पर बीजेपी-विरोधी वोटों को बांटने का आरोप लगता है तो राजनीतिक टिप्पणीकार सवालों की बौछार के साथ उनके पक्ष में खड़े हो जाते हैं: क्या उन्हें चुनाव लड़ने का लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार नहीं है? चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारने के लिए ओवैसी को निशाना बनाने की जगह क्या कांग्रेस और विपक्ष को यह नहीं सोचना चाहिए कि वोटर, खास तौर पर मुसलमानों ने उन्हें क्यों खारिज कर दिया? ये सभी वाजिब सवाल हैं।
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खुद ओवैसी से जब भी पूछा जाता है कि क्या उनकी पार्टी बीजेपी की ‘बी’ टीम है, तो वह एकदम हत्थे से उखड़ जाते हैं। वह खुद को अपने समुदाय का एक देशभक्त नेता बताते हुए कहते हैं कि उन्हें कोई भी अपनी पार्टी का आधार बढ़ाने और चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता। महाराष्ट्र और बिहार के बाद वह बंगाल के चुनाव में भी अपने उम्मीदवार उतारने की तैयारी कर रहे हैं। एआईएमआईएम की स्थापना असदुद्दीन ओवैसी के दादा ने की थी और उनके पिता हैदराबाद से कई बार सांसद रहे। लंदन में लॉ की पढ़ाई करने वाले ओवैसी खुद भी 2004 से सांसद हैं और उससे पहले वह विधायक थे।
बीजेपी से उनके रिश्तों की बात यूं ही हवा में नहीं की जाती। 2014 में पहली बार उनकी पार्टी ने तेलंगाना से बाहर कदम रखते हुए आम चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे। उसके बाद इसने 2019 में महाराष्ट्र में 44 उम्मीदवार उतारे और दो सीटें हासिल भी कीं। झारखंड विधानसभा चुनाव में भी इसने उम्मीदवार उतारे और बेशक तब कोई सीट नहीं जीती लेकिन 81 सदस्यीय सदन में कम-से-कम छह सीटों पर बीजेपी उसकी वजह से जीत पाई। यह और बात है कि बीजेपी के खाते में तब 26 सीटें आईं और वह सत्ता से बाहर हो गई।
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हालिया बिहार चुनाव में पार्टी ने 24 उम्मीदवार उतारे और पांच सीटें जीतीं। कुछ लोग मानते हैं कि दूसरे राज्यों में ओवैसी इसलिए उम्मीदवार उतारते हैं क्योंकि वह अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता दिलाना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें सबसे पहले किन्हीं तीन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता लेनी होगी। लेकिन, एआईएमआईएम तो तेलंगाना में भी क्षेत्रीय पार्टी नहीं है। वहां उसके सात विधायक हैं। तेलंगाना में मुस्लिम आबादी 12.5% है और पिछले विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने अपने समर्थकों से हैदराबाद के बाहर टीआरएस को वोट करने के लिए कहा था।
हालांकि, ओवैसी के आलोचकों का कहना है कि एआईएमआईएम को केवल जीती गई सीटों के आधार पर नहीं तौलना चाहिए। यह भी देखना जरूरी है कि ओवैसी ने किन निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार उतारे, उसके उम्मीदवारों ने कितने वोट पाए और जहां वह जीत नहीं भी पाई, उनमें से ज्यादा सीटों पर उसने इतने वोट तो ले ही लिए कि बीजेपी उम्मीदवार जीत सकें। इससे भी अहम बात यह है कि धर्म के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करके एआईएमआईएम ने परोक्ष रूप से आसपास के निर्वाचन क्षेत्रों में हिदू वोटों का ध्रुवीकरण करने में बीजेपी की मदद ही की।
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बड़ा सवाल यह भी है कि दूसरे राज्यों की तुलना में हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश-जैसे बीजेपी शासित राज्यों में मुसलमानों की स्थिति खराब होने के बाद भी एआईएमआईएम इन राज्यों में चुनाव नहीं लड़ती है बल्कि उन्हीं राज्यों में हाथ आजमाती है जहां बीजेपी या तो विपक्षी किले में सेंध लगाने की जुगत में होती है या जहां वह मुश्किलों में होती है? अब तो बीजेपी मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारने की खानापूर्ति भी नहीं करती तो ऐसे में एआईएमआईएम द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारने का फायदा किस पार्टी को होता है?
ओवैसी की पार्टी निर्वाचन क्षेत्रों को जिस तरह चुनती है, वह भी अनायास नहीं। ओवैसी हर उस निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार नहीं उतारते जहां मुस्लिम वोट अधिक हैं। वह खास तौर पर बीजेपी के गढ़ माने जाने वाले क्षेत्रों से बचते हैं। बिहार के गया का उदाहरण लें। यहां मुसलमानों की बड़ी आबादी है और आम तौर पर यहां बीजेपी जीतती है। 1980 के बाद से तो हर चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहा। लेकिन एआईएमआईएम ने यहां उम्मीदवार नहीं उतारे। “भारत माता की जय” कहने से इनकार करने से और कुछ नहीं बल्कि ध्रुवीकरण में मदद करना है। वह यह कहते नहीं थकते कि अन्य विपक्षी दलों को उन्हें नसीहत देने का हक नहीं क्योंकि वे खुद बीजेपी को रोकने में विफल रहे। वह कहते हैं कि वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल होते-होते मुसलमान थक गया है और अब वह कोई और विकल्प चाहता है।
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यह हैरान करने वाला है कि ऐसे में जब प्रधानमंत्री से लेकर किसी मुख्यमंत्री तक के खिलाफ टिप्पणी करने पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज कर लिया जाता है, ओवैसी और एआईएमआईएम इन सबसे बचे ही रहे हैं। वह भी तमाम अभद्र टिप्पणियों के बावजूद। आखिर इससे क्या समझा जाए? विपक्षी खेमे में ‘गद्दारों’ और ‘राष्ट्र विरोधियों’ को झट से पहचान लेने में बीजेपी माहिर रही है और उसके बाद सेंट्रल एजेंसियों की कार्रवाई शुरू हो जाती है लेकिन इनकम टैक्स, ईडी और सीबीआई- जैसी संस्थाएं ओवैसी और उनके परिवार द्वारा चलाए जाने वाले ट्रस्टों के प्रति बड़ी उदार रही हैं।
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टीवी वाले तो अन्य विपक्षी नेताओं की तरह ओवैसी पर तीखे सवालों की बौछार नहीं करते, लेकिन कुछ मौजूं सवाल हैं जिनका उन्हें जवाब देना चाहिएः
हैदराबाद की राजनीति पर छह दशक से भी लंबे समय से ओवैसी परिवार का दबदबा है। क्या हैदराबाद का मुसलमान बेंगलुरु, मुंबई, भोपाल, दिल्ली, लखनऊ, पटना या कोलकाता के मुसलमानों से बेहतर स्थिति में है?
ओवैसी की नजर बिहार, झारखंड और बंगाल के मुसलमानों की समस्याओं पर क्यों जाती है जबकि उनसे कहीं ज्यादा शिकायतें गुजरात और कश्मीर के मुसलमानों को हैं?
क्या यह महज संयोग है कि ओवैसी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों को छोड़ देते हैं जहां बीजेपी ‘आत्मनिर्भर’ है और उन राज्यों को चुनते हैं जहां चुनाव के लिहाज से बीजेपी को मुस्लिम वोटों को बांटने की जरूरत होती है?
क्या यह भी संयोग है कि ओवैसी के मायावती और चंद्रशेखर राव- जैसे राजनीतिक मित्रों को उनकी व्यावहारिक, लचीली राजनीति और बीजेपी के प्रति झुकाव के लिए जाना जाता है?
कांग्रेस और बीजेपी को एक ही सिक्के के दो पहलू बताना, मोदी को अजेय बताते हुए राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमताओं पर सवाल उठाना क्या बीजेपी के कांग्रेस-मुक्त भारत के सपने को साकार करने वाला नहीं है?
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इसलिए, एआईएमआईएम को बीजेपी की बी-टीम कहने का तो भरपूर आधार है। तीसरे मोर्चे के बारे में भी ओवैसी के विचार बीजेपी को रास आने वाले ही हैं। अब तो स्थिति यह है कि ओवैसी के इरादों पर आम मुसलमान को भी शक होने लगा है।
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