विचार

महात्मा गांधी से गांधीवाद जिंदा रहेगा, यह सुनने के लिए नब्बे साल पहले हजारों लोगों ने टिकट खरीदा था

दुनिया भर में सेलेब्रेटरीज को देखने के लिए लोग रुपये खर्च करते हैं। लेकिन भारतीय राजनीति में गांधी संभवत: पहले और आखिरी ऐसे जन नेता थे, जिनको देखने के लिए लोगों ने हजारों खर्च किए। गांधी की 25 मार्च 1931 की करांची की इस सभा के लिए पच्चीस पैसे का टिकट लगा था।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

यह किसी को जानकार हैरानी हो सकती है कि आज से लगभग नब्बे साल पहले महात्मा गांधी को देखने और सुनने के लिए टिकट लगाया गया और कांग्रेस ने टिकट की राशि से तब दस हजार रुपये जमा किए। यह वह सभा थी जिसमें पहली बार महात्मा गांधी ने खुद ही कहा था कि गांधी भले मर जाए लेकिन गांधी वाद सदा जिंदा रहेगा।

महात्मा गांधी के जिस वाद को हम गांधीवाद के नाम से जानते हैं, उसका जिक्र खुद गांधी ने 1931 में पहली बार किया था। 25 मार्च 1931 को करांची में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। गांधी को देखने और सुनने के लिए करांची में टिकट लगाया गया। वे उस वक्त कांग्रेस के अधिवेशन के लिए वहां पहुंचे थे। गांधी-इर्विन समझौते के बाद गांधी जी ने करांची में अधिवेशन से पहले एक सभा की।

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उस सभा में गांधी को देखने और सुनने वालों को टिकट लेने के लिए कहा गया। देखते-देखते हजारों की लंबी लाइन लग गई। लोगों ने टिकट खरीदा और गांधी को देखने-सुनने के लिए खुले मैदान में पहुंचे, जहां केवल एक मंच बना था। कांग्रेस के इतिहासकार पट्टभि सीतारमैया लिखते हैं कि अधिवेशन से पहले एक सभा में गांधी जी ने पहली बार कहा कि वह भले मर जाएं, लेकिन गांधी वाद सदा जीवित रहेगा।

दुनिया भर में सेलेब्रेटरीज को देखने के लिए लोग टिकट के लिए मारा-मारी करते हैं। रुपये खर्च करते हैं। लेकिन भारतीय राजनीति के गांधी संभवत: पहले और आखिरी ऐसे जन नेता थे और उनको देखने के लिए भी लोगों ने हजारों खर्च किए। गांधी की 25 मार्च 1931 की इस सभा के लिए पच्चीस पैसे का टिकट लगा था। पच्चीस पैसे मतलब चार आना। तब एक चवन्नी देकर कांग्रेस का सदस्य भी बना जा सकता था। हजारों लोगों ने अपनी जेब से चवन्नी निकाली।

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पूरी दुनिया में आज क्राउड फंडिंग की जाती है। उसमें चमकते-दमकते सितारे लगते हैं और उनसे मनोरंजन हासिल करने वाले लोग अपने चहेते को किसी सामाजिक काम के लिए दान देते हैं। गांधी 1931 में भारतीय समाज के सबसे बड़े सितारे थे। उनके देखने और सुनने वालों की भीड़ तब इतनी थी कि उनकी सभा में दस हजार रुपये इकट्ठे हो गए। एक रुपये में चार चवन्नी होती है। यानी दस हजार रुपये खर्च करके चालीस हजार लोग 1931 में करांची में गांधी को देख और सुन रहे थे। देश के विभाजन के बाद करांची पाकिस्तान का हिस्सा है।

इस अधिवेशन की एक और खास बात यह याद रखने वाली है कि इसमें गुजरात से बल्लभ भाई पटेल के पहुंचने के खास मायने थे। महात्मा गांधी ने किसानों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता बल्लभ भाई पटेल को कांग्रेस का सभापति बना दिया। 1931 में गुजरात से किसान नेता बल्लभ भाई पटेल ने पूरे देश में कांग्रेस की कमान संभाली।

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तब एक किसान ने कैसे अपने को गौरवान्वित महसूस किया था, कैसे एक गुजराती ने अपना सिर उठाकर गर्व महसूस किया था, यह बात खुद सरदार पटेल ने बयान किया था। स्वयं बल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि यह गौरव केवल एक किसान को नहीं मिला है, बल्कि गुजरात को भी, जिसने स्वतंंत्रता के युद्ध में एक बड़ा भाग लिया था। किसान नेता की शान और राज्य के प्रति अभिमान कितनी बड़ी सांस्कृतिक पूंजी होती है, यह पटेल को सुनकर महसूस किया गया।

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