कुछ ही महीनों में एक बड़े एनजीओ के प्रमुख के तौर पर मेरा कार्यकाल खत्म हो जाएगा। ऐसे में मैंने सोचा कि क्यों न एनजीओ के बारे में लिखा जाए और पाठकों से वह अनुभव साझा किए जाएं जो मैंने इस एनजीओ के साथ काम करते हुए चार साल में जाने और सीखें हैं।
सबसे पहली बात तो उन लोगों के बारे में जो सिविल सोसायटी का हिस्सा कहलाते हैं, यानी इस सोसायटी के लोगों की रूचि एक समान होती है। इन्हें एक्टिविस्ट कहा जाता है और उनके संगठनों को एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) कहा जाता है। मैंने जाना कि इन संगठनों में कुछ बेहतरीन दिमाग वाले लोग काम करते हैं और हम सबको इन पर गर्व करना चाहिए। इस क्षेत्र में काम करने वालों का वेतन कार्पोरेट सेक्टर से बहुत कम होता है फिर भी इनमें बहुत सारे युवा काम करते हैं, जो बड़ी बात है।
दूसरी बात जो है वह यह कि ये सारे लोग जो काम करते हैं। इस क्षेत्र में लोग दशकों से काम कर रहे हैं। इनके काम का क्षेत्र सिर पर मैला ढोने वालों के लिए काम करने से लेकर विकलांगों की मदद करना और प्राथमिक शिक्षा आदि से जुड़ा है। इसमें कोई शक नहीं कि ये लोग एक अच्छा काम करते हैं। लेकिन इनसे जुड़ी जो अहम बात है वह कि इन लोगों को हर क्षेत्र और मुद्दे की बहुत गहरी समझ है, जोकि सरकार के किसी विभाग में देखने को नहीं मिलती।
इसी से मेरा तीसरा बिंदू जुड़ा है। वह यह है कि इन लोगों और ऐसी संस्थाओं को सरकार के साथ काम करने में बेहद दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सरकारी तौर-तरीके और अफसरों-नेताओं का रवैया बहुत ही संकीर्ण है। कई बार तो इनमें अहंकार भी नजर आता है। नेता-अफसर नागरिकों के के साथ नौकर-मालिक जैसा रिश्ता रखते हैं, भले ही नागरिक और सामाजिक कार्यकर्ता कितने ही लंबे से समय से किसी क्षेत्र विशेष में काम न करते हों।
चूंकि, मैं भी विश्व स्तर की एक संस्था से जुड़ा हूं तो मैं कह सकता हूं कि दूसरे लोकतंत्रों में, खासतौर से यूरोप में सिविल सोसायटी और सरकार का रिश्ता कहीं बेहतर और नजदीकी है। वहां सरकारें नागरिकों और एक्टिविस्ट के काम की कद्र करती हैं, जबकि हमारे यहां उन्हें कुछ ही और ही समझा जाता है।
चौथी बात, जो ज्यादा लोगों को नहीं पता होगी, वह यह कि जब ये कार्यकर्ता और एनजीओ सरकार से बात करते हैं तो कितने अहम बिंदु उठाते हैं। यूपीए सरकार के दौर मे सिविल सोसायटी के लोगों को मिलाकर एक संस्था बनाई गई थी जिसे नेशनल एडवाइज़री काउंसिल (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद) का नाम दिया गया था। इस परिषद में जो लोग थे उनमें से ज्यादातर एक्टिविस्ट और एनजीओ से जुड़े लोग थे। इन्हीं लोगों ने मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसे कानून बनाने की सलाह सरकार को दी थी।
अगर ये कानून अब भी बाकी हैं और लोग इनकी इज्जत करते हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि इसके पीछे गहरी सोच थी, जो कई बार सरकारें नहीं सोच पाती हैं। मुझे इसमें कोई असमंजस नहीं है कि सूचना के अधिकार जैसे कानून ने बहुत कुछ बदला है। इस कानून से आम लोगों को वोट के अधिकार के साथ ही एक मजबूत हथियार मिला है।
पांचवी बात यह है कि एक्टिविस्ट और एनजीओ मध्य वर्ग और गरीबों के बीच की खाई पाटने का काम करते हैं। कई बार मध्य वर्ग गरीबों और भिखारियों को चौराहे पर देखकर कार के शीशे ऊपर चढ़ा लेता है। हम कई बार इसी तरह के माहौल में काम करते हैं। किसानों की आत्महत्या का मामला हो या कृषि क्षेत्र का संकट, हमारे लिए कई बार कुछ मायने नहीं रखता, क्योंकि हमारा वास्तविकता से सीधा संबंध तो होता ही नहीं है।
मध्य वर्ग से आने वाले एक्टिविस्ट और एनजीओ ही हैं जो इन मुद्दों पर गहरी नजर रखते हैं और इस तबके को दूसरे भारतीयों से जोड़ते हैं।
छठी बात गंभीर है। वह यह कि बहुत सारे लोगों ने मान लिया है कि एक्टिविस्ट और एनजीओ पास गहरी जानकारियां होती हैं। आदिवासी और दलितों के अधिकारों को लेकर मुख्यधारा की मीडिया में जो सूचनाएं आती हैं वह बहुत सीमित होती हैं। कश्मीर को ही लें, तो वहां के बारे में सिर्फ एक तरफा ही सूचनाएं आती हैं। पूर्वोत्तर में जारी हिंसा और इसके कारणों को लेकर हमारी जानकारी भी बहुत सीमित है। लेकिन एनजीओ और एक्टिविस्ट ने वहां लोगों के साथ गहराई से काम किया है।
मैं आपके सामने एक मिसाल रखता हूं, जिसके बारे में शायद आपको नहीं पता हो। 2012 में ईईवएफएएम नाम के एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि मणिपुर में सशस्त्र बलों जो मुठभेड़ें की हैं, उनमें से कई फर्जी मुठभेड़े हैं। कोर्ट ने कुछ जजों को इस मामले की जांच के आदेश दिए, जांच में सामने आया कि एनजीओ की शिकायत एकदम सही थी। इस जांच का नतीजा यह हुआ कि मणिपुर में होने वाले एनकाउंटर की संख्या 200 से गिरकर लगभग गौण हो गई, क्योंकि सशस्त्र बलों को आभास था कि कोई उन पर नजर रखे हुए है। ऐसी सूचनाएं आपको मीडिया में नहीं मिलेंगी। दरअसल एनजीओ और एक्टिविस्ट ही संवैधानिक अधिकारों की रक्षा में लगे हुए हैं।
एक लोतांत्रिक देश में एक्टिविस्ट और गैर सरकारी संगठनों की बेहद जरूर होती है ताकि समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों आदि पर काम किया जाता रहे। लेकिन विडंबना है कि जब तक कोई मुद्दा हमसे सीधे न जुड़ा हो, हमारी दिलचस्पी उसमें होती ही नहीं। हमें ऐसे लोगों का समर्थन और मदद करनी चाहिए जो इन कामों में लगे हैं, भले ही कुछ मुद्दों पर हम उनसे असहमत ही क्यों न हों।
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