केरल सरकार का कहना है कि सैंकड़ो लोगों की जान लेने और सरकारी और निजी संपत्ति को बुरी तरह नुकसान पहुंचाने वाली हालिया बाढ़ से हुई बर्बादी से निपटने के लिए उसे 2600 करोड़ रुपये की जरूरत है। केंद्र ने कहा कि वह इसके लिए 600 करोड़ रुपये देगी। केरल सरकार ने कहा कि संयुक्त अरब अमीरात (जिसमें दुबई, आबूधाबी और शारजाह शामिल हैं) ने 700 करोड़ रुपये देने की पेशकश की है, जिसपर दिल्ली की सरकार ने कहा कि वह इस स्वीकार नहीं करेगी। इस इनकार के लिए मनमोहन सिंह की पिछली सरकार की नीति का हवाला दिया गया। शायद दिल्ली के दबाव में अब यूएई की सरकार ने कहा है कि केरल को कोई विशिष्ट मदद की पेशकश नहीं की गई थी। हालांकि, भारत में थाइलैंड के राजदूत ने खुद लिखा है कि भारत की सरकार विदेशी मदद को अस्वीकार कर रही है। उनके सटीक शब्द हैं: "अफसोस के साथ अनौपचारिक रूप से सूचित किया गया है कि भारत सरकार केरल बाढ़ राहत के लिए विदेशी मदद स्वीकार नहीं कर रही है। हमारी भावनाएं आप भारत के लोगों के साथ हैं।"
दुबई के शासक से बात करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, “इस कठिन समय में केरल के लोगों की सहायता करने के उनके दयालु प्रस्ताव के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। उनकी यह चिंता भारत और संयुक्त अरब अमीरात की सरकारों और लोगों के बीच के विशेष संबंधों को दर्शाती है।” यह ट्वीट बताता है कि यूएई द्वारा केरल की मदद की पेशकश की गई थी और यह भी कि इसे अस्वीकार कर दिया गया। तो फिर विदेशी मदद को लेकर नीति क्या है?
2004 में मनमोहन सिंह की सरकार ने इसमें दखल दिया था। उस वक्त तक भारत विदेशों से मदद को स्वीकार करता था। साल 2004 में आयी सुनामी के बाद ये फैसला लिया गया था कि भारत विदेशी मुल्कों से राहत और बचाव सहायता स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन पुनर्वास के लिए मिलने वाली मदद को स्वीकार करेगा। इसमें राहत और बचाव के लिए तत्काल सहायता करने को आवश्यक माना गया। इसमें आपदा प्रभावित लोगों की मदद कर रहे घटनास्थल पर मौजूद लोगों की वह टीम शामिल है, जो पीड़ितों के सबसे निकट संपर्क में हैं।
ऐसा कहने की क्या वजह हो सकती है कि आपदा राहत के लिए कोई विदेशी मदद स्वीकार नहीं की जाएगी? इसमें बहुत कुछ हो सकता है। उदाहरण के लिए, स्थानीय प्रशासन इलाके से ठीक से परिचित होता है और बाहरी लोग इलाके या स्थानीय भाषा की जानाकारी नहीं होने के कारण आपदा के खतरे में आ सकते हैं। दूसरा कारण यह हो सकता है कि इन मामलों में भारतीय राज्यव्यवस्था पहले से ही उचित रूप से मजबूत है और एक स्थायी नौकरशाही के माध्यम से जुड़ा हुआ है। इसके पास एक बड़ी सैन्य और अर्धसैनिक बलों की ताकत भी है, जिसे अक्सर सामान्य कामों में तैनात किया जाता है (जैसा केरल में हुआ)।
तीसरा कारण यह हो सकता है कि भारतीयों को बचाते हुए विदेशियों का दिखना समस्या खड़ी कर सकता है और हमारे राष्ट्रीय गौरव को धुमिल कर सकता है। यह चिंता लंबे समय के पुनर्वास के मामले में नहीं दिखती है, जो कि स्पष्ट है।
मनमोहन सिंह और उनकी टीम ने यह फैसला क्यों किया, इसके कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं, लेकिन आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति में उनका उल्लेख नहीं किया गया है। मेरा विचार है कि अगर चिंता पहली और दूसरी थी, तो यह उचित प्रतीत होती है। हालांकि, अगर यूपीए ने दृढ़ता से तीसरे कारण यानी राष्ट्रीय गौरव को निर्धारक माना तो यह समस्या की बात है।
अब आइए हम पुनर्वास के लिए भी मदद लेने से इनकार को देखें, जो मोदी सरकार द्वारा संयुक्त अरब अमीरात और थाईलैंड की पेशकश को अस्वीकार करने में दिखता है। ऐसा करने के संभावित कारणों के बारे कोई जो सोच सकता है, वह इस तरह है:
पहला, हमें उनके पैसे की जरूरत नहीं है। क्योंकि अपने नागरिकों के प्रभावित होने पर दीर्घ अवधि तक उनकी देखभाल करने के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं। दूसरा, कि हम कुछ खास देशों (उदाहरण के लिए चीन और पाकिस्तान) से पैसे नहीं लेना चाहते हैं और इसकी वजह से अपनी बात पर कायम रहने के लिए हम किसी से भी सहायता नहीं ले सकते हैं। तीसरा कारण, एक बार फिर वही कि, सहायता लेने से राष्ट्रीय सम्मान को ठेस पहुंचता है और यह एक तरह से बाहरी दुनिया की निगाह में हमें गिराता है क्योंकि हम सहायता लेने वाले हो जाएंगे, सहायता करने वाले नहीं हैं।
इसके कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं, जिनके बारे में हमें पता ना हो, लेकिन वे क्या कारण हैं, सरकार ने हमें नहीं बताया। मेरे लिए, पहला कारण साफ तौर पर गलत है। किसी भी परिभाषा के अनुसार हम एक गरीब देश हैं। यह दिखाना कि हम गरीब नहीं हैं, अपने आसपास क्या हो रहा है, उससे आंखें फेर लेने जैसा है। मेरे लिए दूसरा और तीसरा कारण एक बार फिर से समस्या वाली बात है। यह बात आपदा से प्रभावित होने वाले व्यक्ति और समुदाय को तय करना चाहिए कि विदेशी सहायता स्वीकार करने में उनके सम्मान को ठेस पहुंचता है या नहीं। एक व्यक्ति की भावनाएं होती हैं, न कि एक मुल्क की। राष्ट्रीय गौरव जैसी कोई वास्तविक बात नहीं होती है। यह काल्पनिक है, जबकि आर्थिक मदद और सहायता वास्तविक है।
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केरल सरकार का कहना है कि संयुक्त अरब अमीरात कोई साधारण जगह नहीं है और इसे सिर्फ एक विदेशी राज्य के रूप में नहीं देखा जा सकता है। यह एक ऐसा देश है जिसे बनाने में भारतीयों, विशेष रूप से मलयाली लोगों ने अपने हाथों से मदद की है। दुबई में उनकी एक मजबूत हिस्सेदारी है और उस देश की किसी भी सहायता को केवल दान के रूप में नहीं देखा जा सकता है। इस बात से असहमत होना मुश्किल है। यहां तक कि अगर मनमोहन सिंह की अलग नीति थी, तो भी इसकी त्रुटियों को नहीं देखना और उसे सही नहीं करने का हमारे पास कोई कारण नहीं है। अपने लोगों की सबसे बड़ी जरूरत के समय उन्हें मिल रही मदद को अस्वीकार करना क्रूरता है।
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