अगड़ी जातियों का प्रभाव और वर्चस्व और उनके हाथों निचले तबकों का शोषण, भले ही सीधे तौर पर सांप्रदायिकता से न जुड़ते हों, लेकिन अपने अस्तित्व के लिए दोनों ही एक दूसरे के पर्याय हैं या एकदूसरे पर निर्भर हैं। इस प्रत्यक्ष प्रमाण को अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दिनों में ही लालू प्रसाद यादव ने भांप लिया था। वाम दलों ने भी सैद्धांतिक तौर पर इसे समझ तो लिया था, लेकिन इसे व्यवहारिक रूप से कभी इस्तेमाल नहीं किया। इसकी वजह कुछ हद तक यह भी रही कि भारत में वाम राजनीति पर खुद ही प्रभावशाली अगड़ी जातियों का प्रभाव रहा।
लालू यादव ने कट्टर हिंदुत्व की विकृतियों से जमकर मुकाबला किया। लेकिन रोचक यह है कि इसके लिए उन्होंने किसी नर्म हिंदुत्व की नकली आभा को इस्तेमाल नहीं किया। इसके बदले उन्होंने आम लोगों में व्याप्त सदियों से चली आ रही आध्यात्मिक परंपराओँ को अपनाया। देश का हर नागरिक, भले ही उसका धर्म या कर्म कुछ भी हो, किसी न किसी विश्वास, धर्म, रीति-रिवाज, परंपराओं और उत्सवों को तो मनाता ही है। इसके उलट एक तबका है जो धर्म के मामले में बहुत कट्टर है, किसी पुस्तक या पुजारी या पादरी से प्रेरित है।
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लेकिन लालू यादव का हिंदुत्व एकदम अलग है। जिसमें देहातीपन है, लोक परंपरा है, सबको जोड़ने वाला है। वहीं लालू का इस्लाम सुफी परंपरा वाला है, दरगाहों पर जाने वाला है, उत्सव और त्योहार मनाने वाला है। लालू के समर्थकों को धर्म खूब भाता है, लेकिन यह धर्म किसी से लड़ने या किसी को मारने का नहीं है, बल्कि शांति और खुशी वाला है जो आम आदमी की बेरंग जिंदगी में रंग भरता है।
अपने इस नजरिए को लालू यादव अपने समर्थकों, पार्टी कार्यकर्ताओँ और बिहार के आम लोगों तक बेहद प्रभावशाली और सरल तकीके से पहुंचाने में कामयाब रहे। इसका फायदा यह हुआ कि इससे सांप्रदायिक और जातिवादी, दोनों किस्म की हिंसा पर अंकुश लग गया। यह वह काम था जिससे बिहार के लोग वर्षों से परेशान थे।
लेकिन इस नजरिए ने काम कैसे किया? अगड़ी जातियों और वर्गों ने अपने उलटे पुलटे काम खुद किए। सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने हिंसा का सहारा लिया था और इसके लिए दोनों समुदायों के निचले तबके का इस्तेमाल किया था। गरीबों और निचले तबके ने एक बार दूसरे तबके या समुदाय के खिलाफ हथियार उठाने से इनकार कर दिया, हिंसा की घटनाएं अपने आप बंद हो गईं।
इस तरीके को अपनाते हुए लालू यादव ने बिहार में वर्षों से चले आ रहे सांप्रदायिक और जातीय संघर्ष और हिंसा पर विराम लगा दिया। ये सिलसिला उनके मुख्यमंत्री बनने से पहले बिहार में आम था। एक बार यह हो गया तो अगड़ी जातियों को, जो ग्रामीण इलाकों में संपन्न वर्ग भी हैं, यह काम खुद ही करने पर मजबूर होना पड़ा। और उन्होंने ऐसा किया भी। ब्रह्मेश्वर शर्मा ने रनवीर सेना बनाई और लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नरसंहार को अंजाम दिया। यह नरसंहार अनुसूचित जातियों का था।
राजूपतों ने सनलाइट यानी सूर्यवंशी क्षत्रिय सेना बनाई और औरंगाबाद में निचली जातियों का नरसंहार किया। नतीजा यह हुआ कि निचली जातियों को एक दूसरे से भिड़ाकर जो काम वह अब तक करते रहे थे, जब वही काम उन्हें खुद करना पड़ा तो, रंगे हाथ पकड़े गए और जेल में डाल दिए गए।
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जातीय प्रभाव और वर्चस्व की आभा पर ग्रहण लग चुका था और यह ताश के पत्तों की तरह भरभराकर गिरने लगा। अफसर, पुलिस और न्यायपालिका भी धीरे-धीरे रास्ते पर आ गए। सांप्रदायिक दंगों और नरसंहार रोकने की जिम्मेदारी सीधे जिलाधिकारियों, पुलिस अधीक्षकों, आईजी, डीआईजी और कमिश्नरों पर डाल दी गई। इस सबसे भी बढ़कर जो काम हुआ, वह था लालू की अपनी जाति के यादवों का कायापलट। कल तक जो यादव ब्राह्मणों और भूमिहारों के इशारे पर मुसलमानों के खिलाफ हाथ में तलवार उठाए मारकाट करने पर उतारू थे, उन्होंने खुद ही मुसलमानों के साथ भाईचारे का रिश्ता बना लिया।
ऐसे में जब यादवों के हाथों में हथियार नहीं थे, तो मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का काम कौन करता? अनुसूचित जातियों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों को एकसूत्र में बांधकर काबू में करने का कौन करता? लेकिन एक बार यादवों ने दूसरी निचली जातियों पर लाठी उठाने से इनकार कर दिया, और उनके बीच भाईचारे का रिश्ता कायम हो गया, निचले से निचले तबके के हिंदू को भी मुसलमानों के खिलाफ भड़काना असंभव हो गया। और मुसलमानों को भी निम्न या मध्यवर्गीय हिंदुओं के खिलाफ भड़काने की कोशिशें सफल हो पाईँ।
चूंकि देश के ज्यादातर हिस्सों में जाति ही आपकी संपन्नता भी तय करती है, और मुसलमानों में ज्यादातर गरीब तबके से आते हैं, ऐसे में धनाड्य वर्ग के हाथों गरीबों के शोषण पर भी अंकुश लगा, और बिहार की आबादी के 80 प्रतिशत की रिहायश वाले कृषि प्रधान ग्रामीण इलाकों में सामंतवादी प्रथा और सोच दम तोड़ने लगी। नतीजा यह हुआ कि शोषण करने वालों का ही शोषण होना शुरु हो गया। गरीबों ने अपने हक के लिए लड़ना शुरु कर दिया। वे उजाड़े नहीं गए थे, इसलिए उन्हें न तो गांव छोड़कर शहर आना पड़ा और न ही बिहार छोड़कर कहीं और जाना पड़ा। बल्कि इसके उलट, ज्यादातर धनाड्य सामंती जमींदारों को अपने वे गांव छोड़ने पड़े जो कभी उनकी जागीर हुआ करते थे। बहुत से ने तो बिहार ही छोड़ दिया। और यह सब हुआ बिना किसी अतिवादी वैचारिक कट्टरता और वामपंथ के लिए जरूरी अप्राकृतिक और परेशान करने वाली नास्तिकता के। जबकि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में तो वामपंथ फल-फूल रहा था।
लालू की विचारधारा एक तरफ वामपंथ की उस सोच से मिलती थी, जिसमें सामंतवाद और जाति और वर्गों का खात्मा था, तो दूसरी तरफ व्यवहारिक मानवता और बिना हिंसा का सहारा लिए सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक बदलाव था।
यही वजह रही कि लालू की राजनीति ने कभी धर्मा और आध्यात्म का साथ नहीं छोड़ा, हमेशा गरीब हितैषी और वाम सोच के बावजूद वामपंथ से दूर रही। यह वह नीति थी जो देश के हर तबके को आकर्षित करती थी। इसके आकर्षण के केंद्र थे सबको साथ लेकर चलना, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक बदलाव करना।
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