अक्सर सामूहिक विस्मृति के कारण सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास धुंधला हो जाता है। अगर जवाहरलाल नेहरू भारत की बहुरंगी विविधता को बचाए रखने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होते तो आजादी के बाद आदिवासियों और कथित ‘आपराधिक जनजातियों’ का इतिहास ही अलग होता।
आजादी से पहले का नेहरू का जीवन स्वतंत्रता संग्राम की उथल-पुथल में उलझा रहा। वहीं, आजादी के तुरंत बाद उनका सारा ध्यान सामाजिक शांति कायम करने, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आकार देने पर रहा। उन शुरुआती सालों के बीतते ही उन्होंने आदिवासियों और ‘आपराधिक जनजातियों’ की ओर रुख किया। औपनिवेशिक सरकार ने सात दशक पहले इन्हें ‘अपराधियों’ के तौर पर अधिसूचित कर रखा था। यह नेहरू की ही पहल थी कि 1952 में उस अधिसूचना को निरस्त किया गया। इसके साथ ही इन समुदायों ने आजादी की नई सुबह का एहसास किया। आज इन खानाबदोश घुमंतू जनजातियों की आबादी 15 करोड़ के आसपास है।
Published: undefined
आपराधिक जनजाति अधिनियम को बेशक अयंगर आयोग की सिफारिशों पर खत्म किया गया लेकिन इसकी अवधारणा नेहरू की थी। आदिवासी कल्याण में नेहरू के योगदान की बात वेरियर एल्विन के जिक्र के बिना पूरी नहीं होती। 1930 और 1940 के दशक के दौरान एल्विन ने दुनिया के लिए भारतीय आदिवासी समुदायों की महान सभ्यता का दस्तावेजीकरण किया जिन्हें पहले आदिम के रूप में जाना जाता था। आदिवासियों और कथित आपराधिक जनजातियों की नियति आपस में जुड़ी हुई थी।
बात अठारहवीं शताब्दी की है। भारत आने वाले यूरोपीय व्यापारियों और यात्री 17वीं शताब्दी से ही 'ट्राइबल' शब्द का इस्तेमाल किया करते थे। लेकिन तब इसका इस्तेमाल किसी समुदाय विशेष के लिए नहीं होता था। अंग्रेज कुछ खास समुदायों के लिए 'ट्राइबल' शब्द का इस्तेमाल तब करने लगे जब इन समुदायों और औपनिवेशिक शासकों के बीच एक के बाद एक कई संघर्ष हुए।
Published: undefined
1757 की प्लासी की लड़ाई और 1857 के दौरान भारतीय राजकुमारों और अंग्रेजों के बीच हुए व्यापक टकराव के बीच, भारतीय रियासतें धीरे-धीरे कंपनी सरकार के सामने समर्पण करती रहीं। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों के सामने झुक गए राजकुमारों को अपनी सेनाओं को भंग करना पड़ा। लेकिन इनके सैनिकों में अंग्रेजों का काफी विरोध था और वे छोटी-छोटी टुकड़ियों में ब्रिटिश काफिले पर हमला करके कंपनी शासन का विरोध करते थे।
उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में इस कारण खास तौर पर असुरक्षा का माहौल था और इस स्थिति पर काबू पाने के लिए औपनिवेशिक सरकार ने इन हमलों के पैटर्न का सर्वेक्षण करने के लिए एक विशेष विभाग बनाने का निर्णय लिया। कई अधिकारियों ने इस काम में योगदान दिया और इस तरह हमलावरों को ‘ठग’ कहा गया और उनकी एक खास तरह की छवि बनाई गई। उन्नीसवीं सदी के दौरान ठग और 'ठगी' (कथित कपटपूर्ण, हिंसक और धोखाधड़ी के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला अपमानजनक शब्द) औपनिवेशिक सोच पर हावी रहे और इन समुदायों को अलग-थलग करके ‘सुधारने' के लिए कानून बनाया गया। इसी कानून को आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के नाम से जाना गया। इस कानून के दायरे में भांड, कलाकार, सिक्का बनाने वाले, सपेरे, कलाबाज और ऐसे तमाम घुमंतू समुदायों को शामिल किया गया जो खेती-किसानी के साथ-साथ इस तरह की गतिविधियों से जीविका चलाते थे।
Published: undefined
लगभग उसी समय औपनिवेशिक सरकार ने भारत की जनजातियों के लिए एक और सूची तैयार की। ये वे समुदाय थे जो वन क्षेत्रों पर अपनी संप्रभुता के मुद्दे पर अंग्रेजों के साथ लगातार संघर्ष कर रहे थे। 1860 के दशक के दौरान अंग्रेजों ने वन विभाग बनाया था जिसका मुख्य काम रेलवे और नौसैनिक जहाजों के लिए अच्छी लकड़ी उपलब्ध कराना था। वनवासी समुदायों ने अपने जंगलों पर अंग्रेजों के कब्जे का विरोध किया। वनवासियों को न तो औपनिवेशिक सरकार की परवाह थी और न ही वे ब्रिटिश कानून को समझते थे। हैरानी नहीं कि इनकी अंग्रेजों के साथ अक्सर हिंसक झड़प हो जाती थी। आखिरकार अंग्रेजों ने इन्हें भी ‘ट्राइबल’ के दायरे में रख दिया।
उन्नीसवीं सदी के अंत तक, ‘जनजाति’ की अवधारणा और ‘आपराधिक जनजातियों’ की धारणा को पढ़े-लिखे भारतीयों-लेखकों, पत्रकारों, वकीलों वगैरह ने भी स्वीकार कर लिया था। इसीलिए जब 1891 के आपराधिक जनजाति अधिनियम में दी गई 'जनजातियों' की सूची में और समुदायों को शामिल किया गया या अगले साल जब जंगल से जुड़े आचार तय किए गए तो कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ। सदी के खत्म होते-होते 'जनजाति' भारतीय समाज में आदिम लोगों की एक श्रेणी के तौर पर स्वीकार कर ली गई। सरसरी तौर पर बेशक यह एक जातीय श्रेणी दिखती है, हकीकत यह है कि यह राजनीतिक और आर्थिक श्रेणी कहीं अधिक थी।
Published: undefined
जब तक एल्विन ने आदिवासी क्षेत्र की अपनी पहली यात्रा की, तब तक भारत के सामाजिक विमर्श में आदिवासी एक भूला-बिसराया मुद्दा बन चुके थे। यह एल्विन की ऐतिहासिक जिम्मेदारी थी कि वह इस श्रेणी की फिर से जांच करते और इन जनजातियों के लिए सम्मान नहीं तो कम से कम सहानुभूति हासिल करते। उन्होंने इस असंभव दिखने वाले काम को अद्भुत समर्पण के साथ अंजाम दिया। नेहरू ने एल्विन के काम में गहरी दिलचस्पी ली। स्वतंत्रता के बाद, एल्विन को आगे की राह निकालने के लिए प्रशासन में शामिल होने के लिए कहा गया। उन्होंने आदिवासी विकास के लिए एक नीति की रूपरेखा तैयार की जो आज भी आदिवासी विकास पर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। केंट में पैदा हुए वेरियर एल्विन का काम, जो गलती से 1930 में एक आदिवासी गांव में चले गए थे, इन लाखों लोगों की नियति को प्रभावित करता रहा है। अगर नेहरू की नीति ऐसी नहीं होती तो आज भी स्वतंत्र भारत में इन समुदायों के अस्तित्व को ठीक से स्वीकार नहीं किया गया होता।
1953 में भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व के लिए सिविल सेवा की एक विशेष शाखा स्थापित करने का निर्णय लिया। एल्विन को पहले इस नए कैडर के लिए अधिकारियों के चयन में सरकार की सहायता करने के लिए कहा गया, और फिर एक सलाहकार के रूप में उत्तर-पूर्व सीमा पर भेजा गया। उन्हें आदिवासी अनुसंधान संस्थान स्थापित करने और नीतिगत इनपुट प्रदान करने की भी जिम्मेदारी दी गई। एल्विन को पहले मानवविज्ञानी, विद्वान-लेखक, आदिवासियों के मित्र और गांधीवादी के रूप में जाना जाता था; अपने जीवन के अंतिम पंद्रह वर्षों में वह आदिवासी विकास के लिए एक प्रशासक और नीति निर्माता के रूप में उभरे।
Published: undefined
1959 में गृह मंत्रालय ने उन्हें आदिवासी विकास की रिपोर्ट तैयार करने को कहा। एल्विन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि किसी भी आदिवासी विकास योजना के सफल होने के लिए जरूरी है कि वह जनजातीय दृष्टिकोण से तैयार हो। उनके द्वारा सुझाए गए नीतिगत ढांचे का आधार जीवन और जनजातीय संस्कृति थी। एल्विन की कृति ‘ए फिलॉसफी फॉर नेफा’ की प्रस्तावना में नेहरू ने जो लिखा उससे पता चलता है कि एल्विन का नजरिया क्या था। नेहरू ने लिखाः
'हम जनजातीय इलाकों में अपनी दिलचस्पी छोड़ नहीं सकते। साथ ही हमें इन क्षेत्रों में अति-प्रशासन से बचना चाहिए और खास तौर पर बड़ी संख्या में वहां बाहरी लोगों को भेजने से परहेज करना चाहिए। इन दो चरम स्थितियों के बीच ही हमें काम करना है। इन इलाकों में संचार, चिकित्सा सुविधाएं, शिक्षा और बेहतर कृषि के क्षेत्रों में विकास होना चाहिए। लेकिन विकास के ये कार्य निम्नलिखित पांच बुनियादी सिद्धांतों के ढांचे के भीतर होने चाहिए:
पहला: लोगों का उनकी अपनी प्रतिभा के अनुसार विकास होना चाहिए और हमें उन पर कुछ भी थोपने से बचना चाहिए। हमें उनकी पारंपरिक कला और संस्कृति को प्रोत्साहित करना चाहिए।
दूसरा: भूमि और जंगल पर जनजातीय अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।
तीसरा: प्रशासन और विकास के काम के लिए उनके बीच के ही कुछ लोगों को प्रशिक्षित करना चाहिए। निःसंदेह कुछ बाहरी तकनीकी कर्मियों की जरूरत होगी, खास तौर पर शुरू में। लेकिन हमें बहुत सारे बाहरी लोगों को आदिवासी क्षेत्र में लाने से बचना चाहिए।
चौथा: इन क्षेत्रों का अति-प्रशासन नहीं करना चाहिए। हमें उनके सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों के माध्यम से काम करना चाहिए।
पांचवां: हमें परिणामों का आकलन आंकड़ों या खर्च की गई राशि से नहीं बल्कि विकसित मानव चरित्र की गुणवत्ता से करना चाहिए।'
अगर नेहरू आदिवासियों के लिए ‘पंचशील' नीति नहीं बनाते, तो उनके जंगल बहुत पहले खनन के लिए चले जाते। यदि उन्होंने ‘आपराधिक जनजातियों’ को ‘मुक्त' नहीं किया होता और अंग्रेजों के कानून को रद्द नहीं किया होता तो ये लोग अंग्रेजों की बनाई गई बंदोबस्त जेलों में सड़ रहे होते। इन दो अल्पसंख्यक समुदायों की कुल आबादी लगभग 27 करोड़ है। भले ही वे एक बार फिर असुरक्षित हों लेकिन उनके वर्तमान प्रतिरोध का समर्थन करने वाले अधिकारों का ढांचा नेहरू ने दिया था; अल्पसंख्यकों के प्रति उनकी स्थायी प्रतिबद्धता, हाशिए पर पड़े लोगों की गरिमा के लिए उनका सम्मान ही इसे संभव बनाता है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined