शायद ही कोई अन्तराष्ट्रीय मंच होगा जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “वसुधैव कुटुम्बकम” का नारा ना लगाया हो, पर हरेक नारे के बाद देश में बीजेपी की, इसके हिंसक समर्थकों की, कट्टरवादी हिन्दू संगठनों की और पुलिस की धार्मिक संकीर्णता पहले से अधिक बढ़ जाती है। नतीजा सबके सामने है। अब तो कैमरे के सामने माइक थामे भगवाधारी और अनेक राजनेता भी खुलेआम एक धर्म के लोगों को मौत के घाट उतारने का आव्हान करते हैं, जनता ताली बजाती है, मीडिया इसे बार-बार दिखाता है और फिर हिंसा का तांडव होता है। पुलिस अचानक सक्रिय होती है और हत्यारों और हिंसा करने वालों को बचाने में जुट जाती है और पीड़ितों पर ही केस दायर कर अपनी वर्दी को दाग-दाग करती है।
यह सिलसिला वर्ष 2014 से लगातार चल रहा है, मामले बढ़ाते जा रहे हैं, गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री खामोश रहते हैं। अगले चुनाव तक हिंसा फैलाने वाले या तो पार्टी पदाधिकारी बन जाते हैं, या फिर चुनाव में खड़े हो जाते हैं। हत्यारों को बचाने वाले पुलिस अधिकारी समय से पहले पदोन्नति पाकर इनाम पाते हैं, कुछ को तो पुरस्कार भी दिया जाता है।
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अब तो यह सब एक रूटीन जैसा हो गया है और यदि आप जागरूक हैं तो आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि किस मौके पर ऐसी हिंसा होने वाली हैय़ इसाईयों के लिए क्रिसमस का त्यौहार सबसे बड़ा त्यौहार है- सरकार और उसके हिंसक समर्थकों का रवैया देखकर आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि कम से कम बीजेपी शासित प्रदेशों में इसाईयों पर हिंसा होगी और चर्च के अन्दर जय श्री राम का नारा गूंजेगा, पुलिस मूक दर्शक रहेगी और अंत में भगवा ब्रिगेड कहीं और हिंसा कर रहा होगा और पीड़ित गुनाहगार के तौर पर न्यायालय में पेश किये जाएंगे।
एक सप्ताह पहले क्रिसमस के दिन देश भर में लगभग 50 जगहों पर ईसाइयों, धर्मगुरुओं या फिर चर्च पर हिंसक हमले किये गए। उत्तर प्रदेश के आगरा में एक मिशनरी स्कूल के बाहर जब बजरंग दल के कार्यकर्ता नारेबाजी करते हुए सांता क्लाज के पुतले को आग लगा रहे थे उस समय स्कूल में छोटे बच्चे मौजूद थे और क्रिसमस का जश्न मना रहे थे। उत्तर प्रदेश के ही मात्रिधाम आश्रम में क्रिसमस के जश्न के समय भीड़ ने घुसकर हिंसा की और जय श्री राम के नारे लगाए।
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हरियाणा के अम्बाला के एक चर्च में ईसा मसीह की मूर्ति तोड़ दी गयी। हरियाणा के ही पटौदी में एक स्कूल में जय श्री राम के नारे लगाती भीड़ ने छोटे बच्चों से हाथापाई की। असम के एक चर्च में 2 लोगों ने घुसकर प्रार्थना सभा को बाधित किया। किसी भी घटना में पुलिस ने हिंसा करने वालों पर कोई भी कार्यवाही नहीं की है, दूसरी तरफ अनेक मामलों में चर्च, स्कूल या फिर इसाई धर्मगुरुओं पर ही मुकदमा दायर कर दिया है।
कुछ मानवाधिकार संगठनों ने मिलकर अक्टूबर 2021 में 'क्रिस्चियन्स अंडर अटैक इन इंडिया' शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसके अनुसार वर्ष 2021 के पहले 9 महीनों में ही हमारे देश के 21 राज्यों में इसाईयों पर 300 से अधिक हमले किये गए हैं, पर केवल 49 एफआईआर दर्ज की गयी है और किसी को कोई सजा नहीं हुई है। सबसे खतरनाक तथ्य यह है कि इन हमलों में से 288 हमले भीड़ द्वारा किये गए हैं।
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10 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के मऊ में ईसाई दलितों और जनजातीय लोगों पर हमले किये गए। 3 अक्टूबर को 200 से अधिक की भीड़ ने उत्तराखंड के रूड़की में एक चर्च पर हमला कर प्रार्थना सभा में शामिल लोगों से मारपीट की| चर्च प्रशासन को इसकी धमकियां पिछले कई दिनों से मिल रही थीं और पुलिस में अनेक बार शिकायत दर्ज कराई गई थी। पर, पुलिस ने कुछ भी नहीं किया और घटना के बाद चर्च प्रशासन पर ही आरोप मढ दिया।
छत्तीसगढ़ में ऐसी घटनाएं अब सामान्य हो चली हैं। कर्नाटक में अभी हाल में ही धर्मांतरण को रोकने का कानून आया है, पर इससे पहले से ही वहां ईसाई, सरकार और हिन्दू कट्टरवादी संगठनों के निशाने पर रहे हैं। कर्नाटक के हुबली में एक चर्च के अन्दर जाकर विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल के सदस्यों में प्रार्थना सभा के दौरान मारपीट की, हिन्दुओं का भजन गाया, हनुमान चालीसा का पाठ किया और जय श्री राम के नारे लगाए। कर्नाटक में इस वर्ष अब तक ईसाईयों के खिलाफ हिंसा की 40 से अधिक वारदातें दर्ज की गईं हैं।
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कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश के एक मिशनरी स्कूल में छात्र अन्दर परिक्षा दे रहे थे और भीड़ स्कूल पर पत्थर बरसा रही थी, शीशे तोड़ रही थी और स्कूल के कर्मचारियों से हाथापाई कर रही थी। सबसे अजीब तथ्य यह है कि सरकार और उनके समर्थक लगातार ईसाईयों पर धर्मांतरण का आरोप मढ़ते रहे हैं, पर एक भी सबूत कभी सामने नहीं रख पाए हैं। हमारे देश में ईसाईयों की संख्या पूरी आबादी का महज 2 प्रतिशत है।
बीजेपी के नेता, जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, क्या कहते हैं और क्या होता है में हमेशा जमीन-आसमान का अंतर रहता है। असम विधानसभा चुनावों के समय हेमंत बिस्व सरमा ने कहा कि भविष्य में मस्जिदों के इमाम के बदले शिक्षकों, डॉक्टरों, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की जरूरत है। दूसरी तरफ जब मुस्लिम पढ़-लिख कर प्रशासनिक सेवाओं में आते हैं तब सुदर्शन टीवी पर यूपीएससी जेहाद दिखाया जाता है, जिसे केंद्र की बीजेपी सरकार भरपूर समर्थन देती है।
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याद कीजिये प्रधानमंत्री के नोटबंदी के ऐलान वाले भाषण को, जिसमें इसी प्रधानमंत्री ने काला धन खात्मा, आतंकवाद की कमर टूटने, केवल 50 दिनों की परेशानी और अंतिम आदमी के भले का दावा किया था- क्या प्रधानमंत्री का एक भी दावा सही हुआ? नागरिकता संशोधन कानून के पारित होने के बाद जब देश भर में आन्दोलन शुरू किये गए, तब इसी प्रधानमंत्री ने कभी हवा में हाथ लहरा-लहराकर तो कभी ताली पीटकर यह बताया था कि इस देश में अल्पसंख्यक भी उतने ही सुरक्षित हैं, जितने हिन्दू।
पर, देश में मुस्लिमों की स्थिति तो दिल्ली दंगों की रिपोर्ट, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया में पुलिस की बर्बरता और लव जिहाद और गौ रक्षा के नाम पर मुस्लिमों की गिरफ्तारी और लगातार हत्या ही बता देती है। दिल्ली दंगों के सरगना कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा और दूसरे लोगों का तो रिपोर्ट में जिक्र भी नहीं किया गया और मुजफ्फरपुर दंगों से बीजेपी नेताओं के नाम हटा दिए गए। हाल में ही तथाकथित संतों की हिंसक वाणी के बाद क्या हो रहा है, पूरी दुनिया देख रही है। प्रधानमंत्री जी अब पूरी तरह से खामोश हैं। प्रधानमंत्री जी भले ही खामोशी का चोंगा पहन लें, पर सभी देश में अल्पसंख्यकों के हालात पर चुप हैं ऐसा भी नहीं है।
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द साउथ एशिया कलेक्टिव नामक संस्था ने 'साउथ एशिया स्टेट ऑफ माइनॉरिटीज रिपोर्ट 2020' को प्रकाशित किया था और इसके अनुसार भारत लगातार अल्पसंख्यकों के लिए खतरनाक बनता जा रहा है और इन पर हिंसा और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। कुल 349 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, विशेष तौर पर अल्पसंख्यक कार्यकर्ताओं, की दयनीय स्थिति की भी चर्चा की गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों में मामले में दक्षिण एशिया के हरेक देश- भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान की स्थिति एक जैसी है और अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के सन्दर्भ में मानों इन देशों में ही आपसी प्रतिस्पर्धा रहती है। साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल इम्तिआज आलम के अनुसार इन सभी देशों में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों का लगातार उत्पीड़न किया जाता है और भारत की स्थिति इस सन्दर्भ में पाकिस्तान या अफगानिस्तान से किसी भी स्थिति में बेहतर नहीं है। दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों में लोकतंत्र के नाम पर फासिस्ट सरकारों का कब्जा है, जो विशेषतौर पर जनता के अभिव्यक्ति और आन्दोलनों के संवैधानिक अधिकारों का हिंसक हनन करने में लिप्त हैं।
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रिपोर्ट के अनुसार भारत में जब केंद्र सरकार ने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स लागू किया, तभी निष्पक्ष सोच वाली जनता, निष्पक्ष मीडिया, शिक्षाविदों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने समझ लिया था कि यह देश में अधिकतर अल्पसंख्यकों को बेघर करने की कवायद है। इसके बाद नागरिकता कानून पर देश भर में आन्दोलन किये गए, जिसके अनुसार केवल मुस्लिमों को छोड़कर शेष सभी अवैध तरीके से देश में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से घुसपैठ करने वालों को नागरिकता दी जाएगी। इस दौरान सरकार की नीतियों के आलोचकों, विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों का सरकारी तंत्र और कट्टरवादी सरकार समर्थक समूहों ने उत्पीड़न किया। इस दौर में केवल मंत्री और बीजेपी के दूसरे नेताओं ने ही नहीं, बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री ने भी ऐसे भाषण दिए, जो निश्चित तौर पर “भड़काऊ भाषण” की श्रेणी में थे।
रिपोर्ट में बताया गया कि भारत सरकार ने फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन एक्ट का इस्तेमाल मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों के लिए काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर किया, और समाचार माध्यमों पर एक अघोषित सेंसरशिप थोप दीI पर्यावरण संरक्षण से जुड़े संगठन ग्रीनपीस के बाद मानवाधिकार संगठन एम्नेस्टी इन्टरनेशनल को भी भारत में अपना काम और कार्यालय बंद करना पड़ा।
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इसी क्रिसमस के दिन केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने घोषणा की है कि मिशनरीज ऑफ चैरिटी अब से कोई विदेशी मदद नहीं ले सकता। मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त संत मदर टेरेसा ने वर्ष 1950 में की थी, देश भर में इसके 250 से अधिक केंद्र हैं और इसमें समाज के सबसे वंचित समुदाय की देखरेख की जाती है।
ऐन क्रिसमस के दिन यह ऐलान कर केंद्र सरकार ने अपने हिंसक समर्थकों को यह सन्देश दे दिया कि वे इसाईयों के खिलाफ हिंसा के लिए स्वतंत्र हैं और सरकार उनका साथ देगी- वर्ना जाहिर है क्रिसमस के दिन, जो राजपत्रित अवकाश है, उस दिन यह निर्णय नहीं लिया होगा, पर घोषणा के लिए सरकार ने यही दिन चुना। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मिशनरीज ऑफ चैरिटी के विरुद्ध इस आदेश का आधार गुजरात के वड़ोदरा में दर्ज एक शिकायत को बनाया गया है, जिसमें धर्मांतरण का आरोप है।
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मानवाधिकार की तरह समाजसेवी भी इस सरकार के निशाने पर रहते हैं, विशेष तौर पर समाज के सबसे निचले तबके के लिए काम करने वाले। सोनू सूद पर आयकर की छापेमारी सबको याद होगी, भीमा-कोरेगांव कांड के नाम पर भी जितने लोगों को जेल में बंद किया गया है- सभी का कसूर बस इतना है कि वे समाज के वंचित समुदाय के लिए आवाज उठा रहे थे। स्वर्गीय फादर स्टेन स्वामी भी इनमें से एक थे।
अमेरिका की ओपन डोर्स नामक संस्था पिछले 29 वर्षों से लगातार दुनिया भर में ईसाईयों पर हिंसा का आकलन कर सबसे खतरनाक देशों की सूची तैयार करती है, जिसका नाम है- वर्ल्ड वाच लिस्ट। वर्ल्ड वाच लिस्ट 2021 के अनुसार भारत ईसाईयों के लिए सबसे खतरनाक देशों की सूची में 10वें स्थान पर है। वर्ष 2014 से पहले भारत का स्थान 40 से भी ऊपर था। इस वर्ष की सूची में भारत से ऊपर के देश हैं- उत्तर कोरिया, अफगानिस्तान, सोमालिया, लीबिया, पाकिस्तान, इरीट्रिया, यमन, ईरान और नाइजीरिया।
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उत्तर कोरिया पिछले 20 वर्षों से लगातार पहले स्थान पर काबिज है। इस सूची से अल्पसंख्यकों पर हिंसा के मामले में हम किन देशों की बराबरी कर रहे हैं, पता चलता है। इस रिपोर्ट के अनुसार लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पोलिटिकल साइंस द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार भारत में रहने वाले क्रिस्चियन और मुस्लिम लगातार भय के माहौल में जी रहे हैं और अब तो उन पर अस्तित्व बचाने का प्रश्न है।
लगातार पिछले 7 वर्षों से प्रधानमंत्री जो कहते जा रहे हैं, दरअसल समाज में उसका असर ठीक उल्टा हो रहा है, पर अभी जनता को यह समझ में नहीं आया है। प्रधानमंत्री और उनके समर्थक एक ऐसा देश चाहते हैं जहां केवल सवर्ण और हिंसक हिन्दू बसते हों और जय श्री राम का नारा कोई धार्मिक उद्घोष नहीं बल्कि एक हिंसक हथियार हो।
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