इन दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है। इस वीडियो में किसान भैंस के आगे बीन बजा रहे हैं और भैंस टस से मस नहीं हो रही है। कहने को तो भैंस के आगे बीन बजाना एक मुहावरा है। परंतु बात यह है कि किसान आंदोलन की स्थिति कुछ ऐसी ही है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से हजारों की संख्या में किसान अपना घर-बार छोड़कर दिसंबर की इस ठंड में खुले आसमान के नीचे दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठे हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार का हाल वही भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है। सरकार अपनी बात पर अड़ी है, ‘हम किसानी संबंधी तीनों नए कानूनों को वापस नहीं लेंगे’ - मोदी सरकार की बस यही एक रट है।
उधर, किसान भी अपनी मांग पर अटल हैं कि सरकार तीनों कानूनों को वापस ले। और अब तो किसानों के हौसले भी बुलंद हैं। भले ही भारतीय जनता पार्टी और गोदी मीडिया कुछ कहे, भारत बंद को लगभग पंद्रह राज्यों में ठीक- ठाक सफलता मिली। फिर लगभग संपूर्ण विपक्ष अब किसानों के पक्ष में खड़ा है। स्पष्ट है कि मोदी सरकार इस मुद्दे पर अकेली पड़ती जा रही है। फिर भी सरकार अपनी बात पर अड़ी है।
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आखिर क्या बात है कि देश के किसानों की बात पर कान तक देने को सरकार तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सरकार का हर मंत्री और गोदी मीडिया की केवल यही रट है कि तीनों कानून किसानों के हित में हैं। अरे भाई, सरकार को आखिर यह ज्ञान कहां से प्राप्त हो गया कि यदि किसानी अब नए सरकारी कानून के आधार पर हो तो किसानों के घर धन-दौलत से भर जाएंगे! लाखों किसान जो इन कानूनों से सहमत नहीं हैं, क्या वे मूर्ख हैं! सद्बुद्धि केवल सरकार के पास है।
वैसे भी, मोदी जी को अपने बारे में यह मुगालता है कि इस देश में बुद्धि केवल और केवल उनके ही पास है। यह बात अलग है कि अब तक मोदी जी ने अपनी ‘सद्बुद्धि’ से जितने भी कदम उठाए, उनसे जनता सहित पूरे देश का सर्वनाश हो गया। रातों-रात नोटबंदी के ऐलान ने देश की आर्थिक कमर तोड़ दी। जो कुछ रहा-सहा बचा था वह अनदेखे, बिना सोचे-समझे लगाए गए लॉकडाउन ने पूरा कर दिया। लाखों लोग सैंकड़ों मील पैदल चलने को विवश, करोड़ों बेरोजगार और अनगिनत कारोबार ठप! यह है मोदी जी की ‘सद्बुद्धि’। अब किसानों की मांगों पर भी मोदी जी उनकी सुनने के बजाय अपनी ‘सद्बुद्धि’ पर अडिग हैं और उनकी ओर से सरकार यही कहे जा रही है कि किसानी कानून किसानों के हित में हैं।
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परंतु सरकार की बात का कोई-न-कोई औचित्य तो होना चाहिए। स्वयं प्रधानमंत्री का मानना है कि “हम पुराने (किसानी) कानूनों के आधार पर एक नई सदी (युग) नहीं बना सकते हैं।” अर्थात सरकार खेती- बाड़ी में संपूर्ण रूप से ‘मार्केट इकनॉमी’ लागू करना चाहती है। इसका क्या अर्थ हुआ, अब किसान को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा अथवा मंडी नहीं चलेगी। उसके बजाय बाजार जो तय करेगा, किसानी में भी वही होगा। लेकिन पिछले कुछ दशकों से अर्थव्यवस्था के हर मामले में ‘बाजार’ शब्द सुनते- सुनते कान पक चुके हैं। बाजार अपने से स्वयं तो चलता नहीं है। उसको चलाने वाले कुछ लोग तो होते ही होंगे। और हम-आप मुख्य रूप से यह जानते हैं कि बाजार मुख्यतः पूंजीपति की मर्जी से चलता है। स्पष्ट है कि मोदी सरकार भी खेती-बाड़ी सुधार के नाम पर किसानी को पूरी तरह पूंजीपतियों के हवाले करना चाहती है। और सरकार का मानना है कि जब तक किसानी में पूंजीपति का दखल नहीं होगा, तब तक किसान की उन्नति नहीं होगी और देश में एक ‘नई सदी’ अथवा ‘नए युग’ का प्रारंभ नहीं होगा।
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मोटे-मोटे तौर पर प्रधानमंत्री की बात समझ में आती है। वह यही कह रहे हैं कि भारतीय खेती-बाड़ी में जो कानून न जाने कितने दशकों से चले आ रहे हैं, उनके आधार पर न तो किसान का भला होगा और न ही देश का हित होगा। बात यूं ठीक भी लगती है। उन्नति के लिए परिवर्तन आवश्यक नियम है। मोदी जी ने जो बात कही, वह सारे यूरोप और अमेरिका में हुआ और आज यूरोप-अमेरिका दुनिया में सबसे आगे हैं। उनका किसान भी सबसे मालदार किसान होगा। अर्थात अब देश में खेती-बाड़ी के तौर-तरीकों में परिवर्तन की आवश्यकता है। उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए नए नियमों एवं कानून की आवश्यकता है। सरकार ने उसी परिवर्तन के लिए तीन नए कृषि नियम बनाए हैं, जो मोदी जी के अनुसार, किसान हित में हैं और उन नियमों के आधार पर देश उन्नति के नए युग में प्रवेश कर जाएगा।
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मोदी जी अर्द्धसत्य की बढ़िया रूप से पैकेजिंग करके मार्केटिंग करने में बादशाह हैं। इसमें कोई शक नहीं कि प्रगति के लिए परिवर्तन अनिवार्य है। यह भी सत्य है कि यूरोप और अमेरिका में प्रगति परिवर्तन के माध्यम से ही आई। अतः भारत को यदि किसानी एवं गांव-देहातों में प्रगति चाहिए तो परिवर्तन अनिवार्य है। परंतु मोदी जी जिस ‘यूरोपीय मॉडल’ को लेकर चल रहे हैं, उसका एक बहुत क्रांतिकारी इतिहास भी है। उस इतिहास के साथ केवल आर्थिक परिवर्तन ही नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन भी जुड़ा हुआ है। सत्य तो यह है कि यूरोप की संपूर्ण उन्नति का कारण ही केवल सामाजिक परिवर्तन ही नहीं बल्कि सामाजिक क्रांति है। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में यूरोप में जो औद्योगिक क्रांति आई, वह सामाजिक क्रांति के पेट से ही जन्मी थी। और उस क्रांति का आधार ही यूरोप के गांव- देहातों में चली आ रही जमींदारी पर आधारित किसानी व्यवस्था थी। सन 1789 में जब फ्रांस में यह क्रांति आरंभ हुई तो खून से लथपथ चार वर्षों तक चलती रही। यूरोप का इतिहास आज भी उन चार वर्षों को ‘रेन ऑफ टेरर’ अर्थात ‘आतंक का युग’ के नाम से याद करता है। इस क्रांति में फ्रांस के बादशाह से लेकर गांव-देहातों के बड़े-बड़े जमींदार और सहयोगी चर्च के पादरी-पोप मारे गए। यह थी वह सामाजिक क्रांति जिसने यूरोप की केवल कृषि ही नहीं बल्कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राजनीति का भी कायापलट कर दिया। इस प्रकार सामाजिक क्रांति ने यूरोप की जमींदारी व्यवस्था की कमर तोड़कर एक नया समाज एवं नई उन्नति का मार्ग ढूंढ निकाला।
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क्या नरेंद्र मोदी एवं उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी क्रांति के लिए तैयार हैं? मोदी जी, ऐसी सामाजिक क्रांति के लिए पहले इस देश की सदियों पुरानी जातिवादी व्यवस्था को तहस-नहस करना होगा। क्या मोदी जी इस देश से जातिवाद खत्म करने को तैयार हैं? क्या पिछले छह वर्षों में मोदी शासनकाल के दौर में आपने जातीय व्यवस्था को खत्म करने की बात तो जाने दीजिए, कभी सामाजिक न्याय का भी एक शब्द सुना? अगर कुछ सुनने में आया तो केवल यह सुनने में आया कि मोदी सरकार पिछले दरवाजे से पिछड़ों एवं दलितों को मिलने वाला आरक्षण भी घटाती जा रही है। कटु सत्य तो यह है कि संघ की कोख से जन्मी भाजपा एवं उसके नेता नरेंद्र मोदी भारत में जातीय व्यवस्था तोड़कर किसी प्रकार की सामाजिक क्रांति की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
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बात अब स्पष्ट है। वह यह कि बगैर सामाजिक परिवर्तन के गांव-देहातों में जो आर्थिक क्रांति आएगी, वह केवल पूंजीपति के हक में होगी और उससे किसान लाभान्वित तो क्या होगा, उसे मार दिया जाएगा। मोदी सरकार की असल मंशा भी यही है। किसान अगर यह कह रहा है कि सरकार के तीन किसानी कानून दरअसल अडानी एवं अंबानी जैसे पूंजीपतियों के हित में हैं तो गलत नहीं कह रहा है। उसको इस बात का भंली-भांति आभास है, तब ही तो वह घर-बार छोड़कर इस ठंड में खुले आसमान के नीचे दिल्ली की सीमाओं पर बैठा हुआ है और मोदी सरकार उसकी मांगों पर कान तक देने को तैयार नहीं है। और हो भी कैसे? मोदी सरकार तो है ही अडानी एवं अंबानी की सरकार, वह भला उनका हित नहीं, तो फिर क्या गरीब खेतिहर किसानों का हित पूरा करेगी?
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