विचार

खरी-खरीः ज्ञानवापी मुद्दे पर दकियानूसी नहीं, आधुनिक सोच वाली साझा मुहिम चलानी होगी

ज्ञानवापी विवाद में सड़क की राजनीति या भावुक बयानबाजी नहीं होनी चाहिए, बल्कि मुस्लिम पक्ष ने धैर्य और बुद्धि से काम लेकर रणनीति के तहत काम किया तो हिंदू आक्रोश पैदा होने की संभावना कम होगी, क्योंकि तब बीजेपी मुसलमान को ‘हिंदू शत्रु’ की छवि नहीं दे पाएगी।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया Asif Suleman Khan

पिछले सप्ताह मैंने ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर के विषय में लिखा था। इस सप्ताह फिर उसी विवाद पर लिख रहा हूं। देश में इस समय केवल कोविड महामारी की चर्चा है। फिर भी काशी मामले पर बराबर लिख रहा हूं। मुझे आशंका है कि दो वर्षों में यह मुद्दा देश की राजनीति पर पूरी तरह छा जाएगा। इसकी भी संभावना है कि सन 2024 का लोकसभा चुनाव मंदिर-मस्जिद विवाद पर ही हो। कारण यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव जीतने के लिए एक भावुक ही नहीं, हिंदू वोट बैंक एकजुट करने वाला मुद्दा चाहिए।

देश गहरे आर्थिक संकट में है। कोरोना की दूसरी लहर ने देश के अधिकांश भाग को चपेट में ले रखा है। श्मशान घाट और कब्रिस्तान 24 घंटे चल रहे हैं, फिर भी लाशों के अंबार लगे हैं। कोरोना के मरीज ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण दम घटुने से मर रहे हैं। ऑक्सीजन और कोविड को ठीक करने वाला इंजेक्शन रेमडेसिवि र काले बाजार में हजारों के भाव से बिक रहे हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्रति दिन हजारों लोग महामारी की भेंट चढ़ रहे हैं। देश में मौत का बाजार गर्म है और सरकार के पास भाषण और झूठे आंकड़ों के अलावा कुछ नहीं है।

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मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर पहले ही पूरी तरह असफल हो चुकी है। बेरोजगारी चरम पर है। वह युवा जिसे विकास के सपने दिखाकर 2014 का चुनाव जीता गया था, निराश है। किसान के विकास के सपने कृषि कानूनों की भेंट चढ़ चुके हैं। पहले जीएसटी और नोटबंदी का रोना रो चुके छोटे-मोटे धंधे वाले अब कोरोना पर आंसू बहा रहे हैं। देश पहले ही हताश था, रही-सही कसर कोरोना की दूसरी लहर ने पूरी कर दी। आलम यह है कि अस्पतालों में बेड उपलब्ध नहीं हैं और श्मशान घाट पर शवदहन के लिए कूपन बंट रहे हैं।

साफ है कि ऐसी घोर विफलता के माहौल में मोदी सरकार अपनी सफलताओं का बखान तो चुनाव जीतने के लिए कर नहीं सकती है। इसलिए मोदी जैसे निपुण चुनावबाज नेता के लिए काशी विवाद से बेहतर भावुक मुद्दा और क्या हो सकता है? इस मुद्दे में वह सब कुछ है जो अयोध्या मुद्दे में था। तब एक बाबरी मस्जिद थी, तो अब ज्ञानवापी मस्जिद है। तब भगवान राम का जन्मस्थान था, तो अब काशी में भोलेनाथ की मर्यादा का प्रश्न है। तब बाबरी मस्जिद बचाने को मुसलमान अपनी जान की बाजी लगाने को तैयार हो रहा था, तो हिंदू भगवान राम के प्रेम में ‘बच्चा-बच्चा राम का’ नारा लगा रहा था।

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अब मोदी जैसे हिंदू- मुस्लिम विभाजन की निपुण राजनीति करने वाले नेता के लिए सन 2024 लोकसभा चुनाव के लिए काशी विवाद से बेहतर और कौन-सा भावुक मुद्दा हो सकता है। इसलिए पूरी संभावना है कि अगला 2024 का चुनाव इसी मद्दे पर हो। यह ऐसा मुद्दा है जो विपक्ष को मस्जिद-मंदिर विवाद के बीच असहाय भी कर सकता है, क्योंकि देश के हिंदूमय माहौल में कोई भी विपक्षी दल मंदिर के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता है। ऐसे में हिंदुत्व की खुली राजनीति करने वाले नेता ‘हिंदू हृदय सम्राट’ मोदी सन 2022 तक अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बाद काशी मंदिर के मुद्दे पर ‘हिंदू अस्मिता’ के लिए 2024 का चुनाव क्यों नहीं लड़ सकते हैं।

इसलिए अभी से विचार करने की जरूरत है कि काशी विवाद-जैसे भावुक मुद्दे को राजनीतिक बनाने से रोकने के लिए क्या हो सकता है? मैंने पिछले सप्ताह ही यह बात कही थी और उन्हें ही दोहरा रहा हूं। वह जरूरी बात यह है कि काशी मुद्दे को राजनीतिक स्वरूप से बचाने की सबसे पहली और मुख्य भूमिका मुस्लिम समाज की है। सवाल उठ सकता है कि अयोध्या मामले की तरह इस मामले को भी छेड़ा तो हिंदू समाज की ओर जाएगा है, तो फिर मुस्लिम वर्ग की मुख्य भूमिका क्यों?

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वह इस वजह से कि हिंदुत्व और मोदी की पूरी राजनीति की सफलता एक ‘हिंदू शत्रु’ पर ही आधारित होती है। वह शत्रु कभी बाबरी मस्जिद के स्वरूप में, तो कभी गोधरा ट्रेन हादसे के रूप में मुस्लिम वर्ग ही बना दिया जाता है। हिंदू रोष पैदा करने के लिए निपुणता से पूरे मुस्लिम समाज को ‘हिंदू शत्रु’ की छवि दे दी जाती है। फिर भावुक हिंदू अपनी सारी समस्याएं भूलकर बीजेपी को हिंदू हित की पार्टी मानकर श्रद्धापूर्वक वोट दे देता है। भले ही विपक्ष सरकार की नाकामियों की माला जपती रहे, ‘मुस्लिम शत्रु’ को ‘ठीक’ करने की चाह में हिंदू वोट बैंक एकजुट होकर बीजेपी की झोली में चला जाता है और विपक्ष मुंह ताकता रहता है।

ऐसे में भाजपा की रणनीति को विफल करने की अभी से कुशल राजनीति होनी चाहिए। इसमें मुख्य भूमिका मुस्लिम समाज की ही होगी। मुसलमान को तय करना होगा कि वह ऐसा कौन-सा कदम उठाए कि भाजपा मुस्लिम वर्ग को काशी मामले में ‘हिंदू शत्रु’ की छवि नहीं दे सके। इस संबंध में मुस्लिम समुदाय को अयोध्या मामले से सीख लेनी पड़ेगी। अयोध्या मामले में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की ओर से बड़ी गलतियां हुईं, जिसका लाभ उठाकर भाजपा ने मुसलमानों को राम विरोधी ‘हिंदू शत्रु’ की छवि दे दी। यह हुआ कैसे?

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बाबरी मस्जिद-राम मंदिर मामले को करीब से देखने वालों को आज भी याद है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की छत्रछाया में बाबरी मस्जिद संरक्षण के लिए मुस्लिम समुदाय सबसे पहले सड़कों पर उतरा। सन 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के लगभग एक वर्ष तक एक्शन कमेटी की ओर से ‘इस्लाम बचाओ, मस्जिद बचाओ और मुसलमान बचाओ’ के मुद्दे पर बड़ी-बड़ी मुस्लिम रैलियां भावुक भाषणों के साथ होती रहीं। जब मुसलमान भलीभांति बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की छत्रछाया में धर्म संरक्षण के लिए एकत्र हो गए, तब विश्व हिंदू परिषद और फिर भाजपा ‘राम मंदिर’, ‘हिंदू धर्म’ और ‘हिंदू हित’ के लिए हिंदुओं के बीच चली गई। इधर, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की हठ बढ़ती रही, उधर हिंदू आक्रोश बढ़ता रहा। इसके साथ ही भाजपा को एक ‘हिंदू शत्रु’ प्राप्त हो गया।

इसका नतीजा यह हुआ कि बाबरी मस्जिद ध्वंस से लेकर मोदी राज तक मुसलमान देश में हाशिये पर पहुंच गया। अर्थात मुस्लिम क्रिया को ज्ञानवापी मामले में हिंदू प्रतिक्रिया में बदलने से रोकने की भूमिका मुस्लिम समुदाय को ही निभानी होगी।

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लेकिन यह काम हो तो कैसे? मस्जिद का मामला धार्मिक मुद्दा है। इसको वक्फ बोर्ड और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड- जैसी धार्मिक संस्थाएं ही उठाएंगी और ये दोनों संस्थाएं अदालत में जा भी चुकी हैं। जरूरत है कि काशी विवाद को तनिक भी धार्मिक अथवा किसी एक समुदाय का विवाद न बनाया जाए। इसके लिए मुस्लिम पक्ष की ओर से एक आधुनिक संस्था की आवश्यकता है। लेकिन मुस्लिम समुदाय की त्रासदी है कि उसके पास पर्सनल लॉ बोर्ड और वक्फ बोर्ड- जैसी संस्थाएं अथवा ओवैसी जैसे भावुक नेता तो हैं किंतु आधुनिक भाषा में बात करने वाली कोई आधुनिक संस्था नहीं है।

मेरी राय में तुरंत एक हिंदू-मुस्लिम सेकुलर ग्रुप का गठन हो जो मुस्लिम समुदाय के ‘पब्लिक फेस’ के रूप में काम करे, भले ही अदालत में बोर्ड लड़े। लेकिन ऐसी संस्थाएं मीडिया में बयानबाजी नहीं करें, न ही बाबरी मस्जिद के समय जैसी सड़कों पर भावुक रैलियां हों। जिस प्रकार संविधान बचाने के लिए सीएए विरोधी ‘शाहीन बाग’ तहरीक चली थी, काशी मामले में भी वैसी ही आधुनिक प्रतिक्रिया हो और यह काम हिंदू-मुस्लिम सेकुलर ग्रुप मिलजुल कर करें। सड़क की राजनीति या भावुक बयानबाजी हरगिज न हो। यदि काशी मामले में मुस्लिम पक्ष की ओर से धैर्य और बुद्धि से काम लेकर ऐसी रणनीति के तहत काम होता है, तो हिंदू आक्रोश पैदा होने की संभावना कम होगी, क्योंकि तब भाजपा मुसलमान को ‘हिंदू शत्रु’ की छवि नहीं दे पाएगी। इस प्रकार भाजपा की रणनीति विफल हो सकती है। इसलिए काशी मामला जनता के बीच बोर्ड-जैसे संगठनों द्वारा नहीं बल्कि हिंदू-मुस्लिम ग्रुप द्वारा ही उठाया जाना चाहिए। इसी में मुस्लिम और देश हित भी है।

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